भगवान राम करूणा की सूरत, दया के सागर और उनका नाम मानव मात्र का कल्याण करने वाला है। राम मर्यादा पुरूषोत्तम हैं। उन्होंने ‘रघुकुल रीत सदा चलि आई, प्राण जाये पर वचन न जाये, के तहत 14 वर्ष राज-पाट का त्याग कर वन-वन तपस्या की, वहीं शिलारूप धरे अहिल्या को अपने चरणकमल की धूल से अभिशाप मुक्त कर कल्याण किया। राम ने लंका पर चढ़ाई करने के लिये समुद्र को सुखाने के लिये जहां अपना धनुष बाण चढ़ा अपने पराक्रमी रूप का परिचय दिया, वहीं रावण वध कर असत्य पर सत्य की विजय पताका फहरा एक कुशल योद्धा और राजनीतिज्ञ होने का संदेश दुनिया को दिया। मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम का जन्मोत्सव राम नवमी पर्व सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिये गर्व का विषय है। श्रीराम का नाम अडिग आस्था और चमत्कारिक है। भगवान श्री राम का जीवन करूणा, दया और बिना किसी भेद भाव के प्राणी मात्र के महत्त्व और कल्याण का मार्ग है। उनका प्रकटोत्सव दिवस राम नवमी को धर्म और कर्तव्य का निर्धारण दिवस कहें तो शायद गलत नहीं होगा। उन्होंने शबरी के जूठे बेर खाने में जहां संकोच नहीं किया, वही निषाद को गले लगाकर दलित उद्धार का संदेश दिया। राम की छवि और उनके कार्य आज के युग में भी प्रासंगिक हैं तथा युवा पीढ़ी को प्रेरणा देने वाले हैं।
मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने सुग्रीव और रावण के भाई विभीषण को शरण दे शरणागत की रक्षा कर क्षत्रिय धर्म का पालन किया तथा रावण से युद्ध के बाद जब लंका पर विजय पताका फहराई तो जीता हुआ राजपाट विभीषण को सौंप, पराई सम्पत्ति और नारी पर नजर न रखने का संदेश भी दुनिया को दिया। अत्याचार और बुराई के प्रतीक रावण के उद्धार और धरती को रावण और उनके वंशज रूपी राक्षसों से मुक्ति दिलाने के लिये अवतार के रूप में भगवान राम की उत्पत्ति हुई। भगवान राम का जीवन मर्यादाओं की कसौटी और युवाओं की प्रेरणा का स्त्रोत रहा है, और आगे भी जन्म-जन्मान्तर तक रहेगा। भगवान राम करूणा की मूर्ति अर्थात् करूणा का सागर रूप है, वहीं करूणा मानव जाति की चिरसंचित सम्पत्ति है, जो समय के साथ उपादान पाकर विकसित हो जाती है। भगवान राम का जीवन शुरू से अंत तक केवल करूणा के विकास के उपादान के रूप में ही मिलेगा। मर्यादा पुरूषोत्तम राम दशरथ पुत्र के रूप में जहां हमारे सामने बाल लीला का मनोहारी रूप प्रस्तुत करते है, वहीं परम ब्रह्म के रूप में अनादि शाश्वत एवं अविनाशी बन जाते हैं। राम आदर्श और मर्यादित जीवन के प्रतीक हैं। राम लोकमानस की पूंजी हैं। श्रीराम का चरित्र और आदर्श की महिमा का रामचरितमानस जीवन मूल्यों की पूंजी है। श्रीराम का चरित्र और आदर्श की महिमा का रामचरितमानस में विस्तृत उल्लेख किया गया है।
मर्यादा पुरूषोत्तम राम हमारी संस्कृति में जितने अभिजात्य कुलीनता के है, उतने ही सामान्य जन के घर-आंगन में, उतने ही गरीब एवं अमीर थे, उतने ही विद्वान और सामान्य जन दोनों ही जगह समान श्रद्धा और स्नेह के पात्र हैं। भगवान राम का चरित्र साधारण जीवन जीने वालों को यह विश्वास दिलाता है कि लक्ष्य की सिद्धि साधनों की विपुलता से नहीं, बल्कि निर्वासित तथा असहाय होने पर भी संकल्प एवं विश्वास से हो सकती है।
