वेदों में होमापक्षी की कथा है। यह चिड़िया आकाश में बहुत ऊँचे पर रहती है। वहीं पर अंडे देती है। अंडा देते ही वह गिरने लगता है। परंतु इतने ऊँचे से गिरता है कि गिरते-गिरते बीच में ही फूट जाता है। तब बच्चा गिरने लगता है। गिरते-गिरते ही उसकी आँखे खुलती हैं और पंख निकल आते है। आँखे खुलने से जब वह बच्चा देखता है कि मैं गिर रहा हूँ और जमीन पर गिर कर चूर-चूर हो जाऊँगा, तब वह एकदम अपनी माँ की ओर ऊँचे चढ़ जाता है।
यह कथा किसी पक्षी की कथा नहीं, मनुष्य की कथा है। मनुष्य के पतन, मनुष्य के बोध ही कथा है। ऐसा ही मनुष्य है। आकाश में हमारा घर है, ऊँचाइयों पर हमारा घर है, लेकिन जन्म के साथ ही हम गिरना शुरू हो जाते है। गिरने का कोई अंत नहीं। क्योंकि खाई अतल है, कोई तल नहीं खाई का। हम गिरते जा सकते है, और गिरते जा सकते है। ऐसी कोई सीमा नहीं जहाँ अनुभव में आये कि बस इसके आगे गिरना और नहीं हो सकता। और भी हो सकता है।
अंतिम पापी अभी नहीं। कभी होगा नहीं। क्योंकि पाप में और परिष्कार हो सकते हैं। पाप में और नई ईजाद हो सकती है। पाप में और नई कलाएं जोड़ी जा सकती हैं।
गिरने का कोई अंत नहीं है। गिरते ही गिरते किसी दिन आँख खुलती है। गिरने की चोट से ही आँख खुलती है। गिरने की पीड़ा से ही आँख खुलती है और उसी आँख के खुलने में मनुष्य को अपने घर की याद आनी शुरू होती है।
उस आँख का खुलना है- दर्शन, दृष्टि। नहीं तो हम अंधे है। ये बाहर की आँखे खुली है, इससे यह मत सोच लेना कि तुम्हारे पास आँखे हैं। अगर तुम्हारे पास आँखे है तो फिर बुद्ध के पास क्या था? तुम्हारे पास आँखे है तो फिर महावीर के पास क्या था? तुम्हारे पास आँखे है तो फिर जिनको हमने दृष्टा कहा, उनके पास क्या था? नहीं, तुम्हारे पास आँख नहीं है। तुम्हारे पास सिर्फ आँख की भ्रांति है।
हमारी आँखे वैसी ही है जैसे तुमने मोर के पंख पर बनी आँखे देखी हो। उनसे दिखाई कुछ नहीं पड़ता, आँखे भर है। हमारी आँखे मोरपंखी है। चित्रित है। दिखता कुछ नहीं है, सूझता कुछ नहीं है, बूझता कुछ नहीं है। टटोल-टटोल कर गिरते-उठते हम चलते रहते हैं।
आँख तो तब है जब तुम्हें अपने घर की याद आ जाये। आँख तो तब है जब तुम्हें ऊँचाई का स्मरण आ जाये। तुम कहाँ से आये हो, किस स्त्रोत से आये हो, जब उसकी प्रतीति सघन हो जाये, तो समझना कि आँख खुली। और उसी क्षण क्रांति शुरू हो जाती है। उसी क्षण अनुलोम समाप्त हुआ, विलोम प्रारंभ हुआ। उसी क्षण हम परमात्मा से दूर जाने की बजाय उसके पास आना शुरू हो जाते है। और पंख हमारे पास है, आँख हमारे पास नहीं है। आँख हो तो हम पंखो का सम्यक उपयोग कर लें। शक्ति हमारे पास है, दृष्टि हमारे पास नहीं है। इसलिये हमारी शक्ति आत्मघाती हो जाती है। हम अपनी ही तलवार से अपने को ही छिन्न-भिन्न कर लेते है। किसी और ने तुम्हे थोडे़ ही काटा है, किसी और ने तुम्हें खंडित थोड़े ही किया है, तुमने ही अपने को खंडित किया है, तुमने ही अपने को काटा है, कोई और तुम्हें नहीं मार रहा है, तुम्ही अपने को मार रहे हो। महावीर ने कहा है, मनुष्य ही अपना मित्र और मनुष्य ही अपना शत्रु है। शत्रु तब तक जब तक आँख नहीं। तब तक हाथ में आई हुई ऊर्जा भी आत्मघाती सिद्ध होती है। और मित्र उस दिन से जिस दिन आँख खुली।
