यहां एक बात समझ लेनी जरूरी है कि कारागृह में तो कोई और आपको बंधन में डालता है, जिस कारागृह की हम यहां चर्चा कर रह है, उसमें कोई और आसान भी! मुश्किल इसलिये कि जब आपने ही अपने को बंधन में डाल रखा है। इसलिये बंधन तोड़ना बहुत मुश्किल भी है और आसान भी ! मुश्किल इसलिए कि जब आपने ही अपने को बांधा है, तो बांधनें में जरूर रस पा रहे होंगे, नहीं तो बांधने का कोई कारण नहीं। कोई दूसरा बांधता, तो आपको उस बंधन मे रस नहीं होता, आपने ही बांधा है, तो बंधन को प्रीतिकर समझकर बांधा है इसलिये तोड़ना मुश्किल है। आसान भी है, क्योंकि आपने ही बांधा है, इसलिये जिस क्षण आप निर्णय कर लेंगे, उसी क्षण टूट भी सकता है। किसी और ने बांधा होता तो आपके मुक्त होने की आकांक्षा पर्याप्त नहीं थी, बंधन को तोड़ने के लिये संघर्ष करना पड़ता और फिर भी निर्णय इससे होता कि कौन शक्तिशाली है। अगर बांधनेवाला शक्तिशाली होता तो बंधन से छूटना जरूरी नहीं था कि हो ही जाता।
हमने ही बांधा है अपने को, तो बंधन में जरूर कोई रस होगा, बंधन नीरस नहीं हो सकता। चाहे रस भ्रांत ही क्यों न हो! चाहे रस प्रतीत ही क्यों न होता हो, वस्तुतः न ही हो फिर भी होगा-स्वप्न ही सही, चाहे मरीचिका दिखाई पड़ती हो मरूस्थल में, न हो वहां जल, लेकिन दिखाई पड़ता है और प्यासे को दिखाई पड़ना भी काफी है और प्यासे को यह निर्णय करने की सुविधा नहीं है कि वह तय करे कि जो जल दूर दिखाई पड़ता है वह है भी या नहीं? दौडे़गा।
यह सारी दौड़ सुख-दुःख के आसपास है। इसलिये सुख-दुःख के तत्व में भीतर प्रवेश कर जाना जरूरी है। शायद सुख-दुःख की संभावना ही बंधन का कारण है। सुख क्या है? और दुःख क्या है? ऊपर से देखने पर लगता है, दोनों बड़े विपरीत है, एक दूसरे के बिल्कुल दुश्मन है। ऐसा है नहीं। सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू है। इसलिये एक मजे की घटना घटती है लेकिन हम ख्याल नहीं कर पाते कि जिसे हम आज सुख कहते हैं, वहीं कभी कल दुःख हो जाता है और जिसे आज हम दुःख कहते है वह कल सुख हो सकता है। कल तो बहुत दूर है जिसे हम सुख कहते है, क्षण भर बाद दुःख हो सकता है। यह भी हो सकता है कि जब हम कह रहे है यह सुख है तभी वह दुःख हो गया हो। जो गहन खोज करते है मनुष्य के मन की, वे तो यह कहते है कि जब कोई व्यक्ति कहता है, यह सुख है, तभी वह दुःख हो गया होता है। क्योंकि जब तक वह सुख होता है, तब तक यह कहने की भी सुविधा नहीं मिलती कि यह सुख है।
सुख-दुःख के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि वे विपरीत नहीं है, वे एक-दूसरे में रूपांतरित होते रहते है, लहर की भांति है-कभी इस किनारे, कभी उस किनारे। हम सब जानते है, हमने अपने सुखों को दुःख में परिवर्तित होते देखा है। लेकिन देखकर भी हमने निष्कर्ष नहीं लिये। शायद निष्कर्ष लेने के लिये हम अपने मन को अवसर नहीं देते है। एक सुख दुःख बन जाता है, तब हम तत्काल दूसरे सुख की तलाश में चल पड़ते है रूकते नहीं, ठहरकर देखते नहीं कि जिसे कल सुख जाना था, वह आज दुख हो गया, तो ऐसा तो नहीं है कि हम जिसे भी सुख जानेंगे, वह फिर दुःख हो जायेगा? ऐसा मन कहता है कि यह हो गया दुःख, कोई बात नहीं, कहीं कोई भूल हो गयी, यह दुख रहा ही होगा, हमने भ्रांति से सुख समझ लिया था।
जिस चीज को आप जितना बड़ा सुख मानते है, वह उतना बड़ा दुःख बदलेगा, जब बदलेगा। जिस चीज को आप ज्यादा सुख नहीं मानते वह बदलकर ज्यादा दुःख नहीं हो सकता। अनुपात वही होगा। इसलिये उदाहरण के लिये कहता हूं-अगर किसी का विवाह उसके माता-पिता ने कर दिया है, तो उसमें बहुत सुख की अपेक्षा ही नहीं होती, इसलिये दुःख भी बहुत फलित नहीं होता। प्रेम-विवाह जितना दुःख लाता है, उतना दुःख आयोजित विवाह नहीं ला सकता, क्योंकि आयोजित विवाह में कभी बहुत सुख की आशा ही नहीं थी। तो टुटेगा क्या? बिगडेगा क्या? बिखरेगा क्या? जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना बड़ा दुःख फलित हो सकता है।
इसलिये पश्चिम ने सोचा था इधर पचास-सौ वर्षो में कि प्रेम-विवाह बहुत सुख ले आयेगा। उन्होंने ठीक सोचा था। लेकिन उन्हें दूसरी बात का पता नहीं था कि प्रेम-विवाह बहुत दुःख भी ले आयेगा और अनुपात सदा बराबर होगा। जितना बड़ा सुख अपेक्षा में होगा, जब रूपांतरण होगा, उतना ही बड़ा दुःख होगा।