श्रीराम हमारे जीवन की संस्कृति में एक तरह से संजीवनी के समान हैं। राम के बिना शायद पाप और पुण्य, बुराई और अच्छाई की कहानी अपूर्ण रह जाती है। मर्यादा पुरूषोत्तम राम का सम्पूर्ण जीवन आज भी हमारे लिये प्रेरणा का स्त्रोत है। पिता का पुत्र के प्रति कर्त्तव्य, भाई का भाई के प्रति कर्तव्य, पति का पत्नी के प्रति कर्त्तव्य, पिता की वचनबद्धता निभाने के कारण राज पाट छोड़ 14 वर्ष का वनवास काटना, विषम परिस्थितियों में धैर्यवान, ओजस्वी, तेजस्वी स्वरूप, माता-पिता की आज्ञा का पालन जैसे कई घटनाक्रम राम का मर्यादा पुरूषोत्तम होना दर्शाते है। श्रीराम के अनेक गुण, जिनका उल्लेख रामचरित मानस और इतिहास से किया गया है वे आज के युग में भी उतने ही प्रासंगिक है। आज की युवापीढ़ी को राम का आदर्श चरित्र प्रेरित करता है। जरूरत है आज की युवापीढ़ी को पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड़ और भागम-भाग वाली जिन्दगी में से कुछ क्षण निकाल, अपनी संस्कृति, राम की मर्यादा और राम कथा पर नये सिरे से विचार करने की।
उस युग में राम को किसने जाना-वशिष्ठ, विश्वामित्र, जनक, परशुराम, सीता और वाल्मिकी ने।
राम को पहचानने वाले अनेक हो, परन्तु राम ने अपना रूप दिखाया केवल कौशल्याको। जन्म के समय स्वयं राम ने अपना चतुर्भुज स्वरूप कौशल्या को दिखा दिया, यह आवश्यक था।
राम का क्या स्वरूप था और राम जन्म का क्या हेतु था, यह पूर्व निश्चित था। इस बात को समझने वाले सबसे पहले व्यक्ति महर्षि वशिष्ठ थे जिन्होंने जान लिया था कि राम परब्रह्म है और राम का प्रकट होने का हेतु राज्य करना नहीं अपितु वन में जाकर राक्षसों का अंत करना है। दूसरे व्यक्ति, जो राम को समझते थे और राम जन्म का हेतु जानते थे, वे राजऋर्षि विश्वामित्र थे। वे राम को अपने साथ वन में ले गये और उनके बारे में कहा- मैं जान गया था कि राम स्वयं ही ब्रह्मदेव भगवान है। विश्वामित्र समझ गये थे कि राम स्वयं जन्म का हेतु राक्षसों का अंत करना है। वे वास्तव में वैज्ञानिक थे और उनका प्रयोजन राक्षसों को समाप्त करना था, विश्वामित्र का यज्ञ वास्तव में शस्त्र ढालने की भट्टी था, जिससे राक्षस भयभीत थे। विश्वामित्र ताड़का से रक्षा के लिये जंगलों में गुप्त स्थानों पर यज्ञशालाओं की भट्टियों में अकाट्य शस्त्र बनाया करते थे। उन्होंने राम को अत्यंत प्रभावशाली शस्त्र दिये थे और उनका अभ्यास तथा परीक्षण उन्हीं से कराया। उन शस्त्रों को लेकर राम वन गये और उनसे मारीच को 100 योजन दूर उछाल दिया, वहीं सुबाहु को मार गिराया।