आँख बंद और आँख खुलने के बीच जो घटना है, उसको मैं संन्यास कह रहा हूँ। आँख खुले, इसकी आकांक्षा संन्यास है। आँख बंद है, इसकी प्रतीति होने लगे, तो आँख खुल जाये, इसकी आंकाक्षा भी पैदा होने लगती है। यहाँ पूरी चेष्टा यही है कि तुम्हें यह स्मरण आ जाये कि तुम्हारे पास आँख अभी है नहीं। तुम्हें स्मरण आ जाये कि तुम्हारा जो ज्ञान है, थोथा है, झूठा है। तुम्हें यह स्मरण आ जाये कि जिसे तुमने जीवन समझा है, वह सपने से ज्यादा नहीं है और इससे तुम कुछ निकाल न पाओगे, जैसे कोई रेत से तेल निकालने की कोशिश कर रहा है, ऐसे ही जीवन में हारोगे, विषाद में मरोगे। ये आशायें जो तुमने संजो रखी है, कोई भी काम आने वाली नहीं है। क्योंकि इन आशाओं का अस्तित्व से कोई सामंजस्य नहीं है। ये तुम्हारे निजी सपने है। ये सपने पूरे नहीं हो सकते। अस्तित्व का सहयोग मिले तो ही कोई चीज पूरी हो सकती है। और अस्तित्व का सहयोग तभी मिलता है जब तुम्हारा अहंकार मरता है। अहंकार गिराता है, निर-अहंकार उठाता है। अहंकार अंधापन है, निर-अहंकार आँख है।
यह होमापक्षी की कथा मनुष्य की अंतर कथा है। अंतर-व्यथा भी। और इसे तुम ठीक से समझ लो तो मनुष्य का पूरा यात्रापथ समझ में आ जाये।
जिंदगी को देखने के ढंग पर सब निर्भर करता है, तुम कैसे देखते हो।
आज लोग ज्यादा पढ़े-लिखे है, निश्चित। आज से दस हजार साल पहले गैर पढ़े-लिखे लोग थे। कोई लिखना नहीं जानता था, कोई पढ़ना नहीं जानता था। इस हिसाब से देखो तो आज का आदमी विकसित है। किताब पढ़ लेता है। लेकिन दस हजार साल पहले जो आदमी था, वह ज्यादा शांत था, ज्यादा आनंदित था, ज्यादा प्रफुल्लित था। उसके जीवन में एक रथ था, एक छंद था। वह सब छंद खो गया। छंद को देखो तो पतन हो गया। अखबार की कतरनें बढ़ती चली गई है, छंद खोता चला गया है। पढ़ाई-लिखाई हो गई बहुत, मस्तिष्क में बहुत सी सूचनायें संगृहीत हो गई और हृदय बिलकुल सिकुड़ गया है। अगर मस्तिष्क को देखो, तो मात्रा बढ़ी है, मात्रा का विकास हुआ है। लेकिन अगर हृदय को देखो, तो गुण गिरा है, गुण का पतन हुआ है।
मूल्यवान क्या है-गुण या मात्रा? क्वांटिटी या क्चालिटी?
अगर आदमी को देखो तो कभी झोपड़े में रहता था, फिर अच्छे मकानों में रहा, अब महलों में रह रहा है। आज गरीब से गरीब आदमी जो कपड़े पहने हुए है, वे सम्राटों को उपलब्ध नहीं थे। चीजें बढ़ गई। आदमी के पास परिग्रह का विस्तार बढ़ गया। लेकिन परिग्रह के विस्तार को बढ़ाने वाला आदमी विकसित आदमी है? यह सवाल है। क्योंकि जितना परिग्रह बढ़ता है, उतनी चिंता बढ़ती है, उतनी अशांति बढ़ती है, उतनी बेचैनी बढ़ती है, उतनी विक्षिप्तता बढ़ती है। चीजों की गिनती कर रह हो, तो विकास मालूम होता है। लेकिन चीजों का विकास क्या आदमी का विकास है?