पूरब के लोग होशियार थे एक लिहाज से, उन्होंने एक दूसरी कोशिश की— उन्होंने कोशिश यह की सुख की अपेक्षा को ही कम करो ताकि जब परिवर्तन हो- और परिवर्तन तो होगा ही- तो बहुत दुःख फलित न हो। आयोजित विवाह न तो सुख दे सकता है ज्यादा, न दुःख दे सकता है ज्यादा। इसलिये आयोजित विवाह चल सकता है, प्रेम विवाह चल नहीं सकता, क्योंकि इतने बड़े सुख की आशा जब इतने बड़े दुःख में बदल जाती है- चाहा था शिखर और खाई उपलब्ध हो जाती है, तो टूटना निश्चित है।
आदमी चल सकता है समतल जमीन पर, जहां बहुत खाइंया और बहुत शिखर नहीं है। जहां शिखरों से खाइयों में गिरना पड़ता हो, उस पर ज्यादा देर चला नहीं जा सकता। इसलिये सिर्फ सौ वर्ष के प्रयोग में पश्चिम प्रेम विवाह के बाद न विवाह की हालत में आया । पांच हजार वर्ष तक पूरब बिना प्रेम विवाह के बराबर विवाह को चलाया। समतल भूमि थी-न बड़ी खाइयां थी, न बड़े शिखर थे। लेकिन पश्चिम सौ वर्ष भी प्रेम विवाह की धारणा को चलाने में समर्थ नहीं हो पाया। अब वहां का विचारशील आदमी कह रहा है, यह विवाह ही छोड़ देने जैसा है, इस विवाह को रखने की जरूरत नहीं है। अगर सुख ज्यादा चाहिये तो विवाह छोड़ दो। अब फिर वहीं भूल हो रही है। क्योंकि ख्याल यह था कि सुख अगर ज्यादा चाहिये तो आयोजित विवाह छोड़ दो, प्रेम-विवाह ज्यादा सुख देगा। अब प्रेम विवाह ने ज्यादा सुख तो क्षण भर को दिया और पीछे बड़े दुःख की खाई छोड़ गया। उस सुख की तुलना में यह खाई बहुत बड़ी मालूम पड़ती है।
अब फिर वही भूल पश्चिम की बुद्धि कर रही है, वह यह—- अगर और ज्यादा सुख चाहिये तो विवाह ही छोड़ दो। उन्हें पता नहीं कि वह और ज्यादा सुख और बड़े दुःख में छोड़ जायेगा। पर वह भूल स्वाभाविक है, क्योंकि हम सुख-दुःख को विपरीत मानते है, कन्वर्टिबल नहीं- कि वे एक-दूसरे में बदल जाते है। बदलते ही रहते है। एक क्षण को भी बदलाहट रूकती नहीं। इस समझ के कारण पूरब ने एक और प्रयोग किया। उसने यह प्रयोग किया कि जब सुख दुःख में बदल जाता है, तो क्या हम दुःख को सुख में नहीं बदल सकते?
तपश्चर्या का सूत्र इस समझ से निकला। बहुत अनूठा सूख है तपश्चर्या का–यह इस समझ से निकला कि जब सुख दुःख में बदल जाता है तो कौन सी अड़चन है कि दुःख सुख में न बदल जाये! और हमने दुःख को भी सुख में बदल कर देखा। अगर आप दुःख में रहने को राजी हो जाये, तो दुःख सुख में बदलने को तैयार हो जाता है। अगर आप सुख में रहने को राजी हो जायें तो सुख दुःख में बदलने को तैयार हो जाता है।
आपके राजी होने से बदलाहट होती है- आप जिसमें भी रहने को राजी हो जायें, वही बदलने को तत्पर हो जाता है। असल में आपके राजी होते ही बदलाहट शुरू हो जाती है। जैसे ही आपने कहा कि बस सुख मिल गया, अब मै इसमें ही रहना चाहता हूं, अब मैं इसको बदलना नहीं चाहता—-बस समझिए कि बदलाहट शुरू हुई। अगर आप दुःख में भी यही कह सके कि दुःख मिल गया, मैं इसमें राजी हूँ, अब मैं इसे बदलना नहीं चाहता- यही तपश्चर्या का सूत्र है- कि दुःख आया, मैं राजी हूँ, मैं बदलना नहीं चाहता।
बड़े मजे की बात है कि दुःख सुख में बदल जाता है और अगर इन दोनों में ही चुनना हो, तो सुख को दुःख में बदलने की कला के बजाय दुःख को सुख में बदलने की कला ज्यादा बुद्धिमानी है। क्यों? उसका कारण है, क्योंकि दुःख को जो सुख में बदल लेता है, उसका सुख फिर दुःख में नहीं बदल सकता। उसका कारण है कि जो दुःख तक को सुख में बदल लेता है, उसका सुख कैसे दुःख बन सकेगा? जो दुःख तक को सुख में बदल लेता है, उसका सुख अब उस पर काम नहीं कर पायेगा, बदलाहट होगी नहीं उसे। असल में जो दुःख को सुख में बदल लेता है, वह सुख की आकांक्षा ही छोड़ देता है, तभी बदल पाता है। और जब सुख की कोई आकांक्षा नहीं होती, तो सुख दुःख में बदलने की क्षमता खो देता है।
आकांक्षा से क्षमता निर्मित होती है। इसे कभी प्रयोग करके देखे और आप बहुत हैरान हो जायेंगे। यह मनुष्य के भीतर रूपांतरण की गहरी कमियां के सूत्रें मे से एक है। जब दुःख आपके ऊपर आये तो उसे स्वीकार कर लें। इनकार से ही वह दुःख है, अस्वीकार से ही वह दुःख है, उसे स्वीकार कर लें समग्र मन से राजी हो जायें और कहे दें कि अब मुझे छोड़ने का कोई मन नहीं, तेरे साथ ही रहेंगे और आप अचानक पायेंगे कि सब बदल गया जिसे आपने दुःख की तरह देखा था, वह सुख हो गया है?
