भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की निर्बलता में। भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की असहाय अवस्था में, मनुष्य एक छोटा सा अंश है इस विराट का। संघर्ष करके जीतना भी चाहो तो न जीत सकोगे। जिससे संघर्ष करना है, वह विराट है। जो संघर्ष करने चला है, बूंद से ज्यादा उसका सामर्थ्य नहीं। हार सुनिश्चित है। जो जीतने चलेगा, हारेगा। भक्ति का शास्त्र इस सूत्र को गहराई से पकड़ लेता है- जो जीतने चलेगा, वह हारेगा और इसे रूपांतरित कर देता है। भक्ति कहती हैः हारने चलो और जीतोगे। क्योंकि देखा हमने- जो जीतने चला, हारा। तुम गणित को उलटा कर दो। जो हारा, सो जीता। जो झुका, वह बचा। जो मिटा, वही बचा।
मनुष्य लड़ना चहाता है। अगर कोई और न मिले लड़ने को तो अपने से ही लड़ने लगता है, लेकिन बिना लड़े मनुष्य को चैन नहीं और जब तक तुम लड़ोगे, तब तक भक्त न हो सकोगे। जब तक तुम लड़ोगे, तब तक तुम विभक्त् रहोगे, विभाजित रहोगे, खंडो में बंटे रहोगे।
अखंड के साथ एक छंद में बंध जाना है। विराट में लीन हो जाना है। विराट से मैत्री है भक्ति, विराट से प्रेम है भक्ति लड़ने के बहुत उपाय है-सीधे स्थूल उपाय है, सूक्ष्म बारीक उपाय है। विज्ञान सीधे ही लड़ने चल पड़ता है। विज्ञान की भाषा सीधी-साफ है, लड़ाई की भाषा है। प्रकृति की भाषा है। प्रकृति पर विजय पानी है। जैसे कि हम प्रकृति से अलग है। हम ही तो प्रकृति है। विजय कौन पायेगा? किस पर पायेगा? यहां विजित होने को, विजेता होने को दो कहां है? यहां एक का ही विस्तार है। यहां बाहर भी वही है, भीतर भी वही है।
धार्मिक कर्मकांड और भी ज्यादा चालाक है। वे लड़ते भी है और दिखलाते है ऊपर-ऊपर से जैसे लड़ते नहीं। तुम यज्ञ करते, हवने करते, तप करते, व्रत करते-कोई नहीं कहेगा कि तुम लड़ रहे हो। लेकिन गौर से देखा, तुम लड़ रहे हो। जब तुम व्रत करते हो तब तुम क्या कर रहे हो? तुम यह कह रहे हो-सिद्ध कर दूंगा कि मैं तुझे पाने के योग्य हूं। कि अपने अधिकार की घोषणा कर रहा हूं। कि देखो मैंने कितने उपवास किए, कितने व्रत किए, कितना प्राणायाम, कितना योग, कितने आसन साधे! कितनी क्लिष्ट साधना की मैने! अब और क्या चाहिए? मूल्य तो सब मैने चुका दिया है। अब और क्या पात्रता की कमी है?
लेकिन यज्ञ हो, व्रत हो, हवन हो, पूजा-पाठ हो, अगर तुम्हारी वृत्ति अपने को सिद्ध करने की है, तो चूकोगे। अगर तुम दावेदार हो, तो चूकोगे। तुम जो कर रहे हो, अगर मिटने की कला हो, तो जरूर पा लोगे। लेकिन अगर पाने चले हो, तो तुम्हारी चूक सुनिश्चित है। इसे प्रथम चरण में ही साफ-साफ समझ लेना- यह चरण किसलिए उठाया है? जीतने चले हो परमात्मा को, प्रकृति को? या परमात्मा और प्रकृति से हारने चले हो?
‘भगवत्-पूजा के बिना और प्रकार के अनुष्ठान को यजन कहा है।’
उसे भजन नहीं कहा है। यजन का अर्थ हैः यत्न, प्रयत्न, प्रयास। भजन का अर्थ हैः प्रसाद।
यजन का अर्थ हैः छीना-झपटी। तुम परमात्मा से छीनने चले हो। तुमने आयोजन किया है। तुम कहते होः देखे, कैसे तू बचेगा? तुम कहते होः हमने धन भी पा लिया, हमने पद भी पा लिया, अब हम तुझे भी पाकर रहेंगे। तुम परमात्मा को भी मुट्ठी में करने चले हो तो यजन। यजन सुंदर शब्द नहीं है। भजन अद्भूत शब्द है। यजन भजन के ठीक विपरीत शब्द हैः विधि-विधान, पद्धतियां जिनके द्वारा हम परमात्मा को अपनी मुट्ठी में कर लेंगे। भजन का अर्थ हैः विश्राम, जिसके द्वारा हम परमात्मा की मूट्ठी में हो जाएंगे। इस भेद को खूब समझ लेना, क्योंकि इस भेद पर सारी यात्रा निर्भर है।
स्वर्ग पाना चाहते हो, तो तुम जो कर रहे हो वह यजन है। परलोक में सुख पाना चाहते हो, तो तुम जो कर रहे हो वह यजन है। तुम जब तक कुछ पाना चाहते हो, तब तक तुम जो कर रहे हो वह यजन है। यजन निंदा का शब्द है भक्तों की दुनिया में। तुम जिस दिन अकाम होकर प्रेम में तल्लीन हो, निष्काम होकर रस में डूबे हो, कुछ पाने को नहीं है, कहीं जाने को नहीं है, कोई गंतव्य नहीं है, तुम हलके हो, निर्भार हो, शांत और आनंदित हो, जैसा परमात्मा ने तुम्हें बनाया है, इस क्षण तुम जैसे हो उससे राजी हो, परम संतुष्ट हो, उस संतोष से जो रोग उठता है, उस संतोष से जो गंध उठती है, वह भजन है। तुम डोलने लगते आनंद में, जितना दिया है परमात्मा ने वह इतना ज्यादा है कि पहले उसका अनुग्रह तो कर लो।
