सांसारिक मनुष्य का जीवन कर्म राशि भार के नीचे दबा होता है, संचित कर्म मनुष्य के पूर्व जन्म के वे कर्म होते हैं, जिन्हें वह अभी तक नहीं भोगा है। ये कर्म संस्कार बनकर इस जीवन में भी उसके साथ रहते हैं। इसी प्रकार प्रारब्ध का तात्पर्य भाग्य है, पूर्व जन्म में किये गये अनगिनत कर्मों के फलस्वरूप जो यह जीवन मिला है, वे कर्म प्रारब्ध कहलाते हैं, इन कर्मों को इसी जीवन में भोगना पड़ता है।
यही कारण है कि जो व्यक्ति अपने इस जीवन में इतने सुकर्म, पूजा, साधना, शुभ कार्य आदि सम्पन्न करने पर भी असफल है, जीवन में अथक परिश्रम करने पर भी, सम्यक प्रयास करने पर भी बार-बार असफलतायें मिलती हों, सामान्य से भी निचले स्तर पर जीवन जीने को विवश होना पड़े, इसका एकमात्र कारण यही है कि उसका जीवन पूर्व जन्म के कर्मों के फल स्वरूप बाधित है।
वास्तव में संचित एवं प्रारब्ध कर्मों के कारण मनुष्य का जीवन एक कठपुतली की भांति हो जाता है। वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पाता है और भाग्य या प्रारब्ध के लेखों के आगे विवश होता है।
हिंदू धर्म में कुंभ स्नान का महत्त्व बेहद विशेष बताया गया है। मान्यता है कि अगर व्यक्ति कुंभ स्नान करता है तो उसके सभी पाप समाप्त हो जाते हैं और उसे पापों से मुक्ति मिल जाती है। साथ ही व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति के साथ ही अमरत्व की प्राप्ति होती है। परन्तु जो व्यक्ति इस पर्व पर कुंभ स्नान सम्पन्न नहीं कर पाते वह इसका लाभ प्राप्त करने हेतु सद्गुरूदेव जी से शक्तिपात दीक्षा ग्रहण करते हैं।
क्रियामाण दीक्षा के माध्यम से, सद्गुरु शिष्य का नव निर्माण करने से पूर्व उसे जो मृत्यु देते हैं, वह मृत्यु उसके इन्हीं दूषित कर्मों की मृत्यु होती है, जिसके भार से दबा हुआ वह प्रगति नहीं कर पाता, उसके मार्ग में बार-बार बाधा आती रहती है।
क्रियामाण दीक्षा साधक में एक नवीन ऊर्जा का प्रस्फुटन करती है, उसके अन्दर उत्साह, चेतना, उमंग, जोश, कार्य क्षमता, परिश्रम और सफलता की संयुक्त विद्युत रश्मियाँ प्रवाहित कर देती है। यह क्रिया एक सतत् पूर्ण प्रभावी प्रक्रिया होती है, जिसके प्रभाव से शनैः शनैः साधक के कर्म जन्य दोष भस्मीभूत होने लगते हैं।
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