सुख दुःख में बदल सकता है, दुःख सुख में क्योंे? क्योंकि वे एक ही सिक्के के दो पहलू है और बदल क्यो जाते है? इस बदलने का क्या कारण है? असल में जब एक आदमी सुख में जीता है, तो सुख से भी ऊब जाता है। जो चीज भी निरन्तर मिलती है उससे ऊब पैदा हो जाती है। ऊब स्वाभाविक है। सुख भी ऊबाने लगता है। असल में जिसे भी आप जान लेते है, उसी से चित्त ऊबने लगता है, जिसे भी आप पूरा जान लेते है उसी से चित ऊबने लगता है। चित्त नये की तलाश पर निकल जाता है, रूचिकर भी अरूचिकर हो जाता है। आज जो भोजन अच्छा लगा है, भूलकर कल उसे मत करना, परसों उसे मत दोहराना, नहीं तो रूचि अरूचि बन जायेगी। यह ऋषि कहते है- ‘‘जो रूचिकर वस्तु की इच्छा है, वही सुख है, और जो अरूचिकर वस्तु की कल्पना है, वही दुःख है।’’ किसी वस्तु को रूचिकर कल्पित करना सुख है और किसी वस्तु को अरूचिकर कल्पित करना दुःख है। रूचि अरूचि में बदल जाती है, अरूचि रूचि में बदल जाती है।
ऋषि ने कहा, इंद्रियों के लिये जो अनुकूल है, सानुकूल है, वह रूचिकर है। आपके लिये नहीं, इंद्रियों के लिये जो अनुकूल है वह रूचिकर है, और इंद्रियों के लिये जो अनुकूल नहीं है वह अरूचिकर है। संगीत बज रहा है कान को रूचिकर है, क्योंकि उस संगीत की जो चोट है, वह कान के लिये अनुकूल है। उससे व्याघाद पैदा नहीं होता, उपद्रव पैदा नहीं होता, बल्कि विपरीत मन के भीतर चलता हुआ उपद्रव शिथिल होता है, शांत होता है। लेकिन जरूरी नहीं है। अगर बहुत शांत व्यक्ति हो, तो संगीत भी अरूचिकर है, क्योंकि तब संगीत भी एक व्याघात है, तब संगीत भी एक उपद्रव है।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ सुबर्ट कहा करता था- संगीत के संबंध में, खुद बड़ा संगीतज्ञ था वह कहा करता था कि संगीत जो है, वह सबसे कम अरूचिकर ध्वनियों का समूह है- सबसे कम अरूचिकर है! सबसे कम उपद्रव है उसमें। है तो उपद्रव, क्योंकि है तो आखिर स्वरों का आघात ही। इसलिये परम संगीत तो शून्य है लेकिन जिसने शून्य को जाना उसे संगीत भी अरूचिकर मालूम पड़ेगा, उसके कान को। चीन का एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ, हुई हाई। जैसे जैसे संगीत उसका गहरा होता चला गया, वैसे-वैसे उसका वाद्य शांत होता चला गया। एक दिन उसने अपने वाद्य को उठाकर फेंक दिया। दूर-दूर लोक-लोकांतर तक उसकी खबर पहुंच गयी थी, हजारों मील चलकर लोग उसके पास आते थे। और जब दूसरे दिन सुबह नये यात्री आये उसका संगीत सुनने और उसे उन्होंने बैठा वृक्ष के नीचे देखा बिना वाद्य के, तो उन्होंने पूछा, तुम्हारा वाद्य कहां है? तो हुई हाई ने कहा अब वाद्य भी संगीत में बाधा हो गया। और हुई हाई ने कहा कि जब संगीत पूर्ण हो जाता है तो वीणा तोड़ देनी पड़ती है। उसका कारण है—-
अगर बहुत ठीक से समझें तो कान के लिये जो ध्वनियां प्रीतिकर लगती है, वे इसीलिए प्रीतिकर लगती हैं कि भीतर और अप्रीतिकर ध्वनियां प्रीतिकर लगती है, वे इसीलिये प्रीतिकर लगती हैं कि भीतर और अप्रीतिकर ध्वनियां चल रही है भीतर और उपद्रव, अराजकता है। उस अराजकता में यह सुलानेवाली दवा की तरह मालूम पड़ता है। सुखद लगता हे, सांत्वना देता है, एक तरह की शांति को जन्म देता है। रूचिकर है।