मांगने वाला कहता हैः जो दिया है वह काफी नहीं है। मांगने वाले के मन में शिकायत है। मांगने वाला नाराज है। मांगने वाला कह रहा है कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। मांगने वाला परमात्मा को दोषी करार दे रहा है, कि तूने यह कैसी दुनिया बनाई? कि तूने यह मुझे कैसा बनाया? ऐसा होना था, ऐसा होना था, और तूने यह क्या कर दिया! इतने दुःख, इतने कांटे, इतना अंधेरा, इतना भटकाव! तू दयावान नहीं है। और तूने हमे बिना तैयारी के जगत में भेज दिया, पाथेय भी नहीं दिया। रास्ते का इंतजाम भी नहीं जुटाया। कलेवे तक का आयोजन नहीं किया है। दे दिया है धक्का अंधेर में। तू कैसा पिता है? चाहे तुम साफ कहो या न कहो, लेकिन जब भी तुम मांगते हो, तुम अनुग्रह के विपरीत जा रहे हो।
अनुग्रह का अर्थ होता हैः जो तूने दिया है वह इतना ज्यादा है! मेरी कोई पात्रता नहीं थी और तूने इतना दिया! जीवन दिया, आंखे दी, जगत का सौंदर्य दिया, सूरज-चांद-तारे दिए, इतने प्यारे लोग दिए, इतना रसविमुग्ध लोक दिया। मैं नहीं था, मुझे है किया। मै शून्य था, मुझमें प्राण फूंके, मुझमें सांसे डाली मेरे हृदय में धड़कन दी। और हृदय में धड़कन ही न दी, प्रेम के अपूर्व स्त्रोत दिए। चैतन्य दिया। जागृति की क्षमता दी, ध्यान का बीज डाला, समाधि का उपाय किया। और क्या चाहिए? सब जो चाहिए, मिला है, ऐसे भव से जो उठता है, भजन। जो मिला है वह कम है और मेरी पात्रता उससे ज्यादा है, ऐसे भाव से जो किया जाता है, वह यजन। यजन से बचना। यजन में प्रेम नहीं है। भजन प्रेम है, शुद्ध प्रेम है।
जो बुद्धि है, यह तो मार्गदर्शक नहीं बन सकी। बुद्धि मार्गदर्शक बन ही नहीं सकती। बुद्धि से जो पैदा होता है वह यजन है। विधि-विधान, मंत्र-यंत्र, यज्ञ-हवन, व्यवस्था, जिसके द्वारा हम परमात्मा को फांस लेंगे। व्यवस्था, जैसे कि कोई मछली को फांसने के लिए जाल बनाता है। जैसे मछुआरा जाल फेंकता है, ऐसा यजन कर सकती है। बुद्धि कहती है, ऐसा करो, ऐसा करो। बुद्धि गणित दे सकती है। गणित में परमात्मा नहीं आता। विचार में परमात्मा नहीं आता। विचार का जाल उसे न पकड़ पायेगा। उसे तो सिर्फ प्रेम का जाल ही पकड़ पाता है। और मजा यह है कि प्रेम का जाल पकड़ना ही नहीं चाहता है। प्रेम का जाल पकड़ा जाना है। यह ऐसा खेल है, मछुआरा तो जाल फेंकता है मछली पकड़ने को, भक्त परमात्मा को पुकारता है कि जाल फेंको और मुझे फांस लो। मैं फंसने को राजी हूं। मैं प्रतीक्षा में हूँ कब तुम्हारा जाल आए और मुझे फांस ले।
प्रेम के रास्ते पर, भक्ति के रास्ते पर बुद्धि तो मार्गदर्शक हो नहीं सकती, न हो सकी कभी। अब तो पागलपन से- जुनूने-शौक से-मार्गदर्शन पूछना होगा।
यजन बड़ा बुद्धिपूर्वक है। भजन पागलपन है।
प्रेम के अपने अनुठे मार्ग है। प्रेम व्यवस्था से नहीं चलता। प्रेम स्वस्फुरणा से चलता है।
तुम जब किसी पंडित को बुला कर कहते हो, तनख्वाह दे देंगे, हमारे घर पूजा कर जाना, तो तुम क्या कर रहे हो? तुम प्रेम पत्र किसी और से लिखवा रहे हो। तुम परमात्मा को भी प्रेम पत्र अपना नहीं लिख सकते! टूटी-फूटी भाषा सही, भाव होने चाहिए।
कुछ वेद दोहराने की जरूरत नहीं है, न ही उपनिषद कंठस्थ होने चाहिए, तुम्हे जुबान दी है, तुम्हें हृदय दिया है, तुम्हें भाव दिए है, अपना गीत खुद बना लो, अपनी प्रार्थना खुद रच लो।
रचने की भी क्या जरूरत है? क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भाव पहचानता है, तुम्हारी भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है, उस तक भाषा पहुंचती ही नहीं। नही तो भाषाएं तो कितनी है! जमीन पर कोई पांच हजार भाषाएं है। और यह जमीन कोई अकेली जमीन है, ऐसा नहीं। वैज्ञानिक कहते है, कम से कम पचास हजार जमीनों पर जीवन है। वह भी कम से कम है। इतने पर तो होना ही चाहिए। ज्यादा पर भी हो सकता है। इस छोटी सी जमीन पर पांच हजार भाषाएं है। पचास हजार जमीनों पर कितनी भाषाएं होंगी? तुम्हारी सबकी भाषाएं समझते-समझते परमात्मा पागल नहीं हो जाएगा?