लोग कहते हैं, जीवन-स्तर बढ़ गया। स्टैंडर्ड ऑफ लाईफ। अच्छा मकान है, अच्छी सड़के हैं, अच्छे कपड़े हैं, अच्छी दवाइयाँ हैं- जीवन-स्तर बढ़ गया।
इसको जीवन-स्तर कहते हो? बस, इतने पर जीवन समाप्त हो जाता है? जीवन गुण की बात है। क्या इसीलिये तुम बुद्ध का जीवन स्तर नीचा कहोगे, क्योंकि वे भिक्षापात्र है। तुम्हारे बड़े से बड़े अरबपति-तुम्हारे रॉकफेलर, तुम्हारे मॉर्गन, तुम्हारे फोर्ड- सोचते हो कि बुद्ध से उनके पास बड़ा जीवन-स्तर है? महावीर नग्न खड़े है, इसलिये क्या उनका जीवन स्तर तुमसे नीचे है? उनके पास वस्त्र नहीं है, आत्मा है, गुणवता है, भगवत्ता है।
यह होमा की कथा मनुष्य की चेतना के निरंतर पतन की कथा है।
इसलिये इस देश में हमने जो विभाजन किया है, वह देखते हो? चार कालों में समय को बांटा है। पहला काल सतयुग। फिर द्वापर, फिर त्रेता। फिर कलियुग। श्रेष्ठतम युग पहले। फिर प्रतिक्षण पतन होता जाता है। फिर एक-एक टांग टूटती जाती है। आदमी अपंग होकर गिर पड़ता है कलियुग में। दोनों हाथ, दोनों पैर, सब टूट गये। इसके पीछे बड़ा गहरा मनोविज्ञान है। इसे तुम एक-एक आदमी की जिंदगी में भी देख सकते हो।
बच्चा पैदा होता है, तब वह सतयुग में होता है। बच्चे के जीवन में श्रद्धा होती है, सरलता होती है, निर्दोष भाव होता है। सौंदर्य होता है। आह्लाद होता है। आश्चर्य-विमुग्ध बच्चा जीता है। छोटे बच्चे को देखो, अभी-अभी ताजे पैदा हुये को देखो! वह सतयुग में है। सतयुग के लिये तुम्हें दार्शनिक सिद्धांतों में जाने की जरूरत नहीं है, छोटे बच्चे को देखो, वह सतयुग में है। फिर धीरे-धीरे पतन शुरू होता है। अहंकार पैदा होगा। पतन शुरू हुआ। फिर परिग्रह बढ़ेगा। पतन और शुरू हुआ। और आखिर में तुम एक आदमी को देखो, बुढ़ापे में, वह कलियुग है। सब यंत्रवत हो जाता है। जिंदगी बोझ हो जाती है। बूढ़ा आदमी मशीन की तरह हो जाता है। जीता है किसी तरह, सांस लेता किसी तरह, अब मरने की तैयारी है, मरने के सिवाय और कोई भविष्य नहीं है। इसलिये इस देश में हमने कहा है कि कलियुग के बाद प्रलय हो जायेगी। मृत्यु ! कलियुग के बाद फिर कोई और समय नहीं बचता, मृत्यु ही बचती है। यह आदमी के, सामान्य प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कहानी है। और जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की कहानी है, वही मनुष्य-जाति की भी कहानी है।
होमापक्षी गिरना शुरू होता है ऊँचाई से, परमात्मा के घर से। पहले अंडे में छिपा होता है। फिर अंडा भी टूट जाता है-गिरते-गिरते। फिर पंख निकल आते हैं-गिरते-गिरते। फिर आँख भी खुल जाती है-गिरते-गिरते। और जब आँख खुलती है तब उसे समझ में आता है कि क्या हो रहा है! जब तक आँख नहीं खुली थी, तब तक शायद वह सपना देखता हो कि मैं ऊँचाइयों पर जा रहा हूँ, विकास हो रहा है। कि मैं अपनी माँ को कितना पीछे छोड़ आया! हर बच्चा ऐसा ही सोचता है कि मैं अपने माँ-बाप को कितना पीछे छोड़ आया!
पश्चिम के लेखक ने लिखा है कि जब मैं सत्रह साल का था और विश्वविद्यालय से पहली दफा घर आया तो मुझे लगा-अरे, मेरे माता-पिता कितने गंवार है! फिर जब मै चौबीस वर्ष का हो गया और विश्वविद्यालय से सारी दिक्षायें पूरी करके लौटा, तब मैं बड़ा चकित हुआ कि इन सात-आठ सालों में मेरे माँ-बाप ने बड़ा विकास कर लिया, ये बड़े बुद्धिमान हो गये। जैसे-जैसे समझ बढ़ी, वैसे-वैसे माता-पिता में बुद्धिमता दिखाई पड़ी। जितनी समझ कम थी, उतने माता-पिता बुदू मालूम होते थे। जवानी में हर युवक सोचता है कि माँ-बाप मेरे मूढ़ हैं।
क्यो?