लेकिन, अगर संगीत अस्तव्यस्त हो, सिर्फ शोरगुल हो आवाजों का तो अरूचिकर हो जाता है, क्योंकि कान को पीड़ा होती है। पीड़ा इसलिये होती है कि कान को ध्वनियां सिर्फ बेचैन करती है, शांत नहीं करतीं। सारे शरीर में जब हमने— इंद्रियों की जो व्यवस्था है हमारी-इंद्रियां है, ग्राहक, बाहर के जगत में जो घटित हो रहा है उसे भीतर ले जाने के द्वार है। इन इंद्रियों को जो प्रीतिकार मालूम होता है वह वही है जो इन इंद्रियों को शांत करता है, अप्रीतिकर वही मालूम पड़ता है जो इन इंद्रियों को अशांत करता है। बस, इससे ज्यादा प्रीतिकर, अप्रीतिकर का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन जो चीज इंद्रियों को आज शांत करती है, कल अशांत कर सकती है, क्योंकि इंद्रियां स्वयं सरित्प्रवाह है, वे भी बदली जा रही हैं।
जैसे, एक नया आदमी रेलवे की नौकरी पर जाता है, स्टेशन पर सोता है, नींद नहीं आती-स्टेरश्न की आवाजे है, इंजन की आवाजें है, शंटिग है और शोरगुल है और सब तरह का उपद्रव है-नींद नहीं आती, बड़े बेचैन होते है कान। लेकिन नींद एक जरूरी चीज है। आज नहीं कल, इस बेचैनी को एक तरफ रखकर नींद आनी शुरू हो जाती है, लेकिन बहुत जल्दी वह वक्त आ जाता है कि यह आदमी अब अपने घर नहीं सो सकता, क्योंकि यह सब उपद्रव इसकी नींद का अनिवार्य हिस्सा हो गया। तो यह हो तो ही यह सो सकता है, यह न हो तो यह नहीं सो सकता। यह इसका क्रियाकांड का हिस्सा हो गया। इतना उपद्रव चाहिये ही।
बहुत लोग मेरे पास आते है, वे कहते हैं कि बड़ी मुसीबत है, बड़ी बेचैनी है, बड़ी शांति है। मैं भली भांति जानता हूं कि अगर उनकी सब बेचैनी और सब अशांति छीन ली जाये तो फौरन परमात्मा से वे प्रार्थना करेंगे, बेचैनी वापिस दो, अशांति वापिस दो। उनको पता नहीं है कि वह उनका क्रियाकांड है, वे उसके बीच ही जी सकते है। इसलिये अगर उन्हें एकांत में भेज दिया जाये, तो दो चार दिन में वे कहते है कि वापिस जाना है, यहां बहुत खाली-खाली लगता है, यहां कोई सार नहीं है। सार वहीं है, जहां सारा उपद्रव चल रहा है। क्यो?
इंद्रिया—–अगर आप उनको अरूचिकर का भी भोजन दिये चले जाये तो थोडे़ दिन में राजी हो जाती है, क्योंकि मजबूरी है और जब राजी हो जाती है तो वही प्रीतिकर हो जाता है जो अरूचिकर मालूम पड़ा था, अप्रीतिकर मालूम पड़ा था। आपका रूचिकर का भोजन बार-बार लेने से धीरे-धीरे इंद्रियो का स्वाद मर जाता है, वही रोज देने से उसकी संवेदना क्षीण हो जाती है, वही अरूचिकर मालूम पड़ने लगता है।
एक बड़े कवि मुझे मिलने आये थे। बातचीत चलती थी, तभी एक संगीतज्ञ भी आ गये। उन संगीतज्ञ ने कवि को कहा कि कोई एकाध कविता सुनाये। उन कवि ने कहा, क्षमा करें। कविता से बुरी तरह ऊब गया हूं कि कुछ और चलेगा, कविता नहीं। बड़े कवि है, कविता से ऊब गये है। ऊब ही जायेंगे और इसलिये अक्सर दुनिया में एक अनूठी घटना घटती है कि आदमी जिंदगी में कई बार छलांगे ले लेता है।
बड़े बुद्धिमान आदमी कई बार बड़े गैरबुद्धिमानी के काम करने लग जाते है, वह सिर्फ बदलाव है, वह सिर्फ बदलाहट है, ऊब गये है। इसलिये कभी-कभी दिखाई पड़ता है कि गांव का एक साधारण आदमी है- कुछ कीमत नहीं है, कोई अनुभव नहीं है, कोई गहराई नहीं है, लेकिन हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस उसके चरणों में बैठा हुआ है। क्या हो गया है इस हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को? यह ऊब गया है बुद्धिमानी से। काफी बुद्धि इसने झेल ली। अब यह कोई गैर बुद्धिमानी का काम न करे, तो इसे अपने से ही छुटकारा नहीं है। फिर इसको देखकर न मालूम कितने नासमझ इसके पीछे आयेंगे, क्योंकि वे इसे बुद्धिमान समझकर चले आ रहे है— कि जब यह बुद्धिमान जा रहा है कहीं, तो अब तो गेर बुद्धिमानों को जाने के लिये रास्ता खुल गया। और उन्हें पता नहीं कि यह जा रहा है सिर्फ इसलिये कि अब यह बुद्धि से बुरी तरह ऊब गया है। बुरी तरह ऊब गया है——!
