फिर याद तेरी मुझको आई, आँखें मेरी छलक पड़ी। दिल इतना बैचेन हुआ, रोकर तेरे चरणों में झुका।।
मेरे सद्गुरू, आपने हमें इस पृथ्वी पर तपते मरूस्थल में छोड़कर सिद्धाश्रम में पच्चीस वर्ष बिता दिये हैं। सद्गुरूदेव निखिल आप हमारे साथ जब पृथ्वी लोक पर थे तो हम चिन्ता मुक्त होकर आनन्द रस का भोग कर रहे थे। आपके हमारे साथ निरन्तर रहने से, आपको प्रेम से आपूरित आँखों से देखकर मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझता था। मेरा ध्यान रखते हुये अपने ममत्व, प्रेमत्व के आँचल में रखकर गुरू रूप में अपनी तपस्या का अमृत पिलाया, समाज के द्वारा दिये कष्टों को जिस प्रकार आपने दूर कर जिस ढंग से रक्षा की, हे सद्गुरूदेव निखिल उन क्षणों को, उन दिनों की याद करके एवं आपके जाने के बाद अपनी स्थिति को देखकर मैं निरन्तर व्यथित ही रहता हूँ ।
हे सद्गुरूदेव निखिल संसार ने मुझे अनेक प्रकार से अनेक रूपों में जहर पिलाया, परन्तु आपने मेरे सिर पर अपनत्व, प्रेम से अपना हाथ मेरे सिर पर रखते हुये मुझे अमृत पिलाया, उस सबको याद करके वर्तमान में अपनी हालत को देखकर सद्गुरू निखिल मेरी पुकार सुनों। मैं इस समय ‘चकोर की भांति सिद्धाश्रम की ओर देखता हुआ’ की तरह आपके श्री चरणों में निवेदन करता हूं कि-
तेरी याद जब भी आती है, आँखों से नीर बहा ले जाती है। न तुझसे दूर हो पाता हूँ, न तूझे ढूंढ पाता हूँ,।।
सद्गुरूदेव निखिल। आपके जाने के बाद संसार में समाज में परिजनों के बीच रहते हुये भी ऐसा लगता है कि कुछ ऐसा तत्व है, जिसके बिना हम अधूरे हैं। तब इस शरीर के प्राण मन स्वत: ही आपके चित्र की ओर खिंच जाते हैं, तब ऐसी भावना उदित होती है, सद्गुरूदेव निखिल हम आपके बिना अधूरे हैं।
आपके बिना हमारे लिये संसार में रहना कष्टप्रद हो गया है। आपके बिना हमें अपने जीवन की कोई गति दिखाई नहीं दे रही है।
इस जग का कोई प्राणी, मुझ जैसा बेबस, लाचार नहीं। तेरे जैसा अपना मुझे, इस जग में कोई मिला नहीं। अब तो कृपा करो।
सद्गुरूदेव निखिल। आपकी याद आते ही आँखें शून्य से कुछ निहारने लग जाती है, शरीर के अंग प्रत्यंग भी पूर्व की तरह अब पुलकित नहीं होते हैं, मस्तिष्क भी ‘किं कर्तव्य विमूढ़’ हो गया है। आँखें स्वत: नीर बहाने लगती है, प्राण कॉपने लग जाते है। शरीर का रोम-रोम खड़ा हो जाता है। गला सुखने लगता है। आपके साथ बिताये हुये क्षण सब याद आते हैं तो दिल पर चोट लगती है। आपका प्रेम से मिलना, आपका निहारना, आपका साहस, हिम्मत बंधाना, आपका अपलक तिरछी निगाह से देखना आदि स्मरण होते ही आँसू आंखों से प्रवाहित होने लगते हैं। ऐसा लगता है, आपकी चुम्बकीय शक्ति, प्रेम शक्ति ने मेरे दिल को अपने अधिकार में लेकर मुझे ऐसा नशा दे दिया है कि आपके बिना यह संसार सूना-सूना लगता है। आप जब थे, तो एक मस्ती थी, होंठों पर मुस्कराहट थी, दिल में उमंग जोश था।
दिल तुमको ढूंढता है मेरे गुरूवर, कहां खो गये तुम। उसी राह पर अब भी खड़ा हूं, जहां छोड़ गये थे तुम।।