सोचता हैः मैं विकास कर रहा हूँ। मैं आगे जा रहा हूँ। मेरे माँ-बाप को पता क्या है? ये अभी भी पुराने ढर्रे के लोग, अभी भी पुरानी रूढ़ि में चल रहे है और जी रहे हैं। इन्हें कुछ पता नहीं है। जिंदगी कहाँ से कहाँ चली गई, इन्हें कुछ पता नहीं है। जवानी में हर आदमी क्रांतिकारी होता है और सोचता है कि मैं जिंदगी को बड़े आगे ले जा रहा हूँ। वह सिर्फ जवानी का भ्रम है।
पक्षी, जब तक उसकी आँखे बंद है, यही सोचता होगा कि मैं आगे बढ़ता जा रहा हूँ। कितना आगे बढ़ता जा रहा हूँ! कितना दूर निकल आया! माँ-बाप को कितने पीछे छोड़ आया! बेचारी माँ, वहीं के वहीं है। जब आँख खुलती है, तब उसे पता चलता है कि मैं तो दूर निकल आया, लेकिन आगे नहीं निकल आया हूँ। दूर निकल आना अनिवार्य रूप से आगे निकल जाना नहीं है। दूर निकल जाना गिरना भी हो सकता है, उठना भी हो सकता है। और उठना तो आँख खुलने के बाद ही संभव है। क्यांकि आँख खुली हो तभी पंखो का सदुपयोग हो सकता है।
तुम हो होमापक्षी! प्रत्येक व्यक्ति होमापक्षी है।
वेदों में दो शब्द बड़े बहुमुल्य है-होमा और सोमा। दोनों समझने जैसे है। दोनों प्रतीक हैं। शायद दोनों का जन्म एक ही शब्द से हुआ होगा। क्योंकि कुछ लोग स को ह उच्चारण करते है। तो होमा और सोमा हो सकता है एक ही शब्द से आये हो, सिर्फ उच्चारण-भेद हो गया है। इस स और ह के कारण ही तो हिंदुस्तान का नाम पड़ा। जब आर्य भारत में आकर बसे तो उनका ही एक हिस्सा ईरान में बसा। उनका एक कबीला ईरान में बसा। ईरान का पुराना नाम है-आयरान। आयरान से ही ईरान बना। आर्यो का एक कबीला ईरान में बस गया और एक कबीला भारत में आकर बसा। भारत का पुराना नाम -आर्यावर्त और ईरान का पुराना नाम आयरान। ईरान में जो आर्य बसे, वे स का उच्चारण ह की तरह करते थे। इसलिये जब उन्होंने पहली दफा भारत की यात्राएं कीं- अपने मित्रों से मिलने आये होंगे, अपने सगे-संबंधियों से मिलने आये होंगे- तो सिंधु नदी को उन्होंने हिंदू नदी कहा। उसी से हिंदू शब्द पैदा हुआ। उसी से हिंदुस्तान शब्द पैदा हुआ। और उसी से इंडिया शब्द पैदा हुआ। उन्होंने इसको हिंदू कहा और जब इसे वे वापस ले गये उनके द्वारा यह शब्द जाकर पश्चिम की तरफ यात्रा पर निकला, तो कुछ जातियां थी, जो ह का उच्चारण इ की तरह करती है, तो उन्होंने हिंदू को इंदू उच्चारण करना शुरू किया। इंदू से इंडस। इसलिये अंग्रेजी में सिंधु नदी का नाम है-इंडस । और फिर इंडस से इंडिया। भारत का नाम इंडिया हो गया। यह सारी बात पैदा हुई सिर्फ इसी बात से कि कुछ लोग ह की तरह उच्चारण करते थे स का।
सोमा तो सिर्फ प्रतीक है, जैसे होमा एक प्रतीक है। अब तुम होमापक्षी को खोजने मत निकल जाना! नहीं तो कहीं नहीं मिलेगा। यह बात हो ही नहीं सकती कि इतनी ऊँचाई पर माँ अंडा दे। ऊँचाई पर रहेगी कैसे? घोसला कहाँ बनायेगी? अंडे को रखेगी कहाँ, इतनी ऊँचाई तो कोई भी नहीं है जहाँ से अंडा गिरे और गिरते ही गिरते पक्षी निकल आये, और गिरते ही गिरते पंख निकल आये, और गिरते ही गिरते आंखे खुल जायें, ऐसी तो कोई ऊँचाई नहीं है। यह प्रतीक कथा है। सोमा भी कोई जड़ी-बूटी नहीं है, वह परमात्मा को पी जाने का नाम है। वह परम औषधि को पी जाने का नाम है। ये प्रतीक है। जब कोई व्यक्ति सोमरस पी लेता है- सोमरस यानी प्रभु-रस, रसो वै सः – जब प्रभु के रस को कोई पी लेता है, तो फिर जो मस्ती आती है, वह कभी टूटती नहीं।
यहाँ तो जितने भी रस उपलब्ध है, सबकी मस्ती टूट ही जाती है। क्षणभंगुर है। अभी है, अभी समाप्त हो जायेगी। कीमती से कीमती शराब भी कितनी देर काम आयेगी? थोड़ी देर विस्मरण हो जाता है। फिर ? फिर सब वही जाल शुरू हो जाता है। मगर भक्ति का एक ऐसा रस है, एक ऐसी मधुशाला है, जहाँ अगर तुमने पी लिया, तो बस पी लिया। उसको पीते ही तुम मिट जाते हो-विस्मरण नहीं होते, मिट ही जाते हो, गल ही जाते हो, खो ही जाते हो।