परमात्मा तुमसे यह नहीं पूछेगा-तुमने कैसे प्रार्थना की? कितनी कीमती प्रार्थना की? कितने कीमती शब्दों का उपयोग किया? यही पूछेगा-क्या भाव? तुम्हारा भाव क्या है? लेकिन तुमने शायद भाव वाली प्रार्थना की ही नहीं कभी। तुम जब गए, मांगने गए हो। तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं सकाम है। कभी कहते हो, बेटा नहीं पैदा हुआ तो बेटा पैदा हो जाए, कभी कहते हो, बेटा पैदा हो गया तो उसकी नौकरी नहीं लगी, नौकरी लग जाए, कभी कहते हो, पत्नी बीमार है, कभी कहते हो कुछ, कभी कुछ। तुम जब जाते हो तब क्षुद्र की मांग लेकर जाते हो। उस विराट के सामने तुम क्षुद्र की मांग लेकर खड़े होते हो। अपमानजनक है यह। ऐसे यजन छोड़ो। उसके सामने तो आंसुओं से भरी हुई आंखे ले जाओ। उसके सामने तो झुक जाओ भाव में। उसके सामने तो चुप हो जाओ तो चलेगा, बोलने की इतनी कोई आवश्यकता नहीं है। बोल अपने से आता हो तो ठीक, मगर उधार न हो।
मैं तुम्हें ऐसी ही प्रार्थना सिखाना चाहता हूँ जो तुम्हारे भीतर जन्मती हो, जो तुम्हारा फूल हो। झुक जाना, अगर कोई भाव उठे तो कह देना, मगर पहले से सोच कर भी मत जाना, अन्यथा झूठ हो जाएगा। परमात्मा के सामने तुम अभिनय मत करना। अभिनय का रिहर्सल होता है, पहले से आदमी तैयारी करता है- क्या कहूंगा, क्या नहीं कहूंगा, सब बिठा लेता है, जमा लेता है। उसी मे तो सब झूठ हो जाता है। तुम सब तय करके गए कि ऐसा-ऐसा कहूंगा, फिर तुमने वहीं-वही कह दिया। यह तो झूठ हो गया। उस क्षण की भाव-अभिव्यंजना न रही। बासा हो गया। तुम पहले ही इसे कह चुके थे अपने सामने । अब जाकर इसे तुमने दोहराया। यह तो ग्रामोफोन का रेकार्ड हो गया। तुम्हारी स्मृति ने दोहरा-दोहरा कर भर लिया था अपने भीतर, जाकर उगल दिया। यह तो एक तरह का वमन हुआ। परमात्मा के सामने झुको, और कोई भाव उठता हो तो उठने दो, न उठता हो तो न उठने दो- उठाने की कोई जरूरत नहीं है। वह तुम्हारे मौन को समझेगा। टूटे-फूटे शब्द आते हो, आने दो, शब्दों के पीछे छिपे हुऐ तुम्हारे हृदय की धड़कन को समझेगा। वही समझ जाता है भाव ही समझा जाता है।
तुम मंदिर जाते हो, क्या भाव है? कुछ मांगने जा रहे हो यजन। कुछ चढ़ाने जा रहे हो तो भजन। कुछ देने जा रहे हो तो भजन, कुछ लेने जा रहे हो तो यजन। जहां तुम लेने जाते हो वह बाजार और जहां तुम देने जाते हो वह मंदिर।
‘भगवत्-पूजा के बिना और प्रकार के अनुष्ठान को यजन कहते है’
केवल भगवत् -पूजा ही मुक्ति का उपाय है। प्रेमी कुछ मांगता नहीं। प्रेमी कहता है, मुझे स्वीकार कर लो, मुझे ले लो, मुझे अपना कर लो, मुझे अपना लो, मुझे मिटा दो मेरी तरह, तुम ही फैल जाओं और मेरे ऊपर, तुम्हारा ही रंग मेरा रंग हो।
संन्यास का अर्थ होता हैः तुमने अपना रंग छोड़ा, गुरू जो रंग पकड़ा दे, पकड़ा। यह तो प्रतीक है, गैरिक तो प्रतीक है। गैरिक रंग में कुछ नहीं रखा है, असली भीतर एक भाव छिपा है, वह यह कि अब गुरू जो रंग देगा उसी रंग में रहूंगा। यह तो शुरूआत है, कपड़े रंगने से तो शुरूआत है। आत्मा को रंगना है। अगर तुम कपड़ा रंगने से ही डर गए और कपड़ा रंगने की भी हिम्मत न दिखाई, तो और आगे कैसे बढ़ोगे? कपड़ा रंगने से कुछ होने वाला नहीं है। लेकिन कपड़ा रंगना तो केवल सूचक है, प्रतीक है, तुम्हारी तरफ से एक इशारा है कि मैं राजी हूँ, रंगो मुझे। उंडेल दो अपना रंग मेरे ऊपर, मैं झेलूंगा। मैं भागूंगा नहीं, मैं तुम्हारे प्रति खुला हूं।
फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सा रंग गुरू दे दे। बुद्ध ने पीला रंग दिया अपने भिक्षुओं को, चलेगा। जैनों ने सफेद रंग पसंद किया, चलेगा। मगर शिष्य यह कहता है कि अब मैं तुम्हारे रंग में रंगने को राजी हूं, तुम्हारी जो मर्जी हो, तुम मुझे पागल होने को कहोगे तो मैं पागल होने को राजी हूँ।
कपड़ा है ही नहीं वहां। न रंग का सवाल है, न कपड़े का सवाल है। लेकिन तुम्हारी तरफ से यह इशारा जरूरी है, अनिवार्य है- नही तो शिष्य कोई कैसे होगा? यह इशारा जरूरी है कि अब जो मर्जी!
कपड़ा है ही नहीं वहां। न रंग का सवाल है, न कपड़े का सवाल है। लेकिन तुम्हारी तरफ से यह इशारा जरूरी है, अनिवार्य है- नहीं तो शिष्य कोई कैसे होगा? यह इशारा जरूरी है कि अब जो मर्जी!
इब्राहिम सम्राट था, अपने गुरू के पास गया। और गुरू ने ऐसी मांग की जो उसने कभी अपने किसी और शिष्य से न की थी। इब्राहिम झुका तो गुरू ने कहा कि सच में झुक रहे हो? इब्राहिम ने कहा कि नहीं झुकना होता तो आता ही नहीं। कोई मुझे लाया नहीं है, अपने से आया हूँ, झुक रहा हूँ। तो इब्राहिम से पूछा उसके गुरू ने, प्रमाण दे सकोगे? इब्राहिम हाथ फैला कर खड़ा हो गया और उसने कहा, आज्ञा दें, और बड़ी अजीब आज्ञा दी गुरू ने। गुरू ने कहा, कपड़े फेंक दो, नग्न हो जाओ। इब्राहिम ने एक क्षण भी सोचा नहीं, कपडे़ फेंक दिए और नग्न हो गया। सम्राट था! और गुरू भी अद्भूत था! गुरू ने कहा, उठा लो वह जूता जो पड़ा है, निकल जाओ बाजार में, मारते जाओ अपने सिर पर जूता, इकट्ठी होने दो भीड़, पूरे गांव का चक्र लगा कर आ जाओं। और इब्राहिम चला गया-अपनी ही राजधानी में! नंगा! सिर पर जूता मारता!
जो गुरू के पुराने शिष्य थे उन्होंने कहा, यह जरा ज्यादती है। ऐसा आपने हमसे तो कभी नहीं कहा था। और सम्राट के साथ तो थोड़ा सदय होना था, बिचारा आया झुकने को, यही क्या कम था?
