एक दिन महाराज मनु अपनी पुत्री के साथ महर्षि कर्दम के आश्रम पर आए और इसके पश्चात् महर्षि का देवहूति के साथ विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद भी महर्षि कर्दम अपनी तपस्या में ही लगे रहे। वही देवहूति आश्रम एवं महर्षि की सेवा में दिन रात लगी रहती। राजकन्या से वे तपस्विनी बन गयीं। उनकी स्वामी भक्ति और सेवा से प्रसन्न होकर महर्षि ने उनसे कहा,‘‘हे कल्याणी!तुमने मेरी सेवा में स्वयं को सुखा डाला, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, मैं तुम्हारी कौन सी इच्छा पूरी कर सकता हूँ?’’ देवहूति ने संतान प्राप्ति की कामना प्रकट की। इसके पश्चात् इन्हें नौ पुत्रियों की प्राप्ति हुई। ऋषि कर्दम ने देवहूति से कहा कि सन्तान प्राप्ति का उद्देश्य पूर्ण हो चुका है अतः वे दीर्घकालिक तपस्या के लिए जाना चाहते है। देवी देवहूति ने उनसे विनती करी कि वे अपनी नौ कन्याओं के विवाह उपरांत ही सन्यास ग्रहण करें। हरिच्छा जान कर ऋषि कर्दम ने अपनी अर्धागिनी की प्रार्थना स्वीकार कर ली और गृहस्थ धर्म के पालन में लगे रहे। परम पिता ब्रह्मा की आज्ञा के अनुसार ऋषि कर्दम ने अपनी पुत्रियों का विवाह स्वयं ब्रह्मा जी द्वारा सुझाए नौ मानस पुत्रों से संपन्न किया।
उचित समय आने पर माता देवहूति ने संसार के पालनहार भगवान विष्णु के अवतार भगवान कपिल को जन्म दिया। भगवान के जन्म से सम्पूर्ण सृष्टि आनंदित हो उठी। देवताओं ने आसमान से पुष्पों की वर्षा की। सभी देवी एवं देवता भगवान के दर्शन के लिए पधारें।
उनके जाने के उपरांत एकांत में ऋषि कर्दम ने प्रभु की चरण वंदना व अनेको स्तुतियां की। भगवान कपिल की परिक्रमा कर ऋषि कर्दम ने सन्यास ग्रहण कर लिया और वन में तपस्या करने चले गए।
बालक कपिल का लालन-पालन आश्रम में हुआ। वे बचपन से ही तपस्या में लीन रहते थे। धीरे-धीरे समय बीतता गया, बालक कपिल की किशोर अवस्था आने पर माता देवहूति बोली, मेरे पति ने मुझे बताया था कि आप भगवान विष्णु के अवतार हैं और आप ने संसार के उद्धार के लिए ही जन्म लिया है। हे पुत्र कपिल, मेरा मन सांसारिक माया से ऊब चुका है और मैं मोक्ष के मार्ग पर जाना चाहती हूँ। अतः आप मेरा मागदर्शन कीजिए! इस पर कपिल जी बोले- ‘‘हे माता, मेरा तो जन्म ही आत्मज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का मार्गदर्शन करने के लिए हुआ है। हे माता, मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ है और इसका मुख्य उद्देश्य परमात्मा को प्राप्त करना है। अतः व्यक्ति को अपने मन को संयमित रखकर प्रभु का ध्यान करना चाहिए। माता, यह मन ही जीव के मोक्ष और बन्धन का कारक है। जब यह मन विषयों के अधीन हो जाता है तो बन्धन कारक है और जब यह परमात्मा में लीन हो जाता है तो मोक्ष प्राप्त करता है।
माता, श्री हरि विष्णु ही इस संसार के उत्पत्ति, पालन और संहारकर्ता है अतः जीव को उन्हीं का ध्यान करना चाहिये।’’ भगवान कपिल ने अपनी माता को भगवान विष्णु के स्वरूप, प्रकृति और पुरूष के संबंध, अष्टांग योग द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने के अनेक उपदेश दिए। देवी देवहूति ने भगवान कपिल से आत्मा, परमात्मा और संसार के विषय में अनेक प्रश्न किए। भगवान कपिल ने उन सब प्रश्नों का तर्क सहित उत्तर देकर उनकी जिज्ञासा को शांत किया। भगवान कपिल द्वारा अपनी माता देवहूति को दिए गए तार्किक उपदेश सांख्य योग दर्शन कहलाते हैं। भगवान कपिल के दिव्य उपदेशों से देवी देवहूति के मन का भ्रम दूर हो गया, उन्हें संसार की नश्वरता का बोध हुआ। देवी देवहूति को दिव्य ज्ञान देकर और उन्हें प्रणाम कर भगवान कपिल जन कल्याण के लिए पूर्व दिशा की ओर चले गए। उनके जाने के उपरांत देवी देवहूति सरस्वती नदी के तट पर अष्टांग योग का पालन करते हुए समाधिस्थ हो गई और एक दिन प्रभु का चिंतन करते हुए उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया और मोक्ष प्राप्त किया।