तो सोमा प्रतीक है परम रस का। और होमा प्रतीक है उस परम गृह का, उस मातृग्रह का, उस मातृभूमि का जहाँ से हम आये है। हम बड़ी ऊँचाइयों से आ रहे है। हम अगम्य ऊँचाइयों से आ रहे है। हम परमात्मा से आ रहे है। कोई अभी अंडे में ही है। जो अंडे में ही है, उसे धर्म शब्द अर्थहीन मालूम होता है। उसे हैरानी होती है लोग जब धर्म-चर्चा के लिये जाते है, या सत्संग के लिये जाते है। वह कहता है, क्या करते हो? मैं सिनेमा जा रहा हूँ, चलो वहाँ! वहाँ कुछ रस है, कुछ आनंद, तुम जाते कहाँ हो? धर्म में रखा क्या है? अभी वह अंडे में है। जो अंडे में है, उसे अंडे के बाहर क्या है, यह पता नहीं हो सकता। अभी वह कहता हैः धन कमाओ, राजनीति में उतरो, चुनाव लड़ो, पद-प्रतिष्ठा बनाओं, इसमें कुछ सार है। यह तुम किस धुन में पड़ गये हो? तुम गलत रास्ते पर जा रहे हो। जिंदगी में कुछ कर जाओ, कुछ निशान छोड़ जाओं, हस्ताक्षर छोड़ जाओ- कि तुम्हें लोग याद करें, इतिहास में तुम्हारी याद रह जाये। यह धर्म इत्यादि में लग कर तो तुम खो जाओगे और धर्म इत्यादि सब झूठ हैं।
इस दुनिया में अधिक लोग अंडे में है। अभी अंडा भी नहीं टूटा, वे गिरते ही जा रहे हैं, वे गिरते ही जा रहे है। कुछ लोग अंडे में ही रह कर मर जाते है। अंडा भी तभी टूट सकता है जब तुम थोड़े पंख फड़फड़ाओं। तुम जरा भीतर से चोंच मारो! तुम अंडे से राजी मत हो जाओ! तुम अपनी सुरक्षा से राजी मत हो जाओ! तुम थोड़े से अभियान करो, थोड़ी खोज-बीन करो, थोड़ी जिज्ञासा करो- अथातो भक्ति जिज्ञासा! अंडा टूटेगा, मगर तुम कुछ भीतर से करोगे तो टूटेगा। बाहर से कोई तोड़ नहीं सकता। बाहर से यह अंडा तोड़ा नहीं जा सकता, इसकी कूंजी भीतर से ही तोड़ी जा सकती है। बाहर से तो कोई तोड़ेगा तो और कठिन हो जाता है, क्योंकि तुम भीतर से रक्षा करने लगते हो। तुम आत्मरक्षा में लग जाते हो। तुम भयभीत हो जाते हो। तुम्हीं साहस जुटाओगे तो अंडा टूटेगा।
कुछ का अंडा टूट जाता है, मगर उनकी आँखे नहीं खुलती। फिर वे बंद आंखो से गिरना शुरू हो जाते है। ऐसे लोग धर्म के संबंध में विचार तो करते है, लेकिन धर्म का आचरण नहीं करते। सोचते है। कहते है, धर्म अच्छी बात है, ईश्वर इत्यादि की सैद्धांतिक चर्चा करते है, गीता इत्यादि पढ़ते है, शब्द कंठस्थ कर लेते है, लेकिन उनके जीवन में कोई रंग नहीं होता। जीवन को नहीं रंगते बातचीत ही होता है धर्म। बहुत लोग ऐसे ही बकवास करते समाप्त हो जाते हैं।
बहुत थोड़े से सौभाग्यशाली लोग है जो आँख खोलने की चेष्टा में संलग्न होते है। भजन से खुलती है आँख। भजन की ऊर्जा से ही आँख के खुलने की संभावना है। या ध्यान से खुलती है आँख। एक ही बात को कहने के दो ढंग। ध्यान से या भजन से आँख खुलती है। भजन के संबंध में मत सोचते रहो, भजन करो। धर्म तुम्हारा कृत्य हो तो आँख खुलती है। भजन के संबंध में मत सोचते रहो, भजन करो। धर्म तुम्हारा कृत्य हो तो आँख खुलेगी। और आँख खुलते ही क्रांति घट जाती है। आँख खुलते ही दिखाई पड़ता है-तुम गिर रहे हो। रोज-रोज गिरते जा रहे हो। हम सब मृत्यु के मुँह में गिरते जा रहे हैं। वहीं है जमीन से टकरा कर टूट जाना। तुम भी कितनी देर चलोगे? कोई भी खो गई घड़ी वापस नहीं मिलती। जो समय गया, गया। आँख खुलते ही दिखाई पड़ता है कि मैं बहुत गंवा चुका हूँ। अब और गंवाने की जरूरत नहीं तत्क्षण दिशा रूपांतरित हो जाती है।
