आश्चर्य है! मैं स्वयं को नमस्कार करता हूं, जो एक शरीरवान् होते हुए भी न कहीं जाता है, न ही कहीं से आता है और समस्त शरीरों में व्याप्त होकर स्थित है।
राजर्षि जनक के परम आश्चर्य का अनुभव विरोधाभास की अभिव्यक्ति सा लगता है। लेकिन यह अनुभव सत्ताओं के भेदज्ञान का है। जो जाग गया है, वह स्वप्न के दृश्य जगत को गलत बताता है। ‘जिसे मैं सही समझता था, वह गलत था’ इस प्रकार कहने में गलत-सही शब्द जागृत व स्वप्न दो स्थितियों से जुड़े हैं। सोये हुये का सच, जागे हुये के सच से अलग है। सोया हुआ जागृत के सच को नहीं महसूस करता जबकि जागे हुए के सामने दोनों अवस्थाएं हुआ करती हैं। तभी तो वह कहता है-जिसे मैं सच मानता था, वह तो सच था ही नहीं। वह तो स्मृतिरूप में सत्य की प्रतीति मात्र थी। राजर्षि जनक के कथन में ऐसा ही विराधाभास जान पड़ता है। देह अलग-अलग हैं, तो फिर कैसे वह देहवान एकदेशीय होता हैं चलता है तो स्थिर कैसे? इसी बात का खुलासा है, समूचे विश्व में व्याप्त। जो व्यापक है, वह एकदेशीय कैसे हो सकता है और जब व्यापकता सिद्ध हो गयी, तो स्थिरता व गति प्रतीति मात्र सिद्ध होती हैं। अपने व्यापकरूप को मैं नमन करता हूं क्योंकि वही नमन करने योग्य है। उसी को नमन करना चाहिये।
है न आश्चर्य, महान आश्चर्य कि सभी प्रकार के संसर्गों से अलग रहकर, मैंने इस समस्त सृष्टि को धारण किया हुआ है। मैं ऐसा शरीर में रहता हुआ भी उससे अलग रहकर करता हूं। मेरे समान दूसरा कोई चतुर, कुशल और कौन होगा। प्रणाम करता हूं मैं ऐसे अपने आपको। इससे बड़ा चमत्कार और चतुराई क्या होगी, कोई स्वयं कुछ न करे, करने, न करने से असंग रहे और फिर भी दूसरों को सक्रियता प्रदान करे ऐसा ही है मेरा स्वरूप, जो शरीर में रहता हुआ भी उससे अलग है, न जाने कब से जिसने इस जगत को धारण किया हुआ है। ऐसे असंग व जगतधारक स्वयं को मैं नमस्कार करता हूं।
सांख्य दर्शन को मानने वाले प्रकृति पुरूष के संसंर्ग से इस जगत् की उत्पत्ति को मानते हैं। प्रकृति है सत्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्था। यह जड़ है। और पुरूष? पुरूष चेतन है, लेकिन असंग है। असघ्गोह्ययं पुरूषः। जब प्रकृति और पुरूष दोनों भिन्न-भिन्न हैं, तो फिर दोनों का संबंध कैसे? बिल्कुल वैसे ही जैसे अंधे और लंगड़े का संग। अन्धा चल सकता है, देख नहीं सकता, और लंगड़ा देख सकता है, चल नहीं सकता। एक निष्क्रिय है, तो दूसरा क्रियावान। दोनों मिलते हैं। अंधे की पीठ पर बैठ जाता है लंगड़ा और चल देते हैं। इसी प्रकार असंज्ञ होते हुए भी चेतन पुरूष जड़ लोहे में क्रिया उत्पन्न कर देता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे अग्नि घृत पिंड को बिना स्पर्श किए, दूर से ही अपनी दाहकता से गला देती है।
आश्चर्य रूप मैं स्वयं को, उस स्वयं को नमस्कार करता हूं, जिसका अपना कुछ नहीं है या फिर वह सब कुछ उसका है, जहां तक मन जाता है, वाणी जाती है-अर्थात् नाम-रूपतामक जो कुछ भी है।
संसार को देखने की दो दृष्टियां हैं, जिनकी ओर हमने पीछे भी संकेत किया है। एक है आत्मदृष्टि और दूसरी शरीर दृष्टि। पहली अद्वैत ज्ञान के फलस्वरूप है जबकि दूसरी के मूल में द्वैतज्ञान है। ज्ञान की दृष्टि से कुछ भी अन्य नहीं है। सब अपना है। लेकिन यदि शरीर की दृष्टि से देखें, (अज्ञानवश) तो नामरूपतामक दिखाई देनेवाले जगत् के कोई भी पदार्थ अपने नहीं। यह बात अलग है कि वे अपने से प्रतीत होते हैं। नामरूपतामक जगत् चल रहा है, इसलिये जब वह किसी का नहीं मेरा कैसे। कुछ भी मेरा नहीं। संसार तो अपनी एक निश्चित व्यवस्था व प्रक्रिया से गुजर रहा है। और ज्ञान दृष्टि से तो सब मेरा ही है। ‘नेह नानास्ति किंचन’ की व्याख्या इस रूप में भी की जा सकती है-मेरा तो वह होता है, जो मुझसे अन्य हो। जब मुझसे अन्य कुछ है ही नहीं तो फिर मेरा क्या, मैं ही तो हूं यह समूचा जगत भी। और यह सारा पसारा मेरा ही है, तो जब सब मेरा ही तो हुआ।