रूचिकर सदा रूचिकर नहीं रहता। इसके और भी कारण है, क्योंकि आप पूरे समय विकसित हो रहे है। बच्चा है, खिलौना रूचिकर लगता है, लेकिन एक उम्र आ जायेगी कि खिलौना रूचिकर नहीं लगेगा, क्योंकि बच्चा बच्चा नहीं रहा। खिलौने फेंकने ही पडेंगे और ये वे ही खिलौने है जो अगर टूट जाते तो बच्चा समझता कि जैसे उसका प्रियजन मर गया है। इन्हीं को वह छोड़कर एक दिन हट जायेगा। क्योंकि उसकी चेतना विकसित हो रही है।
जो कल रूचिकर था, वह आज रूचिकर नहीं रहा। आज वह नये खिलौने खोजेगा, हालांकि उसे ख्याल में नहीं होगा, ये भी खिलौने है। कल उसने गुडि़या सजाई थी, आज वह पत्नी सजायेगा। सजावट वही होगी, ढंग वही होगा। लोग उसकी गुडि़या की प्रशंसा करें, यह कल चाहा था, आज उसकी पत्नी की प्रशंसा करें, यह चाहा जायेगा। लेकिन गुडि़या थी गुडि़या, इसलिये किसी दिन फेंक दिया तो कठिनाई हुई। अब यह पत्नी को फेंकना इतना आसान पड़नेवाला नहीं है और आज नहीं कल, इसके भी पार हो जायेगा मन, तब बेचैनी खड़ी होगी, तब पुराने किये वायदे और आश्वासन बाधा बनेंगे। तब अपने से ही बंधा हुआ आदमी पाता है—– कि यह तो मैंने ही कहा था, अब इसको मुकरना भी मुश्किल है और बात भी खा गयी, यह सजावट भी खो गयी, अब इसमें भी कोई रस न रहा।
जवान आदमी था, मंदिर रूचिकर नहीं मालूम पड़ता था, निकला था उसके सामने से, समझता था पागल उसके भीतर गये होंगे। अभी मंदिर बिलकुल नासमझों की जमात दिखाई पड़ती थी। लेकिन आज नहीं कल, मंदिर सार्थक हो जायेगा। कार्ल गुस्ताफ जुंग ने अपने जीवन के संस्मरणों में लिखा है कि मेरे पास इलाज करानेवाले हजारों मरीज मन के जो आये है, उनमें अधिकतम वे है जो चालीस के ऊपर है और उनकी एक ही तकलीफ यह है कि वे मंदिर का द्वारा भूल गये है और कोई उनकी अड़चन नहीं, एक ही उनकी बीमारी है, कि उन्हें मंदिर का कोई पता ही नहीं कि मंदिर भी है और चालीस साल की उम्र के बाद मंदिर का द्वारा सार्थक होना शुरू हो जाता है, लेकिन वह भी खिलौना है। बच्चे के खिलौने है, जवान के खिलौने है, बूढे़ के खिलौने है और एक दिन उससे भी ऊब आ जाती है और जब तक खिलौनों से ही कोई मुक्त नहीं हो जाता, तब तक उपद्रव में बदलाहट होती रहती है, लेकिन उपद्रव समाप्त नहीं होता।
जो आज मेरी इंद्रिय को इस क्षण में सुखद मालूम पड़ता है, संगीतपूर्ण मालूम पड़ता है, अनुकूल मालूम पड़ता है, उसे मैं कहता हूं ‘सुख’, जो आज इस क्षण में इसके विपरीत पड़ता है, उसे मैं कहता हूं, ‘दुःख’। सुख को मैं चाहता हुं, दुख को मैं नहीं चाहता हूं, सुख मुझे मिल जाये पूरा और दुःख मुझे बिलकुल न मिले, यह मेरी आकांक्षा है। यह आकांक्षा ही शरीर से बंधने का कारण बन जाती है, क्योंकि शरीर में ही इंद्रियों के द्वार है, उन्हीं से सुख मिलता है और उन्हीं से दुःख रोका जा सकता है। इसलिये चेतना शरीर के साथ सम्मिश्रित होकर बंध जाती है और जब तक कोई सुख दुःख दोनों को ठीक से समझकर पार न हो, तब तक शरीर के पार नहीं हो सकता।
इसलिये पांच शरीरों के बाद तत्काल ऋषि ने सुख-दुःख की चर्चा शुरू की है। यह सुख-दुःख की चर्चा अर्थपूर्ण है इसलिये कि यह पांच शरीर की चर्चा से कुछ भी न होगा, जब तक कि शरीर के बंधने का राज ही हमारे ख्याल में न आ जाये कि हम बंधते क्यो है? इससे विपरीत अगर हम कर सकें, उसी का नाम तप है। सुख की आकांक्षा न करें, दुःख को हटाने का ख्याल न करें, सुख को मांगे न, दुःख को हटाये न। सुख को जो मांगेगा, दुःख से जो बचेगा, वह शरीर से बंधा रहेगा। सुख की जो मांग नहीं करेगा, दुःख मिल जाये तो राजी हो जायेगा, वह शख्स—– वह व्यक्ति शरीर से छुटने लगेगा।
सुख की अपेक्षा, दुःख से भय— शरीर के बाहर ले जाता है, सुख की अपेक्षा नहीं, दुःख से निर्भय—- शरीर के भीतर ले जाता है। भोग और तप का यही भेद है। सुख मांगते है तो बाहर संघर्ष करना पड़ेगा-सुख को बचाना पड़ेगा, दुःख से बचना पड़ेगा, गहन संघर्ष होगा बाहर। इसलिये चेतना को सदा शरीर के बाहर भटकना पड़ेगा-मकानों में, धनों में, पदों में, दूसरों में। तप का अर्थ है— कि नहीं, सुख की कोई आकांक्षा नहीं है क्योंकि बहुत सुख जाने और उनको दुःखों में बदलते देखा। अब सुख को नहीं जानना और अब दुःख को भी हटाने की कोई इच्छा नहीं है। क्योंकि दुःख को हटा-हटाकर देख लिया, वह हटता कहां है! वह बना ही रहा चला जाता है। उलटे उसे हटाने में और सुख भोगना पड़ता है—- और वह फिर लौट-लौटकर आ जाता है। न ही दुःख को हटाते है, न ही सुख को मांगते है, अब हम राजी है, जो जैसा है। यात्र भीतर की तरफ शुरू हो गयी, बाहर कोई संघर्ष न रहा। यह अंतर्यात्र ही शरीरों से छुटकारा दिला सकती है।