गुरू ने कहा, मुझसे मत पूछो, इब्राहिम से ही पूछ लेना।
और इब्राहिम जब लौटा कोई घंटे भर अपनी ही राजधानी में जूता मारते हुऐ- हजारों की भीड़ इकट्ठी है, लोग पागल चिल्ला रहे है, लोग पत्थर फेंक रहे है। लोग कह रहे है, यह हो क्या गया? लोग मजाक कर रहे है, सारा गांव हंस रहा है। बच्चे, बूढे़, स्त्रियां, सब इकट्ठे हो गए है। जुलूस चल रहा है उसके पीछे और इब्राहिम हंस रहा है, आनंदित हो रहा है और जूते मार रहा है और नग्न घूम रहा है। लौट आया। जब इब्राहिम लौट कर आया तो वह आदमी ही दूसरा था। गुरू ने अपने शिष्यों को कहा, इब्राहिम से पूछ लो। इब्राहिम ने कहा कि इस एक घड़ी में जो जानने को मिल गया, वह जन्मों -जन्मों में नहीं जाना था। और जो में पाने आया था, वह मुझे मिल ही गया। मेरा अहंकार गिर गया। यही बाधा थी। वह गुरू के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा, तुम्हारी कृपा! एक क्षण में मिटा दिया!एक घड़ी भर में मिटा दिया! मैं तो सोचता था कि वर्षो तपश्चर्या करनी पड़ेगी। सम्राट हूँ, अकड़ा हुआ, अहंकार से भरा हुआ, अहंकार में ही जीया हूं, कैसे छूटेगा यह अहंकार -मैं तो यही सोचते-सोचते आया था, कैसे छूटेगा? और तुमने क्षण भर में छुड़ा दिया। और जरा से उपाय से छुड़ा दिया।
भक्त अपने को देने जाता है। इसलिए देने वाला शर्तें नहीं रख सकता। भक्त समर्पित होता है, समर्पण बेशर्त ही हो सकता है।
गुरू के रंग मे रंग जाना शिष्यत्व है और उसी रंग में रंगने से तुम्हें परमात्मा के रंग में रंगने की कला आयेगी।
सकाम न हो प्रार्थना। सकाम न हो पूजा। कोई वासना न हो पाने की। आह्लाद से हो, आकांक्षा से नहीं। आनंद से हो, अनुग्रह से हो, अपेक्षा से नहीं। बस, वहीं सारा भेद है। तुम सत्यनारायण की कथा करवा लेते हो, कभी हवन भी करवा लेते हो, कभी यज्ञ करवा लेते हो। घी डालो, गेहूं डालो, जो तुम्हें डालना हो डालते रहो। तुम जब तक अपने को न डालोगे, तब तक कोई यज्ञ पूरा नहीं होता।
दया बरसती है, और कृपा बरसती है। जिस दिन तुम पूरे मिट जाते हो, उस दिन तुम्हारे भीतर परमात्मा का आविर्भाव होता है। उस दिन भक्त भगवान हो जाता है।
जहां तुम्हारी आंखे भर जाएं, वहीं झुक जाना। और जिससे तुम्हारे नेत्र तृप्त हो, वहीं झुक जाना। जिससे तुम्हें सुख की झलक मिले, वहीं झुक जाना। जहां शांति का आकाश खुले, वहीं झुक जाना। सिर्फ कह यह रहे है कि इस झुकने का निरंतर अभ्यास मत बनाना। यह झुकना सहज हो, अनायास हो, अप्रयास से हो, इसके पीछे यत्न न हो। तुम झुकने का निरंतर अभ्यास मत बनाना। यह झुकना सहज हो, अनायास हो, अप्रयास से हो, इसके पीछे यत्न न हो। तुम झुकने का निरंतर अभ्यास कर-कर के अगर झुकोगे, झुकना झूठा हो जाएगा। जिसका भी अभ्यास किया जाता है, वही चीज झूठी हो जाती है।
तुम किसी मित्र से मिलने जा रहे हो और तुम रास्ते भर सोचते गए-क्या कहूंगा, क्या कहूंगा, क्या कहूंगा, अभ्यास कर लिया बिलकूल कि कहूंगा कि बड़ा आनन्द हुआ, वर्षो के बाद मिले, आंखे ठंडी हो गई, कितना तड़पा, कितना रोया, इसको खूब दोहरा-दोहरा कर तैयार करके पहुँच गए। और फिर तुमने यह सब दोहरा दिया।
कुछ बात चूक गई। शब्द आ गए, भाव नहीं रहा। अगर भाव था तो शब्दों की आयोजना करने की जरूरत न थी। जब भाव होते है, तो उनके योग्य शब्द अपने आप पैदा हो जाते है। जब प्रेम होता है, तो प्रेम को कैसे निवेदन करना, यह प्रेम जानता है। इसके लिए अभ्यास नहीं करना होता। स्मरण रखना, जब तुम्हारे भीतर कोई प्रकट होने को पक जाती है तो निश्चित प्रकट होती है। जब फूल खिलने के योग्य हो जाता है, जरूर खिलता है और सुगंध को लुटा देता है। इसके लिए किसी अभ्यास, आयोजन की आवश्यकता नहीं है।
जरूरत नहीं है कि कोई गंगा जाए, यमुना की तलाश करें, गंगोत्री खोजे पवित्र जल के लिए। नहीं, अगर तुमने प्रेम से, आनंद से अहोभाव से अपने घर में रखी पत्थर की मूर्ति पर भी अपनी प्रार्थना की वर्षा कर दी, प्रेम और आनन्द से अपनी मूर्ति को नहला दिया, तो उन चरणों से जो जल गिर रहा है वह गंगा से ज्यादा पवित्र हो गया। लेकिन खयाल रखना, वह गंगा से ज्यादा पवित्र मूर्ति के कारण नहीं हो रहा है। मूर्ति तो पत्थर है! वह गंगा से ज्यादा पवित्र किसलिए हो रहा है? तुम्हारे भाव के कारण हो रहा है। तुमने उस मूर्ति में भगवान का आविष्कार कर लिया है। तुम्हारे लिए वह मूर्ति मूर्ति नहीं है। तुम्हारे लिए वह मूर्ति भगवान का प्रतीक हो गई है।