पंख तो तुम्हारे पास ही है। आँख न हो तो अपने पंख भी नहीं दिखाई पड़ते। आँख न हो तो मैं कितनी संपदा लेकर पैदा हुआ हूँ। यह भी दिखाई नहीं पड़ता। आँख न हो तो पता ही नहीं चलता कि मेरे भीतर हीरे-जवाहरातों की खदाने है। प्रभु का राज्य मेरे भीतर है। परमात्मा ने पूरा पाथेय देकर भेजा है। मगर आँख तो चाहिये ही चाहिये। कहते रहे है बुद्ध, कृष्ण कि परमात्मा का राज्य तुम्हारे भीतर है, तुम सुन भी लेते हो, फिर अपनी दुकान पर बैठ जाते हो। सुन लेते हो और अनसुना कर देते हो।
जिनसे कहा था, उनके पास तुम जैसी ही आँखे थी, तुम जैसे ही कान थे। अंधों से बात नहीं कर रहे थे। लेकिन साधारण आदमी अंधा ही तो है, बहरा ही तो है, लंगड़ा ही तो है। सोचता ही है, करता नहीं। और कृत्य से जीवन रूपांतरित होता है।
कुछ लोग सौभाग्यशाली है, जिनकी आँख खुलती है। बस आँख खुलने का क्षण संन्यास का क्षण है। फिर उसके बाद रूपांतरण हो जाता है। विलोम शुरू हुआ, वापसी की यात्रा शुरू हुई। बेटा बाप की तरफ वापस लौटने लगा। जो अदम प्रभु के राज्य से निष्कासित हो गया था, वह फिर प्रभु की तलाश में चल पड़ा। अपने घर की खोज।
इस होमापक्षी की कथा को कथा मान कर तुम पढ़ लोगे तो चूक जाओगे। इसका रस। इसमें पूरी प्रक्रिया छिपी हुई है।
धन्यभागी हैं वे, बिजली की चमक जब आकाश में गूंज जाती है तो जिनके पर फड़फड़ा उठते है। बुद्ध में और कृष्ण में हुआ क्या, बिजली चमकी! जिनमें थोड़ा भी प्राण था, जो थोड़े भी जीवंत थे, उनके पंख फड़फड़ा गये। जो मुर्दा थे, उनको कुछ भी न हुआ। वे जैसे थे वैसे ही बैठे रहे।
पुकारे तुम गये हो बहुत बार, पुकारे तुम जा रहे हो, पुकारे तुम अभी भी जा रहे हो, मैं तुम्हें पुकार रहा हूँ। लेकिन तुम सिकुड़े बैठे हो। तुम अपना छोटा-मोटा संसार बना लिये हो। तुम उसी संसार में जकड़े बैठे हो। तुमने दो कौड़ी की चीजें इकट्ठी कर ली है, उनको संपदा मान ली है, वहीं अटके हो, और गिर रहे हो रोज, और गिर रह हो हर पल, और जल्दी ही टकराओगे भूमि से और चूर-चूर हो जाओगे।
परेशान मत होना। ये कांटे जो अभी कांटे जैसे लग रहे है, यही फूलों में रूपांतरित हो जाते हैं। जीवन की बड़ी अपूर्व कमियाँ है। बड़ी रहस्यपूर्ण रसायन है। यहाँ दुःख सुख हो जाते है। यहां नरक स्वर्ग हो जाते है। यहाँ मृत्यु महाजीवन का द्वार बन जाती है।
और कठिनायाँ बढ़ेगी, तुम्हारा प्रेम जैसे-जैसे लगेगा परमात्मा की तरफ, जैसे-जैसे तुम उस रस में विभोर होओगे, वैसे-वैसे तुम संसार में बहुत अर्थो में बेकाम होने लगोगे। तुम्हारा रस वहाँ कम होगा। दौड़-धूप कम हो जायेगा। यह बिल्कुल स्वाभाविक है। जितने से काम चल जाये, उतने से तृप्ति हो जायेगी। दूसरों को लगेगा, तुम हार गये। दूसरों को लगेगा, तुमने पराजय स्वीकार कर ली। दूसरों को लगेगा, तुम उदास हो गये। दूसरो की कही गई बातों पर बहुत ध्यान मत देना। तुम तो अपने भीतर देखना और देखना कि क्या तुम हार गये हो? या जीत अब शुरू हुई?
यहां ऐसे लोग है जिनको सब पता है और यात्रा नहीं करते। और यहाँ ऐसे लोग है जिन्हें कुछ पता नहीं और यात्रा कर लेते है। जो यात्रा कर लेंगे, वे ही वस्तुत जानेंगे। जो अपनी सड़ी-गली सूचनाओं को, उधार और बासी सूचनाओं को लिये बैठे रहेंगे, वे कितना ही बड़ा पांडित्य इकट्ठा कर ले, उनका पांडित्य उनके अज्ञान को छिपाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ।
इतना खयाल रखो! सब लौट आता है, सब वापस आ जाता है।
निशां गुजरी हुई घड़ियों का लेकिन फिर नहीं मिलता
लेकिन जो समय बीत गया, फिर उसका निशान भी नहीं मिलता। तुम यहाँ हो, तुम इतने से ही राजी हो जाओगे कि मेरे चरण छूकर चले जाओ? इतने से हल हो जाएगा?