सुख-दुःख के लिये जो क्रियाएं करता है व्यक्ति, ऋषि ने उसे ही कर्ता कहा है-द डुअर, जो सुख-दुःख के लिये क्रियाएं करता है- जो मांगता है कि सुख सुख मुझे मिले और दुःख मुझे न मिले, यह कर्ता है, लेकिन जो कहता है कि जो मिले ठीक, न मिले, ठीक, दोनों में भेद ही नहीं करता, यह अकर्ता हो जाता है, यह नॉन डुअर हो जाता है और जब व्यक्ति अकर्ता होता है तो परमात्मा कर्ता हो जाता है। इसी से भाग्य की कीमती धारणा पैदा हुई।
भाग्य का मतलब ज्योतिषी से नहीं है, भाग्य का ख्याल बहुत आध्यात्मिक है। उसका हाथ की रेखाओं से कुछ लेना-देना नहीं, उसका भविष्य से कोई संबंध नहीं, उससे रास्ते के किनारे पर बैठ हुये ज्योतिषी से कोई संदर्भ ही नहीं है उसका। भाग्य की धारणा इससे पैदा हुई कि जब मैं कर्ता नहीं हूं, और चीजें तो हो ही रही है, चीजे तो घटित हो ही रही है और मैं कर्ता नहीं हूं क्योंकि कर्ता तभी तक मैं होता हूं, जब तक मैं मांगता हूं कि सुख मिले और दुःख न मिले, तब तक संघर्ष करता हूं तो कर्ता होता हूं। अब कर्ता नहीं रहा, अब जो मिल जाये ठीक है, न मिल जाये ठीक है, मैंने फिक्र ही छोड़ दी मिलने न मिलने की-सुख आये तो मैं फिक्र नहीं करता कि सुख है, दुःख आये तो मैं फिक्र नहीं करता कि दुःख है-धीरे-धीरे भेद ही गिर जाता है और पहचानना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या सुख है और क्या दुःख है, दोनों के बीच आदमी निर्लिप्त हो जाता है।
ऐसी जो निर्लिप्तता है, इसमें कर्ता तो खो जायेगा क्योंकि करने को कुछ बचा नहीं। करना था ही क्या? एक ही था, सुख कैसे पाये और दुःख से कैसे बचें——- वही करना था। अब कर्म का कोई उपाय न रहा—– फिर भी चीजें तो होती ही चली जाती है-जब व्यक्ति कर्ता नहीं रह जाता तो परमात्मा कर्ता हो जाता है और जब परमात्मा ही कर्ता हो जाता है, इस भावदशा का नाम ही भाग्य है, विधि है। ऐसे व्यक्ति की गर्दन काट दो तो वह कहता है, कटनी थी। वह इसमें उसको भी दोषी नहीं ठहराता है जिसने काटी, क्योंकि अब वह मानता है, कर्ता कोई है नहीं।—-कटनी थी, कर्ता विलीन हो गया। ऐसे व्यक्ति को जहर पिला दो तो वह कहता है— पीना था, होना था और जो व्यक्ति जहर पिलाते वक्त भी जानता हो कि होना था, क्या उसके मन में क्षण भर को भी क्रोध आ सकता है उसके प्रति जिसने जहर पिला दिया?
क्योंकि अब वह मानता ही नहीं कि कोई कर्ता है, इसलिये अब दोषारोपण समाप्त हुआ, इसलिये अब कोई जिम्मेवार है यह बात ही खत्म हुई-अब जो भी हो रहा है, वह परम नियति है, उसमें व्यक्ति का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा व्यक्ति अगर परम शांति को, परम संतोष को उपलब्ध हो जाये तो आश्चर्य क्या है?
जो सुख-दुःख के बीच चुनाव करता है, वह कभी संतोष को उपलब्ध नहीं हो सकता, जो सुख-दुःख में भेद करता है वह कभी संतोष नहीं पा सकता। जिसने सुख-दुःख का भेद ही छोड़ दिया, वह संतुष्ट है। इसलिये लोग जो समझाते रहते हैं-बड़ी कीमती बातें भी कभी बहुत नासमझी के आधार बन जाती है।
लोग कहते है, संतोष में ही सुख है। पागल है बिलकुल, उन्हें संतोष का पता ही नहीं, अभी भी वे सुख को ही संतोष के साथ एक कर रहे है! और वे जिसको समझा रहे है, इसलिये समझा रहे है कि अगर सुख चाहते हो तो संतोष रखो और जो सुख चाहता है वह संतुष्ट हो नहीं सकता क्योंकि सुख असंतोष का सूत्र है। जो सुख चाहता है वह दुःख से बचेगा ही, नहीं तो सुख चाह नहीं सकता। तो संतुष्ट कैसे होगा? सुख संतोष नहीं है। संतोष सुख नहीं है, संतोष सुख-दुःख के पार है। और संतुष्ट वही है, जिसने सुख-दुःख का भेद ही त्यागा। संतोष दोनों को अतिक्रमण करता है। इसलिये आप अगर कभी सुख मानकर संतोष कर रहे हों तो भ्रांति में मत पड़ना आपका संतोष निपट धोखा है। नियति, भाग्य, विधि, परम आध्यात्मिक शब्द है। व्यक्ति अहंकार से मुक्त हुआ, यह उनका प्रयोजन है, अस्मिता नहीं है।
