शिष्यता क्या है? क्या केवल मुंह से जय गुरूदेव कहने से या फूल माला चढ़ाने से या चरण स्पर्श करने से व्यक्ति शिष्य हो जाता है? सद्गुरूदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के अनुसार ये तो मात्र गुरू भक्ति की अभिव्यक्ति के साधन मात्र हैं। व्यक्ति तो शिष्य तब होता है जब उसमें कुछ विशेष गुण उत्पन्न होते है।
शिष्य निरंतर गुरू चिंतन करना अपना परम कर्त्तव्य समझता है। इससे न केवल उसे आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है, मन शुद्ध रहता है अपितु बाहरी दूषित वातावरण भी उसके मन पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाल पाता।
शिष्य कोई अन्य मंत्र जप करने की अपेक्षा गुरू मंत्र को अपने जीवन में प्रधानता देता हैं क्योंकि इस मंत्र द्वारा सभी सिद्धियों को, चैतन्यता को, दिव्यता को प्राप्त किया जा सकता है। शिष्य के लिए गुरू आदेश से बड़ा मंत्र नहीं, गुरू सेवा से बड़ी कोई साधना नहीं तथा गुरू चरणों से बड़ा कोई यंत्र नहीं। वह केवल यह प्रतीक्षा करता रहता है कि कब गुरू उसे आज्ञा दें और कब वह उनकी आज्ञा का पालन करते हुये उनके बताए कार्य को पूरा करे।
गुरू शिष्य से किसी भेंट की अपेक्षा नहीं करता। उसे तो केवल निश्चल प्रेम द्वारा अपना बनाया जा सकता है। एक शिष्य गुरू को धन, यश, प्रतिष्ठा भेंट आदि द्वारा प्रभावित करने की अपेक्षा श्रद्धासुमन तथा प्रेमाश्रुओं द्वारा गुरू के हृदय में स्थान बनाने का प्रयास करता है।
शिष्य व्यक्ति तब कहलाता है जब वह गुरू के कार्यों को पूर्णता प्रदान करने में अपना तन-मन लगा देता है। गुरू को वह शब्दों द्वारा प्रसन्न करने की अपेक्षा उनके कार्यों में सहायक बनकर उनके हृदय पटल पर अपना नाम सदा के लिये अंकित कर देता है।
शिष्य का एक सर्वोच्च गुण है गुरू में श्रद्धा। केवल गुरू मंत्र जप करने से श्रद्धा प्रमाणित नहीं होती। सच्ची श्रद्धा तो वह है कि शिष्य पर कितनी ही विकट समस्याएं क्यों न टूट पड़ें वह निडर रहे और मन में अटल विश्वास रखे कि गुरू जब साथ है तो कुछ उसका अहित नहीं हो सकता। केवल यह कहने से कि मुझे गुरू पर विश्वास है, श्रद्धा व्यक्त नहीं होती। श्रद्धा तो तब व्यक्त होती है जब विषम से विषम स्थिति में भी शिष्य निष्कंप तथा अविचलित बना रह सके।
शिष्य हर क्षण गुरू को अपने समीप अनुभव करता है चाहे वह शारीरिक रूप से गुरू से मीलों दूर ही क्यों न हो और जब वह ऐसा अनुभव करता है तो फिर जीवन में कोई उसका कुछ अहित ही नहीं कर सकता और यही नहीं वह स्वयं भी कुछ गलत कार्य नहीं कर सकता। क्योंकि तब गुरू स्वयं उसे सही मार्ग पर बराबर अग्रसर करते ही रहते हैं।
शिष्य कोई नाम या यश प्राप्त करने के लिये गुरू का कार्य नहीं करता, उसका नाम हो या नहीं हो, गुरू के हृदय में तो वह शिष्य सबसे प्रिय है जो बिना शोर करे या बिना घमंड के गुरू कार्य में रत रहता है।
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