सद्गुरूदेव निखिल। आपके सिद्धाश्रम गमन करने के पश्चात् मुझे आपकी उपस्थिति का महत्व समझ में आया।
मेरे सद्गुरूदेव निखिल। हमारी अज्ञानता, अबोधता को क्षमा करें। हम आपके करूणामय स्वरूप को समझ न सके। आप बच्चों के संग बच्चे, वृद्ध बनकर, जिस प्रकार अपने हृदय के बल से, प्रेम के प्रभाव से शाश्वत पथ की ओर स्वयं विषपान करते हुये हमें अग्रसर करने के लिये निरन्तर सचेष्ट रहे। हम आपके बाह्य सौन्दर्य, माधुर्य, चातुर्य स्वरूप को देखकर ही मोहित, मुग्ध होते रहे। आप हमें बार-बार समझाते रहे, आप हमारे लिये अनेकों कष्ट पीड़ा, समाज की आलोचनाओं का जहर पीते रहे, परन्तु हम आपके मूल चिन्तन, भाव को न समझ सके।
मेरे सद्गुरूदेव निखिल। आप हमें क्षमा करें, हमें नहीं पता कि आपने पृथ्वी लोक पर हमारे साथ रहकर कितने कष्ट, कितनी पीडाये भोगते हुये, हमारे लिये जहर पिया। समाज की ओर से हमारे लिये कितने प्रहार सहन कर अपने शरीर पर जख्म बना लिये।
मेरे सद्गुरूदेव निखिल। आप जिस विराट चिन्तन के कारण अपने शिष्यों को साधना, सिद्धियों के क्षेत्र में अन्यतम ऊँचाई पर ले जाना चाहते थे। उस विराट चिंतन को हम शिष्य समझ नहीं पाये। मेरे सद्गुरूदेव निखिल। आपका बाहृय शारीरिक सौन्दर्य ही इतना मन मोहक था कि हम आपके प्रेम के धागे में बंधकर सब कुछ भुला बैठे। हमें आपसे प्रेम करने के अलावा कुछ समझ ही नहीं, हमें आपके नेत्रों व शरीर के रोम-रोम से निकलती प्रेम रश्मियों से भीगने में जो आनन्द, तृप्ति, अमृत अनुभव हो रहा था, उसके सामने हमारे लिये साधना एवं सिद्धियां गौण हो गई। हमने प्रेम का आदान प्रदान ही अपने जीवन का सौभाग्य समझा। आपसे हमें जिस प्रकार से प्रेम मिला है, वहीं हमारे जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है।
मेरे सद्गुरूदेव निखिल। आपके सिद्धाश्रम गमन करने के बाद हमारा किसी भी कार्य में मन नहीं लग रहा है, हमें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है, इस संसार के स्वार्थ स्वरूप को देखकर एवं आपके अपनत्व को जानकर यह दिल रो पड़ता।
मेरे सद्गुरूदेव निखिल। आपके साथ रहकर हमारे अन्दर की सारी फिजा ही बदल गई। हमारी आँखों का नूर ही बदल गया, लोगों से बात करने का ढंग ही बदल गया। लोग हमें एकटक होकर देखने लग जाते हैं, तब हमें यही याद आता है।
मेरे सद्गुरूदेव निखिल। मैं अपने जीवन के अंतिम क्षण तक अपने वायदे के अनुसार ‘तुम मेरे हो’ इस संसार की विषैली आग में जलता हुआ, तड़पता हुआ, आपके प्रेम में भीगता हुआ, आपकी सुगन्ध से समाज को सुरक्षित करता ही रहूंगा आपसे एक यही विनती है कि-
मेरे सद्गुरूदेव निखिल। कहीं ऐसा न हो कि मौत की शैया पर भी मेरा यह दिल बैचेन रहे, तुम्हारे आने के इंतजार में तड़पता रहे और यह शरीर जलने से पूर्व तक आओ ही नहीं और मेरा दिल यूं रो पड़े-
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