इंद्रियां ही सुख और दुःख के कारण है। ‘‘शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध -ये ही सुख दुःख के कारण है।’’ ‘‘पुण्य और पाप कर्मो का अनुसरण करने वाला आत्मा प्राप्त हुए शरीर के संयोग को अप्राप्त होते हुये भी स्वयं की तरह समझने लगता है, तब उसे उपाधिग्रस्त जीवन कहते है।’’ शरीर में हूं मैं, लेकिन शरीर में होना एक बात है, शरीर हो जाना बिलकुल दूसरी। शरीर में हूं, ऐसा जो जानता है, वह आत्मा है, शरीर ही हूं, ऐसा जो जानता है, वह जीव है-उपाधिग्रस्त हो गया,भ्रम में पड़ गया, भूल में पड़, भ्रांति में पड़ गया, जो है, नहीं समझ रहा अपने को और जो नहीं है वह समझने लगा।
शरीर हूं मैं, यह क्यो पैदा हो जाता है? वही सुख-दुःख के कारण, क्योंकि जिससे सुख-दुःख मिलते है, जब सुख-दुःख की— सुख की आंकाक्षा और दुःख से बचने का भाव प्रबल होता है। इसीलिये जिससे हमें सुख मिलता है उससे हम अपने को एक कर लेते है। जिससे दुःख मिलता हो, उससे बड़ा फासला करते है, उससे बचते है, उसे देखना भी नहीं चाहते, उसके पास नहीं होना चाहते, जिससे दुःख मिलता है उसे हम दूर करना चाहते है, जिससे सुख मिलता है उसे हम पास करना चाहते है। अब यह बहुत मजे की बात है, जब भी हमें सुख मिलता है तो हम समझते है वह हमारे शरीर से मिल रहा है और जब भी दुःख मिलता है हम समझते है वह दूसरे के शरीर से मिल रहा है। यह बहुत मजे का मामला है। यह बहुत ही मजे का राज है। जब भी हमें सुख मिलता है तो हम समझते है हमारे शरीर से मिल रहा है। सुख के लिये हम कभी किसी दूसरे को जिम्मेवार नहीं ठहराते, सुख के लिये हम सदा स्वयं ही जिम्मेवार होते है, और दुःख के लिये हम सदा दूसरे को जिम्मेवार ठहराते है।
लेकिन हमारी तरकीब यह है कि हम अपने को समझ लेते है कि मैं समस्त सुखों को पाने का अधिकारी हूं, और अगर मुझे दुःख मिलते है तो दूसरों की कृपा से, सदा दूसरे कारणभूत है। इसीलिये कोई आदमी यह नही पूछता कि संसार में सुख क्यों है। मुझसे लोग आकर पूछते है, संसार में इतना दुःख क्यों है? अभी मुझे एक आदमी नहीं मिला जिसने आकर पूछा हो कि संसार में इतना सुख क्यों है? उसको तो वह मानता ही है कि अधिकारी है, उसमें कोई पूछने का सवाल ही नहीं— टेकन फॉर ग्रांटेड। होना ही चाहिये, ऐसा है। दुःख क्यों है यह सवाल है। कोई मुझसे आकर नहीं पूछता कि आदमी जीता क्यो है? लोग पूछते है कि आदमी मरता क्यों है, मृत्यु क्यों है? जीवन तो होना ही चाहिये? लेकिन मृत्यु क्यों? ऐसा लगता है कि जीवन तो हमारे भीतर है, मृत्यु कहीं बाहर से आती है। तो मृत्यु को हम सदा दूर सोचते है— कहीं बाहर से आती है और हमको मार डालती है और जीवन हम है और मृत्यु कही बाहर है-कभी बीमारी की शक्ल में आती है, कभी जर्म्स की शक्ल में आती है, कभी दुश्मन की शक्ल में आती है, लेकिन है बाहर। आती है और हमको मार डालती है-इससे कैसे बचे? और हम है जीवन।
हमारी सदा की तरकीब यह है कि जो प्रीतिकर है, जो सुखद है उसे अपने से जोड़ लेते है, जो अप्रीतिकर है, दुखद है, उसे किसी और से जोड़ देते है। इसीलिये धर्मो को ईश्वर के साथ-साथ शैतान की भी कल्पना करनी पड़ती है। यह सब कठिनाई इसी तर्क के कारण यह उपद्रव पैदा होता है कि बिना शैतान के जिंदगी को समझाना बहुत मुश्किल मालूम पड़ता है। भगवान दयालु है समझ में आता है। लेकिन फिर एक छोटा सा बच्चा कैन्सर से मर जाता है, तो अब क्या करे? कि इस बच्चे ने न अभी कोई पाप किया, न अभी इसने कोई चोरी की, न हत्या की, न कुछ किया और यह कैन्सर से मर गया! यह मरा हुआ ही पैदा हुआ। अगर मरा हुआ ही पैदा होना था, तो इस भगवान ने इसको पैदा ही किसलिये क्या? जब मरा हुआ ही पैदा करना था तो यह नासमझी क्यों की? याने कम से कम भगवान को तो इतना पता होना ही चाहिये कि मरा हुआ ही पैदा होगा, तो यह पैदा करने का उपद्रव क्यो करना?