इसे ऐसा समझो कि तुम फिल्म देखने जाते हो। फिल्म पर्दे पर नहीं होती, पर्दा तो खाली है। पर्दा बिलकुल खाली ही होना चाहिये। अगर पर्दे पर कुछ हो तो फिल्म के होने में बाधा हो जायेगी। इसलिये पर्दा बिलकुल शुभ्र होता है, सफेद होता है, उसमें एक रेखा भी नहीं होती। पर्दे पर दाग बिलकुल शून्य होना चाहिये-शुभ्र, रिक्त। फिल्म तो पीछे प्रोजेक्टर में छिपी होती है। पर्दा तो सिर्फ उस फिल्म को झेलने का उपाय करता है और झेल कर तुम्हारी आंखों तक लौटा देता है। अगर पर्दा न हो तो भी प्रोजेक्टर चलता रहेगा, लेकिन तुम्हारी आँख तक लौटेगी नहीं फिल्म। चली जायेगी जगम में, चलती जायेगी, चलती जायेगी, तुम तक कभी लौट कर नहीं आयेगी। तुम देख न सकोगे। पर्दा करता क्या है? पर्दा बीच में बाधा डाल देता है, आगे नहीं जाने देता। रूकावट पड़ जाती है, वे धक्का खाकर लौट पड़ते है, लौट कर तुम्हारी आँख पर पड़ जाते है, तुम्हें दिखाई पड़ जाते हैं।
तुम्हारे हृदय में छिपा है भाव, प्रोजेक्टर वहां है। मूर्ति तो सिर्फ उस भाव को अनंत में नहीं खो जाने देती। मूर्ति पर से लौट कर भाव तुम्हारी आँख में फिर आ जाता है। मूर्ति तो ऐसे है जैसे दर्पण। तुम दर्पण के सामने खडे हो गए। तुम जब दीवाल के सामने खड़े होते हो, तुम्हें कुछ नहीं दिखाई पड़ता। क्यों? क्योंकि दीवाल लौटाती नहीं। दीवाल पर भी तुम्हारी तस्वीर पड़ती है, तुम्हारी तस्वीर सरक जाती है वापस लौट जाती है, वापस लौट कर तुम्हारी आँखों में पड़ जाती है। तुम अपने को देखने में समर्थ हो जाते हो।
तुम्हारे भाव, जिन्हें तुम अभी नहीं पकड़ पाते सीधा-सीधा, मूर्ति से लौट कर स्थूल हो जाते हो, दिखाई पड़ने योग्य हो जाते है। जो तुम्हारे भीतर अदृश्य में छिपा है, वह दृश्य बन जाता है।
तुमने जहां भगवान का आरोपण कर लिया है, फिर उनको स्नान करवाया है, वह जो जल बह रहा है, वहीं गंगाजल है। वहीं अमृत है। कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। तीर्थ अपना तुम बना ले सकते हो। सब तुम्हारे हाथ में है।
तुम्हारे सर झुकाने में सारा राज है। जिसको सर झुकाना आ गया उसके लिए सारा जगत परमात्मा हो जाता है, सारा जगत पर्दा हो जाता है। जिसे सर झुकाना न आया, वह लाख पूजा करे, लाख यज्ञ-हवन करे, उसकी पूजाएं, उसकी अकड़ को और अहंकार को और बढ़ाए चले जाते है, कम नहीं करते। भावना से भगवान का आविर्भाव। स्व स्फूर्ति से भगवान का आविर्भाव।
समर्पण में, निर-अहंकारिता में, झुक जाने में भगवान का आविर्भाव।
‘अपनी समर्पण की हुई वस्तु ग्रहण करना उचित है, क्योंकि उसमें कोई भी विशेषता नहीं है।’
एक सवाल उठता है, उसका जवाब दिया है। सवाल उठता है कि तुमने परमात्मा को समर्पित किया कुछ, अपना जीवन समर्पित कर दिया समझो। भक्त को करना ही पड़ेगा। इससे कम में काम भी नहीं चलेगा। अपना जीवन समर्पित कर दिया भगवान को? इस बात को ही याद दिलाने के लिए एक प्रक्रिया सदियो से चलती रही है- वे सारी प्रक्रियाएं याद दिलाने के लिए है, सूचनामात्र है। तुम जाकर भगवान को भोग लगा देते हो, फिर वहीं भोग प्रसाद बन जाता है, फिर तुम उसको ले लेते हो, फिर उसे तुम स्वीकार कर लेते हो। उसमें एक सार का सूत्र छिपा है। भगवान को सब दे दो, सब लौट आता है, ज्यादा होकर लौट आता है। जब तुमने चढ़ाया तब उसे भोग का नाम दिया और जब लौटता है तो उसका नाम प्रसाद हो जाता है। जो तुम देते हो वह तुम्हीं पर वापस आ जाता है। लेकिन फर्क बहुत है अब। अब तुम लेने वाले हो। अब तुम स्वीकार करने वाले हो। अब तुम ग्राहक हो।
और जब एक बार तुमने चढ़ा दिया, तो चढ़ाने से ही तुम्हारा तो रहा नहीं, इसलिये अब तुम्हें यह चिंता नहीं होनी चाहिये कि अपनी ही चढ़ाई हुई चीज कैसे वापस लूं ? तुमने तो चढ़ा दिया, तब से तुम्हारी न रही। अब परमात्मा की मर्जी, वह वापस देना चाहता है तो तुम क्या करोगे?
यह सूत्र कहता हैः ‘अपनी समर्पण की हुई वस्तु ग्रहण करना उचित है’ कोई चिंता मत लेना-‘कोई उसमें कोई भी विशेषता नहीं है।’
तुम्हारी रही ही नहीं, विशेषता की बात ही क्या है? तुमने तो दी थी, परमात्मा ने लौटा दी है। अगर परमात्मा ने लौटा दी तो अनुग्रह से उसे स्वीकार कर लेना, प्रसाद मान कर स्वीकार कर लेना।
संसार छोड़ कर नहीं भागना है, संसार परमात्मा पर छोड़ देना है। सारा संसार समेट कर उसके चरणों में रख देना है कि यह रहा तेरे पास। अगर उसे ले लेना होगा तो वापस नहीं लौटेगा। वह तुम्हें उत्प्रेरणा देगा कि चले जाओ जंगल। मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि कोई भी जंगल न जाये। परमात्मा जिसे भेजे वह जाये। अपने से कोई न जाये।
बारीक भेद है। तुमने सब चढ़ा दिया परमात्मा पर, अब तुम प्रतीक्षा करो। अगर तुम्हारे मन में भीतर याद आ जाए बच्चे की और पत्नी की, तो मतलब साफ है कि परमात्मा कह रहा है है- घर वापस जाओ। अब तुम यह मत कहना कि यह बात तो मेरे गंदे मन से आ रही है। यहां गंदा कुछ भी नहीं है। सब उसका है कैसे गंदा हो सकता है? और तुमने सब चढ़ा दिया। अब परमात्मा तुम्हारे ही मन में से तो बोलेगा! और कहां से बोलेगा? तुम्हारी आँख से ही तो देखेगा। तुम्हारे पैर ही उसके पैर हैं।