इतने से क्या होगा? और जब मैं तुम्हें सब देने को राजी हूँ, तब तुम इतना सा लेने को क्यो? मैं कृपण देने में नहीं हूँ, तुम लेने में कृपण हो रहे हो।
कल की कौन जाने? मैं होऊं तुम न होओ, तुम होओ, मैं न होऊं, हम दोनों हों और फिर मिलना न हो सके।
बड़ी पुरानी कथा है। एक वजीर को सम्राट ने फांसी की सजा दे दी। नाराज हो गया था, कुछ बात ऐसी हो गई। ऐसे वजीर से प्रेम भी बहुत था। लेकिन राजा तो राजा थे। जरा सी बात हो गई और इतना नाराज हो गया कि नाराजगी में कह दिया कि फांसी लगा दो। सात दिन बाद फांसी लग जाये। लेकिन नियम था उस राज्य का कि फांसी के एक दिन पहले सम्राट, जिसको भी फांसी होती थी, उससे मिलने जाता था। फिर यह तो उसका वजीर था। तो वह गया मिलने। वजीर बहादुर आदमी था, अनेक युद्धों में लड़ा था, छाती पर बड़े घाव थे उसके। कभी उसकी आँख में आंसू नहीं देखा गया था। राजा को देखते ही उसकी आँख से आंसू झर-झर गिरने लगे। राजा ने कहा, आश्चर्य ! क्या तुम मृत्यु से डर गये हो? मैं तुम्हें जन्म भर से जानता हूँ। तुम जैसा हिम्मतवर आदमी इस राज्य में दूसरा नहीं। तुम्हें मैंने कभी रोते नहीं देखा। तुम रो क्यो रहें हो? बात क्या है? तुम कहो, मुझसे, बात क्या है?
उसने कहा, कुछ भी बात नहीं, अब कहने से कुछ सार नहीं। अब जो हो गया, हो गया लेकिन मैं मौत के कारण नहीं रो रहा हूँ, मैं तुम्हारे घोड़े के कारण रो रहा हूँ।
वह जो घोड़ा सम्राट चढ़ कर आया है, बाहर बांध दिया है, सीखचों से दिखाई पड़ रहा है। सम्राट ने कहा, घोड़े के कारण? घोड़े के कारण क्यो रोओगे तुम? पहेली मत बूझो, मुझे बात सीधी-सीधी कहो।
वजीर ने कहा, अब आप नहीं मानते तो कहे देता हूँ। मैंने जिंदगी भर एक कला सीखी, बड़ी मेहनत से कला सीखी कि मैं घोड़े को आकाश में उड़ना सिखा सकता हूँ। मगर एक खास जाति के घोड़े को ही वह उड़ना सिखाया जा सकता है। और वह घोड़ा मुझे न मिला सो न मिला। आज जब कि मरने का दिन आ गया, यह घोड़ा सामने खड़ा है! आप जिस घोड़े पर बैठ कर आये है, इसकी मैं तलाश में जिंदगी भर से था। इस जाति का घोड़ा उड़ना सीख सकता है।
सम्राट को तो आकांक्षा जगी कि अगर घोड़ा उड़ना सीख जाये। तो उन दिनों तो घोड़ा सबसे बड़ी ताकत थी। और अगर घोड़ा उड़ता हो, तब तो कहना क्या! तब तो यह सम्राट का साम्राज्य सारे जगत में फैल जायेगा। उसने कहा, तू फिकर मत कर। कितना समय लगेगा घोड़े को उड़ना सीखने में?
वजीर ने कहा, एक साल लगेगा।
सम्राट ने कहा, तो एक साल के लिये तुझे हम जेल से बाहर निकाल देते है। अगर घोड़ा उड़ना सीख गया तो आधा राज्य भी तुझे दूंगा और अपनी बेटी से विवाह भी कर दूंगा। और अगर घोड़ा उड़ना नहीं सीखा, तो ठीक है, अभी सूली लगती है, साल भर बाद लग जायेगी।
वजीर तो उस घोड़े पर बैठ कर अपने घर लौट आया। घर तो पत्नी रो रही थी, बच्चे रो रहे थे, माँ रो रही थी, बाप रो रहा था, कि आखिर दिन आ गया और अभी तक कुछ आसार नहीं है क्षमा के। बेटे को लौटा देख कर बाप तो समझ ही नहीं सका। पत्नी तो एकदम दीवानी हो गई खुशी में। सबने घेर लिया कि कैसे बचे? क्या हुआ? वह हंसा और उसने कहा कि ऐसे बचा, यह घटना घटी,
पत्नी और जोर से रोने लगी। माँ और छाती पीटने लगी। उसने कहा, तुमने यह क्या किया? हमें सब पता है कि तुम्हें कुछ पता नहीं, तुम घोड़ा उड़ाना कुछ सीखा नहीं सकते हो घोड़े को। तुमने कब सीखा? कहाँ सीखा? इसकी तो तुमने कभी बात ही नहीं की।
उस वजीर ने कहां, मैं कुछ जानता नहीं घोड़े उड़ने इत्यादि के संबंध में, यह तो एक कहानी गढ़ी है।
तो उन्होंने कहा, अब हमें और मुसीबत में डाल दिया। ये सात दिन हमारे इतने कष्ट से कटते हैं, अब यह साल और कष्ट से कटेगा। इससे तो बहेतर था तुम मर ही जाते। हमें लटका दिया फांसी पर साल भर के लिये और अगर मांगा ही था तो कम से कम दस साल तो मांगते।