हमें एक दूसरा व्यक्तित्व खोजना पड़ता है, क्योंकि भगवान से हम अपने को जोड़ना चाहते है। अगर भगवान भी ऐसा करता है कि बच्चो को कैन्सर दे देता है, बूढे़ मरना चाहते है और मर नही सकते, घसिटते रहते है, सड़ते रहते है, करोड़ों लोग भूखे है, रोज युद्ध होता है, लाखों लोग मरते है, कटते है। अगर भगवान को भी यह सब कुछ है तो फिर हम भगवान से अपने को एक नहीं कर पायेंगे। इसलिये भगवान को हमें बिलकुल अच्छा बनाकर रखना पड़ता है। अब यह बुरा कहां जाये? यह कौन कर रहा है? तो इसके लिये एक दूसरा भगवान पैदा करना पड़ता है। उसको हम शैतान कहते है। वह बुराई का भगवान है। वह करवा रहा है। डेविल-वह यह सब काम कर रहा हैं
हिन्दू धर्म एकमात्र धर्म है पृथ्वी पर, जिसने अपने परमात्मा में दोनों को रखने की हिम्मत की है-सिर्फ। इसीलिये मैं मानता हूँ, कि हिन्दु, जितने गहरे जा सके है जीवन के सत्य को समझने में, उतना कोई भी नहीं जा सका। जिसे हिंदुओं ने ‘महादेव’ कहा है, ‘शिव’ कहा है, उसे दोनों एकसाथ कहा है-बनानेवाला भी, मिटानेवाला भी—- वही। वही— जहर भी, अमृत भी-एक। बड़ी हिम्मत की बात है यह कहनी और ऐसे भगवान के साथ अपने को एक समझना बड़ी क्रांति है, क्योंकि हमारा सारा तर्क गिर जायेगा वह जो तर्क है हमारा अच्छे को अपने साथ जोड़ने का और बुरे को कहीं और हटा देने का, वह तर्क गिर जायेगा। अगर आप चोरी करते है तो आप कहते है शैतान ने करवायी और अगर प्रार्थना करते है तो आप कर रहे! बहुत मजेदार आदमी है! अगर दान देते है तो आप दे रहे है और चोरी करते है तो यह संसार में बुराई की शक्तियां काम कर रही है, वे आपसे चोरी करवा रही है।
भले से हम अपने को जोड़ना चाहते है, बुरे से नहीं। लेकिन जगत दोनों का जोड़ है। या तो दोनों को इनकार कर दो या दोनों को स्वीकार कर लो- दोनों हालतों में दोनों से मुक्ति हो जाती है। इस शरीर के साथ हमारा बंधन इसलिये निर्मित हो जाता है कि हम कहते है, सुख इससे मिलता है, दुःख कोई दूसरे देते है। सुख इससे मिलता है, इसलिये दूसरों से बचो, या दूसरों को बदलते जाओ, या जब तक दूसरे सुख देते मालूम पड़ते है तब तक उनके साथ रहो, जब दुःख देते मालूम पड़ते है तो उनसे हट जाओ। विवाह और तलाक की सारी व्यवस्था पति और पत्नी के बीच ही नहीं है, सभी संबंधों में है।
एक मित्र मेरे पास आते थे, सदा आकर कहते थे कि मेरी बुद्धि कैसे विकसित हो, वे कैसे जागे? मैं उनको कहता था, जागेगा, संभावना है, प्रयास करने चाहिये। बड़े खुश लौटते थे-संभावना से, जागता-वागता नहीं संभावना से, जगाना पड़ता है, लेकिन बडे़ खुश लौटते थे। यह भी काफी उनकी प्रसन्नता थी। महीने-पन्द्रह दिन में आकर मुझसे वे यह सुन जाते थे। इससे उनको फिर से गति मिल जाती थी दस-पन्द्रह दिन वैसे ही रहने की, जैसे वे सदा से रहे है- यह भरोसा कि संभावना है, पन्द्रह दिन से फिर इस भरोसे में गुजार देते। काफी दिन यह चला, मैंने कहा कि अब यह कोई संभावना तो कोई वास्तविक भी बन नहीं सकती इस ढंग से। एक दिन आये तो मैंने कहा कि अब यह कोई संभावना नहीं? कहा, कोई भी संभावना नहीं, बुद्धि तुम में है ही नहीं, जो विकसित हो सके और विवेक इतनी आसान बात नहीं? तुम्हारे बस की नहीं, तुम छोड़ो यह ख्याल। एकदम चेहरे पर से उनका रंग उड़ गया, बड़े दुःखी लौटे। अब मेरे खिलाफ हो गये है कि यह आदमी ठीक नहीं है। तब तक मैं ठीक था, जब तक कहता था, संभावना है। प्रसन्न होकर वे लौटते थे-प्रफुल्लित— गद्गद्! अब मैं बुरा हो गया हूँ।
यह बड़े मजे की बात है, मैं तब तक ठीक था, जब तक सुखद था और जब तक में सुखद था तब तक वे अपने को ही श्रेष्ठ मान रहे थे, क्योंकि संभावना है। अब मैं दुःखद हो गया, क्योंकि मैंने कहा कि नहीं, कुछ उपाय है नहीं तुम्हारे साथ, तुम्हारा तर्क निश्चित है। हम उससे अपने को जोड़ना चाहते है, जिससे हमें लगता है, सुख मिल रहा है, उससे हम अपने को एक मानने लगते है, जिससे दुःख मिल रहा है, उससे हम अपने को तोड़ना चाहते है और चूंकि हम अपने शरीर को समझते है कि इससे सुख मिल रहा है, हम शरीर के साथ बंध जाते है।
आत्मा जब शरीर को समझने लगती है कि मैं शरीर ही हूं तो इसको ही उपाधि, बीमारी, द वेरी डिजीज, द ओनली डिजीज-एकमात्र बीमारी, ज्ञानियों ने कहा है। यही है उपाधि, यही है बीमारी। इस बीमारी से छुटने का एक ही उपाय है– कि शरीर से सुख भी मिलता है तो दुःख भी मिलता है-इस पूरे सत्य को देख लें— तो सुख और दुःख एक दूसरें को काट देंगे, और आपको लगेगा कि अब हम उसकी तलाश करे, जिससे न दुःख मिलता, न सुख मिलता, जिससे आनंद मिलता है। आनंद न दुःख है, न सुख, आनंद दोनों का अभाव है। उस खोज पर हम निकलें।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
कैलाश चन्द्र श्रीमाली जी
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