परमात्मा के हाथ तुम हो। इसलिए तो इस देश में हमने परमात्मा को सहस्त्रबाहु कहा है- हजारों हाथ वाला। सब हाथ उसके है। सब मन उसके है। सब देहें उसकी है। एक बार तुमने सब समर्पण कर दिया, फिर परमात्मा जो इशारा करता हो उसी इशारे से चल पड़ना। अगर कहे, जंगल, तो जंगल। अगर कहे, बाजार तो, बाजार। फिर तुम रहे ही नहीं। अब इसे प्रसादपूर्वक स्वीकार करना। अब तुम अपनी पत्नी के पास नहीं जा रहे हो, परमात्मा भेज रहा है तो जा रहे हो। अब तुम अपने बेटे के पास नहीं जा रहे हो, यह परमात्मा का ही बेटा है, जिसकी रक्षा के लिए तुम्हें भेज रहा है तो तुम जा रहे हो।
अगर कोई व्यक्ति इतने मौन और शांति से जीवन को जीए कि जैसा परमात्मा जिलाए वैसा ही जीता चला जाए, तो यह जगत ही मुक्ति हो जाता है। जीवन-मुक्ति इसी का नाम है। तुम चढ़ा दो, फिर परमात्मा जो लौटा दे उसे प्रसाद रूप ग्रहण कर लो। अपनी मर्जी बीच में मत लाओ। निर्णायक तुम मत बनो। कर्ता तुम मत बनो। निमित मात्र रह जाओ।
‘निमित, गुण और अनपेक्षा के अनुसार अपराध की व्यवस्था है।’
तीन भूलें भक्त से हो सकती है, उन तीन भूलों से बचना।
पहला अपराधःनिमित्त।
निमित्त उस अपराध को कहते है, जो अनिच्छा से हो जाए। तुम चाहते भी नहीं थे, तुमने सोचा भी नहीं था, विचारा भी नहीं था, और हो गया। आकस्मिक हो जाए। बिना पूर्व-योजना के हो जाए। दुर्घटना की तरह हो जाए। यह सबसे छोटा अपराध है। ऐसी बहुत सी भूलें हमसे हो जाती है। जो हम चाहते भी नहीं थे कि हो, हमने सोची भी नहीं थी कि हो। हमने उनको बल भी नहीं दिया था, बस हो गई।
दूसरा अपराधः गुण।
साधक के स्वभाव से हो, आदत से हो। और बार-बार हो। पहली तरह की भूल कभी-कभार होती है, उसे क्षमा किया जा सकता है, वह कोई बड़ी भूल नहीं है। छोटी से छोटी भूल है, उसकी पुनरूक्ति नहीं होती। दूसरी भूल की पुनरूक्ति होती है। वह रोज-रोज दोहरती है।
तुमने कल भी क्रोध किया था, आज भी क्रोध किया, परसों भी क्रोध किया था और क्रोध तुम्हारी आदत बन गई है। अब तुम आदत के कारण क्रोध करते हो। अब अगर तुम्हें क्रोध का मौका न मिले तो तुम तलाश करते हो, क्योंकि उसकी तलब उठती है। अगर मौका बिलकुल भी न मिले तो तुम मौका ईजाद करते हो। कोई न कोई बहाना खोज कर तुम क्रोध कर लेते हो। मगर तुम क्रोध करोगे। यह ज्यादा बड़ा अपराध है।
पहला अपराध तो दुर्घटना मात्र है। तुम राह पर चलते थे, किसी को धक्का लग गया, जल्दी में थे, धक्का लग गया किसी को, तुमने धक्का मारा नहीं है। भीड़ में चलते थे, किसी के पैर पर पैर पड़ गया। इसलिए क्षमायाचना कर लेने से ही बात समाप्त हो जाती है। कोई पाप का, अपराध का कोई भार नहीं तुम्हारे ऊपर पड़ता। तुमने कहा कि माफ करें! इतने में बात खत्म हो गई। तुम जब कहते हो, माफ करें, तो उसका मतलब यह होता है, जान कर नहीं किया, चेष्टा से नहीं किया है।
एक ग्रामीण आदमी शहर आया। शहर में कोई जलसा हो रहा था, उस जलसे में गया। किसी का पैर उसके पैर पर पड़ गया, उस आदमी ने कहा, सॉरी। उस ग्रामीण ने कहा कि हद हो गई, पता नहीं क्या कह रहा है? एक तो पैर मार दिया और ऊपर से गाली दे रहा है या क्या कर रहा है! खैर उसने कहा कोई बात नहीं, अजनबी जगह है। फिर किसी आदमी का धक्का उसके लग गया। उस आदमी ने भी कहा, सॉरी। उसने कहा, यह तो हद हो गई। यह भी खूब तरकीब निकाली है इन लोगों ने। धक्का दिए जाओ, मारे जाओ, पैर पर पैर रख जाओं और गाली भी दो। फिर कोई तीसरे आदमी से वही बात हो गई। भीड़-भाड़ भी भारी। उसने निकाला जूता और जो उसके सामने था उसके सिर पर दे मारा और कहा, सॉरी। कि हद हो गई, जो देखो वही मार रहा है! और यह भी तरकीब अच्छी है, पीछे से सॉरी कह दिया और चल दिए!
क्षमा मांग लेने का इतना ही अर्थ होता है कि मैंने जान कर नहीं किया है। अगर जान कर किया है तो क्षमा मांग लेने का कोई भी अर्थ नहीं होता।
दूसरा अपराध जान कर किया जाता है, आदमी के वश में होता है, आकस्मिक नहीं है। पहला अपराध क्षम्य है, दूसरा अपराध क्षम्य नहीं है। तुम अपने भीतर जांच-पड़ताल करना। अगर कोई भूल कभी हो जाती है, उसकी चिंता मत लेना बहुत। जीवन है, स्वाभाविक है। लेकिन कोई भूल रोज-रोज होती है, नियम से होती है, आदत का हिस्सा हो गई है, तुम्हारा स्वभाव बन गई है। उससे सावधान होना। उससे बचना, उससे जागना, वहीं तुम्हें डुबाएगी।
और तीसराः अनपेक्षा।
पहले से दूसरा पाप ज्यादा घातक है और दूसरे से तीसरा घातक है। अनपेक्षा का मतलब होता हैः जो साधक की मूर्च्छा से हो। एक तो अपराध हो रहा है सिर्फ आकस्मिक, एक हो रहा है आदत से, और एक हो रहा है मूर्च्छा से।
मूर्च्छा हमें जकड़े हुए है। जैसे तुम जीवन में क्या कर रहे हो यहां? कोई धन कमाने में लगा है। उससे पूछो, क्या करोगे धन का? उसने कभी सोचा नहीं। तुम उससे ज्यादा पूछो, जिद करो, तो वह तुम पर नाराज भी होगा कि यह कहां की फिजूल बात लगा रखी है? आध्यात्म इत्यादि में मुझे कोई रस नहीं है। मुझे धन कमाने दो। धन ही तो है यहां सार, और क्या है?
