अगर ज्ञान के पुंज को प्राप्त करना है, तो तुम्हें गुरू की एक-एक कसौटी को झेलने के लिये तैयार रहना पड़ेगा, गुरू प्रहार करे और उसे तुमको सहन करना ही पड़ेगा और फिर भी तुम्हें मुस्कराना ही पड़ेगा, फिर भी श्रद्धा व्यक्त करनी ही पड़ेगी मन में, हृदय में, चेतना में, प्राणों से।
गुरू को चाहिये कि वह तुम्हें पादपद्म नहीं बनने दे, तुम चाहे कितनी ही आरजू करो, मिन्नत करो, चापलूसी करो, तुम चाहे कितने ही पांव पसारो पर यदि गुरू सतर्क है तो तुम पर प्रहार करे और देखे, तुम्हें टैस्ट करे, बार-बार करे।
अगर मेरे पास पांच लाख रूपये है तो तुम्हें लखपति बनाने में मुझे कुछ सैकेण्ड ही लेगेंगे, सिर्फ पांच लाख रूपये तुम्हारी झोली में डाल देना है। मगर उसके पहले गुरू यह देख ले कि यह उसका दुरूपयोग तो नहीं करेगा।
अनायास जो चीज प्राप्त होती है, बिना पूर्ण परिश्रम के जो चीज प्राप्त होती है, उसका मूल्य और महत्त्व शिष्य समझ नहीं सकता, उसको आंक नहीं सकता, गुरूर आ जायेगा, और वह गुरूर गुरू के लिये बहुत घातक सिद्ध हो जायेगा, इसलिये गुरू को चाहिये कि वह उस गुरूर को समाप्त करें।
तुम मेरे सामने कितने ही गिड़गिड़ाओं, हाथ जोड़ो, पर मै जान लेता हूँ कि तुम कहां पर खडे हो, पूरा बैरामीटर मेरे सामने लगा हुआ है और जिस क्षण मुझे अहसास होगा कि अब इसमें समर्पण आ गया है, तुम्हें कुन्दन बना देने में मुझे कोई ज्यादा समय नहीं लगेगा, एक क्षण भर ही लगेगा।
शंकराचार्य ने बहुत पहले ही पादपदम् को वह ज्ञान दे दिया, जबकि उसका अहम् तोड़ा ही नहीं था जब अहम् तोड़ा ही नहीं तो उसके मन में यह आ गया, कि मुझको अब शंकराचार्य बन जाना चाहिये और मैं शंकराचार्य तब बन सकता हूं जब इनकी हत्या कर दूंगा। इतना जघन्य अपराध इसलिये हुआ, क्योंकि उसका अहम् गला नहीं, उसके खून में गंदगी बनी रही। यह शंकराचार्य की न्यूनता थी, यह शंकराचार्य की गलती थी, और उस गलती का परिणाम शंकराचार्य को भुगतना पड़ा।
इतिहास उठाकर देख ले, इतिहास में ये गलतियां हुई है, गुरूओं ने गलतियां की है, और शिष्यों ने उन गलतियों का लाभ उठाते हुए अपने आप को पतन के रास्ते पर डाला है। पर मैं वह गलती नहीं करूंगा, मैं तो शिष्यों को कसौटी पर बारबार कसता रहूंगा।
इसलिये गुरू को चाहिये कि वह पादपदम् नहीं पैदा करे और शिष्य को चाहिये कि वह विवेकानन्द बने, उसके पास सेवा हो, श्रद्धा हो।
अगर तुम्हारी गुरू के प्रति श्रद्धा नहीं है, तो व्यर्थ है, अगर तुम में सेवा करने की क्षमता नहीं है तब भी व्यर्थ है और यदि श्रद्धा कर भी रहे हो, सेवा कर भी रहे हो तो तुम कोई एहसान नहीं कर रहे हो गुरू पर।
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