बिंदु सरोवर से जाने के पश्चात् भगवान कपिल आर्यावर्त में सांख्य ज्ञान का प्रचार करते रहे। उन्होंने आर्यावर्त में अनेक स्थानों में भ्रमण किया और अनेक स्थानों में तपस्या की। वे अनेक वर्षो तक समाज में धर्म का प्रचार करते रहे। इसके उपरांत वे आर्यावर्त के पूर्वी भाग में चले गए और सागर के तट पर आश्रम बनाया, वे अनेक वर्षो तक उसी आश्रम में रहें।
एक बार राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ किया और उनके यज्ञ का घोड़ा देवराज इन्द्र ने चुराकर कपिल ऋषि के आश्रम में छोड़ दिया। राजा सगर के 60,000 पुत्र अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा ढूंढते हुए कपिल ऋषि के आश्रम में पहुँचे। राजा सगर के पुत्रों को लगा कि कपिल ऋषि ने ही यज्ञ का घोड़ा चुराकर अपने आश्रम में रख लिया है। जब राजा सगर के पुत्रों ने उनके आश्रम में प्रवेश किया, उस समय ऋषि कपिल तपस्या में लीन थे। उन्होंने कपिल ऋषि को अत्यन्त तिरस्कृत किया और उनकी तपस्या भंग कर दी, इससे क्रुद्ध होकर कपिल ऋषि ने राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को अपनी क्रोधाग्नि से भस्म कर दिया।
जब राजा सगर का पुत्र असमंजस अपने भाईयों को ढूंढता हुआ कपिल ऋषि के आश्रम में पहुंचा तो उनको भस्म हुआ देखकर अत्यन्त चिन्तित हो उठा। असमंजस ने ऋषि कपिल से उनकी मुक्ति का उपाय पूछा। कपिल ऋषि बोले सगर के 60,000 पुत्र मेरी क्रोधाग्नि से भस्म होकर प्रेत योनि को प्राप्त हुए है अतः यदि देवी गंगा ब्रह्मलोक से धरती पर आए, तभी उनका उद्धार हो सकता है। राजा सगर, उनके पुत्र असमंजस, उनके पुत्र दिलीप और विशेषकर उनके पुत्र भागीरथ के अथक प्रयासों के द्वारा गंगा का धरती पर आगमन हुआ और उनके जल से राजा सगर के पुत्रों का उद्धार हुआ। देवी गंगा के दर्शनों से मुनि कपिल अत्यन्त प्रसन्न हुए उन्होंने राजा भागीरथ की अत्यन्त प्रशंसा की और उन्हें अनेक आशीर्वाद दिए। कपिल मुनि ने गंगा नदी की विपुल जलराशि का सागर में विलय होने से उस स्थान को गंगासागर नाम दिया। आज गंगासागर हिन्दुओं के सबसे बड़े तीर्थ के रूप में जाना जाता है।
मान्यता है कि सारे तीर्थ बार-बार गंगा सागर एक बार अर्थात् गंगासागर तीर्थ का सर्वाधिक महत्त्व है और जो पुण्य व्यक्ति को एक बार गंगासागर के दर्शनों से मिल जाता है उतना पुण्य अन्य तीर्थी में अनेक बार दर्शनों के उपरांत भी नहीं मिलता। गंगासागर धाम में देवी गंगा, भगवान कपिल और राजा भागीरथ की भव्य प्रतिमाएं स्थापित है। कपिल मुनि ने अनेक वर्षो तक गंगासागर धाम में ही निवास किया था, इसके पश्चात् देवभूमि उत्तराखण्ड चले गए और वहां तपस्या में लीन रहे। कपिल मुनि के दिव्य चरण जहां-जहां पड़े वहां-वहां अनेक तीर्थ बन गए। उनके सभी तीर्थ स्थानों पर मकर सक्रांति एवं कार्तिक मास में भव्य मेलों का आयोजन होता है। प्रत्येक कल्प के आदि में कपिल जन्म लेते है। महाभारत में कपिल मुनि के उपदेश को कपिल गीता के नाम से जाना जाता है। मुनिवर कपिल द्वारा रचित सांख्य योगदर्शन संसार के प्राचीनतम ग्रंथो में से एक है। जो व्यक्ति नित्य इनकी कथाओं का पठन और श्रवण करता है वह मृत्यु के उपरांत इस भौतिक लोक को त्याग कर भगवान विष्णु का दिव्य वैकुंठ प्राप्त करता है।
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