महाराजा जनक के निमंत्रण पर धनुष के बहाने स्वयंवर के लिये जनकपुरी जाते समय मार्ग में गौतम के आश्रम में पहुँचने पर राम से, जब वहां एक दिव्यशिला देखकर विश्वामित्र कहते है- गौतम शाप बस, उपल देह धरि धीर। चरनकमल रज चाहती, कृपा करहुं रघुवीर।।’ राम को शिव भक्त जानकर शिव के पुराने धनुष को तोड़ने के लिये राम का आह्वान किया। उस अवसर पर विश्वामित्र राम को कहते हैं- हे राम! उठो और यह संसाररूपी धनुष तोड़ दो। राम भगवान हैं और भगवान ही संसाररूपी धनुष को तोड़ सकते हैं। भगवान बंधनमुक्त करने के लिये इस संसार में आते है, विश्वामित्र यह बात जानते थे। उन्होंने समझ लिया था कि राम मोक्षदाता हैं और राम संसार रूपी धनुष को तोड़ सकते हैं। वह सांसारिक राजाओं से नहीं टूटेगा। राम को पहचानने वाली सीताजी भी थीं। जिनका चित्त कभी चंचल नहीं हुआ था और किसी परपुरूष को देखकर उसे वरने के लिये तैयार नहीं हुई थी। वहां सीताजी ने राम को देखकर जान और समझ लिया था कि इनका जन्म मेरे लिये ही हुआ है। उन्होंने यह समझकर राम के गले में माला तो डाली परन्तु उनके चरण नहीं छुए, वे डरीं। उन्होंने अहिल्या के बारे में सुना था और उन्हें अपना रूप बदलने का डर था। सखियों ने उनके बार-बार कहा, हे सीता! स्वामी के चरण छुओ, परन्तु सीताजी ऐसा करने वाली नहीं थीं। परशुराम को अत्यन्त ज्ञान प्राप्त था। राम को देखते ही पहचान गये और राम का रूप देखकर निहाल हो गये थे। अंत में उन्होंने राम की ओर अपना धनुष बढ़ाकर उन्हें रमापति कहा, परन्तु रमा का पति कहने का अर्थ यह है कि परशुराम समझ गये थे कि ये राम विष्णु के अवतार हैं और धनुष स्वयं राम के हाथ में चला गया। धनुष का उठना और स्वयं जाना इस बात का संकेत है कि धनुष अपने स्वामी को पहचानता था। वह यह भी जानता था कि राम शिव के इष्ट हैं और उनका धनुष शिव का धनुष है। उसके द्वारा परशुराम ने वहां उपस्थित समस्त राजाओं को बता दिया कि राम स्वयं भगवान है।
राम के दर्शनों से बुद्धि शुद्ध हो जाती थी, परन्तु रावण के साथ वैसा नहीं हुआ। उसका राम के साथ युद्ध हुआ, किन्तु रावण ने किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया, वे सीता को यह तो कहते रहे कि तुम राम को छोड़कर मेरा वरण कर लो, परन्तु उन्होंने उनके साथ अभद्र व्यवहार नहीं किया। रावण सीताजी के पतिव्रत से भी प्रभावित थे। राम को जनक भी जान गये थे। वे ही राम को कन्यादान देने गये थे किन्तु जनक स्वयं को रोक नहीं पाये, राम की स्तुति करने लगे और चित्रकूट में राम के सामने ससुर के रूप में गये। वे जानते थे कि राम के जन्म का हेतु क्या है। उन्होंने एक बार भी राम को अयोध्या लौटने और सिंहासन पर बैठने के लिये नहीं कहा। इससे ज्ञात होता है कि जनक यह समझ गये थे कि राम का जन्म राज्य भोगने के लिये नहीं वरन् राज्य त्यागने के लिये हुआ है। सीताजी ने जब वाल्मीकि के आश्रम में अपने पुत्रों को जन्म दिया तो वाल्मिकी ही पुरूष थे जिनको मालूम था कि राम का निवास उसके हृदय में होता है जो उनको खोजे और उनके दर्शन का प्यासा है, जिसका मन निर्मल है और जिसे राम के सिवाय किसी पर भरोसा नहीं हैं। जो अनंत, राम के मंत्र का जाप करता है और राम का अनुसरण करता है, जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, क्षोभ, द्वेष, कपट व माया से मुक्त है उसके राम, प्राणों से भी अधिक प्यारे राम उसके मन-मंदिर में निवास करते हैं।
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