इस आदमी ने कभी जाग कर सोचा भी नहीं एक क्षण को कि धन कैसे सार हो सकता है? धन की भला उपयोगिता हो, लेकिन धन जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। धन कमा कर भी क्या करोगे अगर खुद को गंवा दिया? लेकिन वह दौड़ता रहेगा, दौड़ता रहेगा। दौड़ते-दौड़ते गिर जाएगा एक दिन और जीवन भर धन ही इकट्ठा करता रहेगा और मौत आकर उसे उठा ले जाएगी, धन सब पड़ा रह जाएगा। यह मूर्च्छा है। यह कभी-कभी की भूल नहीं है, और न आदत की भूल है, यह बेहोशी की भूल है। यह ध्यान का अभाव है। यह जागरूकता की कमी के कारण हो रहा है।
कोई आदमी पद के लिए दौड़ में लगा है, वह यह पूछता भी नहीं कि पहुँच कर भी क्या करूंगा? पहुँच भी गया तो क्या होगा? मैं बन भी गया दुनिया का सम्राट तो उससे सार क्या है? ऊँचे से ऊँचे सिंहासन पर बैठ गया, फिर? होगा क्या? मैं तो मैं ही रहूंगा। कोई सिंहासन तुम्हें ऊँचा नहीं सकता, ऊँचा होने का भ्रम दे सकता। तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे। ऊँचाईयां भीतर होती है, बाहर सिंहासनों पर नहीं होती। और धन भी भीतर घटता है, बाहर तिजोरियों में इकट्ठा नहीं होता। इसलिये कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि बुद्ध और महावीर जैसे भीक्षु, नग्न खड़ा, ऐसा धनी होता है कि समृद्ध से समृद्ध आदमी फीके पड़ जाते है। और तुम धनियों को देखते हो, उनके चेहरे पर मक्खियां उड़ रही है। उन्होंने पाया क्या है? मिला क्या है? एक मूर्च्छा है। और सारे लोग दौड़ रहे है, वे भी दौड़ रहे है। तुमने कभी खड़े होकर सोचा नहीं रास्ते के किनारे कि जरा भीड़ से हट कर सोच भी तो लूं-मैं कहां जा रहा हूं? इतना समय कहां, इतनी फुर्सत कहां, क्योंकि इतनी देर में दूसरे लोग निकल जाएंगे।
सोचने का समय ही नहीं मिलता, दौड़ ऐसी चल रही है। और जहां सब दौड़े जा रहे है वहां शिथिल होकर चलना, या किनारे होकर खड़े होना-लोग समझते हैः पागल हो गए हो क्या? क्या कर रहे हो यहां?
ध्यान का इतना ही अर्थ होता है कि दौड़ती भीड़ में से थोड़ी देर को हट जाओ, राह के किनारे बैठ जाओ, थोड़ी देर शांत होकर जीवन को देख तो लो-तुम क्या कर रहे हो? किसलिए कर रहे हो? इससे होगा क्या? हारे तो भी हारोगे, तो करने का प्रयोजन क्या है? सफल हुए तो भी असफल हो जाने वाले हो, असफल हुए तब तो असफल हो ही। यहां विषाद ही अंत में हाथ लगने वाला है। जिस व्यक्ति ने थोड़ा सा राह के किनारे हट कर एकांत में बैठ कर सोचा है, समझा है, विमर्श किया है, वह फिर इस दौड़ में सम्मिलित न हो सकेगा। उसे धन और पद की दौड़ मूढ़तापूर्ण मालूम होगी अज्ञान की दौड़ मालूम होगी। और जिस दिन यह मूर्च्छा टूट जाती है, उस दिन व्यक्ति भीतर की यात्रा पर निकलता है, अतंर्यात्रा पर निकलता है।
तो तीसरा अपराध है मूर्च्छा का । इन तीन अपराधों में पहला अपराध् तो नाममात्र का अपराध है, उसकी चिंता मत लेना। दूसरा अपराध बड़ा अपराध है, आदतें बहुत जोर से पड़के हुए है। कोई शराब पी रहा है, वह आदत है। कोई सिगरेट पी रहा है, वह आदत है। कोई जुआ खेल रहा है, वह आदत है। कोई चोरी कर रहा है, वह आदत है।
एक अभ्यास, आदत से काम हो रहे है। वे ज्यादा घातक है पहले से। उनसे भी ज्यादा घातक तीसरे है। जो अभ्यास से भी ज्यादा गहरे है, आदत से भी ज्यादा गहरे है। क्योंकि किसी को सिगरेट पीनी हो, शराब पीनी हो, तो सीखनी पड़ती है, लेकिन लोभ अनसीखा है, क्रोध अनसीखा है। किसी को जुआ खेलना हो, तो सीखना पड़ता है। सीखोगे तो ही सीख पाओगे। जुआरियों का सत्संग मिलेगा तो सीख पाओगे। चोरो के साथ रहोगे तो चोरी सीख लोगे। लेकिन लोभ, क्रोध, काम, मोह, उनको सीखना नहीं पड़ता। उनको हम जन्म के साथ लेकर आए है। वह हमारे जन्मों-जन्मों की मूर्च्छा है।
ये तीन अपराध है। तीसरा अपराध सबसे घातक ज्यादा खतरनाक है, उसे तोड़ो। और जब तीसरा टूट जाता है तो दूसरे के टूटने में बड़ी आसानी हो जाती है। जो स्वभाव को बदल ले, उसको आदत बदलने में कितनी देर लगेगी? आदत तो ऊपर-ऊपर है। और जिसका दूसरा समाप्त हो जाता है, उसका पहला भी समाप्त होने लगता है। क्योंकि जितना जागरूक होता है व्यक्ति, उतनी ही आकस्मिक घटनाएं घटनी बंद हो जाती है। वह संभल कर चलता है, किसी के पैर पर पैर नहीं पड़ता। वह होशपूर्वक जीता है। फिर भी पहले तरह की घटनाएं शायद कभी घट सकती है। उनका कोई बहुत मूल्य नहीं है। क्षमा मांग लेने से उनकी क्षमा हो जाती है। मगर दूसरे और तीसरे पर ध्यान रखना सबसे ज्यादा तीसरे पर ध्यान रखना।
‘निमित्त, गुण और अनपेक्षा के अनुसार अपराध की व्यवस्था है।’
‘पत्र, पुष्प आदि दान में एक ही फल है।’