उस वजीर ने कहा, पागल हो गये हो! एक साल का क्या भरोसा? राजा मर सकता है, मैं मर सकता हूँ और कम से कम घोड़ा तो मर ही सकता है। एक साल का भरोसा क्या है? कुछ भी हो सकता है। फिकर न करो।
और आश्चर्य की बात यह है कि ऐसा हुआ कि तीनों ही मर गये। राजा भी मर गया, वजीर भी मर गया और घोड़ा भी मर गया।
जीवन का आघात, वज्राघात अनुभव करो! खोलो आंख! अगर अपने अपने अंडे में बंद हो अब तक सुरक्षा के, तो तोड़ो अपने अंडे को, खोलो आँख, देखो अपने पंख! तुम्हारा पंख ही आकाश का प्रमाण है। पंख है तो आकाश जरूर होगा। और पंख है तो ऊंचाइयाँ जरूर होंगी, नहीं तो पंख होते किसलिये? पंख होते कैसे? इस जगत में कुछ भी अकारण नहीं है! तुम्हारे भीतर अगर ईश्वर को खोजने की आकांक्षा है तो ईश्वर होना ही चाहिये। नहीं तो आकांक्षा न होती। पंख ही न होते अगर आकाश न होता। कैसे पंख होते? किसलिये पंख होते? कहाँ से पंख होते? उनका प्रयोजन क्या होता? निष्प्रयोजन तो कुछ भी नहीं है। तुम्हारा पंख इस बात का प्रमाण है कि आकाश है, ऊंचाइयाँ है, जो जाननी है और जिन्हें बिना जाने कोई तृप्ति नहीं हो सकती।
बनो होमापक्षी! और तुम होमापक्षी बनो तो एक दिन सोमा का पान होगा। तुम होमापक्षी बनो तो एक दिन सोमरस तुम्हारे कंठ से उतरेगा। तुम उस परमात्मा को पी सकोगे। उसे बिना पीए तृप्ति नहीं। इस जगत का जल कितना ही पीओ, फिर-फिर प्यास लग आती है। उस जगत का एक बूँद भी कंठ से उतर जाये, तो प्यास सदा को समाप्त हो जाती है।
यहां जगत में जो नाकाम होता जाता है, वही परमात्मा में सफल होता है।
और यह कोई साधारण प्रेम नहीं है। साधारण प्रेम भी बड़ी पीड़ाएं देता है, तो असाधारण प्रेम तो असाधारण पीड़ाएं देगा। लेकिन साधारण प्रेम के सुख भी साधारण है, असाधारण प्रेम के सुख भी असाधारण है।
इस जगत का प्रेम, साधारण प्रेम भी बड़ा पीड़ादायी है। सुख की तो थोड़ी सी झलक है, कहीं, कभी। एक सुगंध आती हो खो जाती है। दुर्गंध ज्यादा है। एक अंश में कभी कहीं कोई आनन्द का भाव उठता है, निन्यानवे प्रतिशत तो अंधेरा ही अंधेरा है। एक किरण कभी फूटती है। मगर उस एक किरण के लिये भी लोग कितना दुःख झेल लेते है!
मैं तुम्हें जिस प्रेम की तरफ ले जा रहा हूँ, वहाँ शत-प्रतिशत प्रकाश की संभावना है, सौ प्रतिशत किरणे तुम पर बरसेंगी। स्वभावतः बहुत निखरना होगा, बहुत जलना होगा, बहुत आग से गुजरना होगा। हिम्मत चाहिये, पागल की हिम्मत चाहिये। हिम्मत चाहिये, जुआरी की हिम्मत चाहिये।
लेकिन यह आधी बात है, कि प्रेम दुःख है, कि प्रेम पीड़ा है। प्रेम आनंद भी है, प्रेम मस्ती भी है। वह दूसरा हिस्सा है प्रेम का और जितनी बड़ी पीड़ा, उतने ही बड़े आनंद की संभावना है। पीड़ा ही पीड़ा का हिसाब रखोगे तो जल्दी ही घबरा जाओगे, आनंद का भी हिसाब रखना।
खूब फूल खिल रहे हैं। नजर कांटों पर ही मत अटका लेना। कांटों की ही गिनती मत करते रहना। और ध्यान रखना, हजार कांटों में भी एक फूल खिले, तो एक फूल की कीमत हजार कांटो की पीड़ा से बहुत ज्यादा है! फिर मैं तुमसे कहता हूँ-हजारों फूल खिल रहे है। इसलिये नकारात्मक दृष्टि को छोड़ो। कुछ लोग ऐसे है जो नकार की ही गिनती करते रहते है। वे रास्ते के कंकड़-पत्थर गिनते रहते हैं। और रास्ते पर जो आनंद की वर्षा होती है, उसकी उन्हें चिंता ही नहीं। वे क्षुद्र अड़चनों का हिसाब-किताब रखते हैं और विराट का प्रसाद बरसता है, उसको ऐसे स्वीकार कर लेते हैं जैसे उनका जन्मसिद्ध अधिकार था।
परम पूज्य सद्गुरू
कैलाश श्रीमाली जी
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