जागरूक होकर जीओ, फिर परमात्मा को तुम कुछ भी चड़ा दो, फल एक है। एक बड़ा अद्भूत सूत्र है। तुम आकर कोहिनूर हीरा चढ़ा दो, या बेलपत्री चढ़ा दो, सोने के ढेर लगा दो, या एक फूल चढ़ा दो, या फूल की पंखूड़ी ही सही, फल एक है। जागरूक व्यक्ति के द्वारा कुछ भी चढ़ाया जाए परमात्मा को, फल एक है। परमात्मा के सामने न तो सोने का ज्यादा मूल्य है, और न फूल का कम मूल्य है, तुमने लाखों चढ़ाए कि दो-चार कौड़ियां चढ़ाई, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुमने चढ़ाया, इससे फर्क पड़ता है।
देवता तुम्हारा भाव देखते है, तुम्हारी भक्ति देखते है। तो कभी-कभी ऐसा हो जाता है, एक धनी आदमी हजार रूपये भी दे देता है जाकर मंदिर में मगर भाव बिलकुल नहीं होता। उसे हजार से कुछ फर्क हीं नहीं पड़ता, दिए न दिए। और कभी कोई आदमी जाकर दो पैसे चढ़ा देता है, लेकिन तब भी फर्क पड़ता है। हो सकता है जिसने दो पैसे चढ़ाए उसके पास बस दो ही थे। उसने अपना सर्वस्व चढ़ा दिया। जिसने हजार रूपये चढ़ाएं उसके पास करोड़ो थे, उसने कुछ भी नहीं चढ़ाया। परम अर्थो में गुण का मूल्य है, मात्रा का नहीं।
तुम मुंह से क्या बोलते हो, वह नहीं है प्रार्थना। तुम्हारा दिल क्या बोलता है, वही है प्रार्थना।
‘पत्र, पुष्प आदि दान में एक ही फल है।’
इसलिए यह चिंता मत करना कि मुझ गरीब के पास क्या है? मैं क्या चढ़ाऊं? भाव की दृष्टि से तुम सभी सम्राट हो। भाव की दृष्टि से भगवान ने सभी को समान बनाया है। वह काव्य भाव का सभी को बराबर दिया है। तुम्हारे पास धन न हो, फिकर मत करना, तुम्हारे पास पद न हो, फिकर मत करना, तुम अपने को तो चढ़ा ही सकते हो। तुम्हीं वास्तविक धन हो। तुम अपने भावों को तो चढ़ा ही सकते हो। फिर दो पत्ते भी पर्याप्त है।
प्रार्थना पूरी हो गई। हृदय भर आया, पर्याप्त है, प्रार्थना पूरी हो गई। तुम झुक गए। देह झुकी या न झुकी, गौण है। प्राण झुक गए। प्रार्थना पूरी हो गई।
पुकारों-आंसुओं से, भाव से, प्राणों से। चढ़ाओं अपनी निजता, कुछ और चढ़ाने का प्रयोजन नहीं। तुम्हारा धन परमात्मा के सामने सिर्फ तुम्हारा जीवन ही धन है।
पुकारो उस परम मित्र को, उस परम प्यारे को। तुम्हारी पुकार तुम्हारा पूरा हृदय हो। तुम्हारी पुकार में तुम्हारे सारे प्राण समा जाएं। तुम्हारी पुकार तुम्हारी समग्रता से उठे। बस वही भक्ति है। और सब आयोजन व्यर्थ है। और सब विधि-विधान दो कौड़ी के है। बुद्धि से जो होता है, यजन, भाव से होता, भजन। भजन से मिलता है भगवान। यजन से शायद संसार मिलता है। यत्न करोगे, धन कमा लोगे, पद कमा लोगे। लेकिन भगवान न तो यत्न से मिलता है, न प्रयास से। भगवान मिलता है जब तुम झुक जाते, परम हार में झुक जाते। जब तुम कहते हो, मेरे किए कुछ भी न होगा। जब तुम यह भ्रम ही तोड़ डालते हो कि मैं कुछ कर लूंगा, जब तुम्हारी असहाय अवस्था चरम शिखर पर पहुँचती है। बस उसी क्षण- प्यारा आ जाता है।
अगर नहीं आया है प्यारा, तो तुमने पुकारा नहीं, इतना ही स्मरण रखना। या तुमने पुकारा तो तुम्हारी पुकार झूठी थी। या तुमने पुकारा तो तुम्हारी पुकार हार्दिक न थी। या तुमने पुकारा तो तुमने शास्त्र की भाषा बोली, अपने प्राणों की भाषा नहीं बोली।
तुम्हारी प्रार्थना को तुम्हारे भीतर ही जन्मना है। जैसे फूल अपने पौधे पर जन्मता है, वैसे हर एक की प्रार्थना हर एक के जीवन में जन्मती है। और किसी की प्रार्थना तुम्हारी प्रार्थना नहीं बनेगी। मेरी प्रार्थना मेरी प्रार्थना है, तुम्हारी प्रार्थना है। मेरी प्रार्थना को तोड़ कर तुम पर लगा दूंगा, वह फूल तुमसे जुड़ेगा नहीं। वह उधार होगा। उससे तुम चाहे सज जाओ थोड़ी देर को, दुनिया को धोखा हो जाए, लेकिन उससे तुम्हारी रसधार न जुड़ेगी। वह जल्दी ही कुम्हला जाएगा, जल्दी ही गिर जाएगा। वह झूठा है। झूठे से बचो। आज के सूत्रों का सार है इतना ही कि तुम पराए से बचो, अपने को तलाशो। अपनी निजता से एक इंच भी चलो तो बहुत है और किसी के कंधे पर चढ़ कर हजार मील भी चले तो तुम चक्कर ही काटते रहोगे कोल्हू की तरह, कहीं पहुंचोगे नहीं। और ऐसा नहीं कि तुमने प्रार्थना नहीं की है, कि तुम मंदिर नहीं गए जरूर तुम कोल्हू के बैल की तरह चल रहे हो।
जागो! जाग कर अपनी जीवन-दशा को ठीक से पहचानो। उस जागरण में, उस समझ में एक बात तुम्हें स्पष्ट दिखाई पड़ जाएगी-उधार से काम चलने वाला नहीं है। परमात्मा सिर्फ तुम्हें स्वीकार करेगा। तुम किसी और के चेहरे लगा कर गए तो तुम चूकते जाओगे। तुम्हें अपना ही चेहरा खोजना पड़ेगा।
परम पूज्य सदगुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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