जिससे जाना जाता है, जिसे जानना है, ओर जो जानने वाला है, ये तीनों वास्तविक नहीं हैं – यथार्थ नहीं हैं। ये तीनों (त्रिपुटी) अज्ञान के कारण जहां भासित (प्रतीत) हो रहे हैं, वह (अधिष्ठान रूप) निरंजन रूप, सभी प्रकार के दोषों से परे मैं हूं – वही मेरा यथार्थ रूप है।
जो जानता है, वह ज्ञाता है। जो जानने योग्य है, जिसे जानना चाहए, उसे ज्ञेय कहते हैं। जिसे जाना पाए वह ज्ञेय हैं ज्ञाता जिस साधन द्वारा, जिन प्रमाणों से जानने योग्य को जानता है, वह है ज्ञान।
यहां ज्ञान साधन रूप है। इन तीनों को मान कर ही साधना आदि के समस्त व्यवहार चलते हैं। ज्ञान दूसरे का करना हो अर्थात् जब ज्ञेय अन्य हो, तब यह प्रक्रिया त्रिपुटी बनती हैं लेकिन जब ज्ञेय ज्ञाता से अन्य नहीं है, अनन्य है, ज्ञान किसी दूसरे का नहीं स्वयं का ही करना चाहता है तब ज्ञाता व ज्ञेय इन दो शब्दों का व्यवहार करने की जरूरत नहीं। स्वयं को जानने के लिये किसी ज्ञानरूपी साधन की आवश्यकता नहीं। जो अपना-आपा है, उसका क्या जानना। इस दृष्टि से विचार करने पर ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय की त्रिपुटी स्वतः सहज रूप में नष्ट हो जाती है। यह त्रिपुटी द्वैतपरक है, इसलिये अज्ञान से मात्र प्रतीति होती है बिलकुल वैसे ही जैसे जगत् सत् न होता हुआ भी सत् प्रतीत होता है। सत् तो उसका अधिष्ठान है। और वह अधिष्ठान इन्द्रिय-मन से परे मैं स्वयं हूं।
इस संसार में जितने भी रोग हैं उनकी औषधि है। लेकिन द्वैत के कारण रोग रूप यह संसार उत्पन्न हुआ है और उसका परिणामरूप जो दुख है, उसकी कोई औषधि नहीं है। जनक ने संकेत कर दिया कि द्वैत के बने रहने पर दुःख की निवृत्ति हो जाए, ऐसा संभव नहीं। दुःख की मात्र के कम होने को भले ही सुख मान लिया जाए लेकिन वह सिर्फ सुख का आभासमात्र है। वह सुख भी प्रतीति है, सुख नहीं। दुःख से निवृत्ति का एक ही साधन है द्वैत निवृत्ति और जब द्वैत ही नहीं रहा, तो दुःख कैसा-दुःख तो सुख की तुलना में है। सुख-दुःख द्वैतपरक शब्द हैं। द्वैत के समाप्त होने पर न दुःख है, न ही सुख। द्वैत के नष्ट होने पर नामरूपात्मक जगत् झूठा ही सिद्ध होता है। जगत् के न रहने पर राजर्षि ने इस सूत्र में दुःख के स्वरूप, उसके कारण और उसकी निवृत्ति का पूर्णतया खुलासा कर दिया है।
मैं बोधरूप, ज्ञानरूप हूं। अज्ञान के कारण ही मुझमें विभिन्न, अलग-अलग नामरूपादि उपाधियों की कल्पना की गयी है अर्थात् ये आरोपित हैं, ऐसा विचार करते हुए कि नित्य निर्विकल्प में मेरी स्थिति है – आश्चर्य है।
आकाश यद्यपि विस्तृत है, लेकिन घट उपाधि से संयुक्त हुआ घटाकाश कहलाता है। उस घट-मठ आदि उपाधि के रहने, न रहने से आकाश में न तो कुछ जुड़ता है, और न ही उससे कुछ छिन जाता है। आकाश में किसी तरह का कोई घटना-बढ़ना नहीं हैं वही जस का तस बना रहता है। इसी प्रकार मुझ निर्विकल्प में यद्यपि कोई उपाधि नहीं है, निरूपाधिक हूं मैं, फिर भी अज्ञान के कारण उपाधि की कल्पना मुझमें की जाती है। ये सारी उपाधियां जगत् की हैं और जब जगत् ही झूठा है, तो उपाधियां भी तो झूठी ही ठहरीं। इस प्रकार का विचार कर मैं नित्य निरूपाधिक रूप में स्थित रहता हूं।
इस श्लोक में जनक ने ‘विमर्श’ शब्द का प्रयोग किया है। विमर्श अर्थात् विचार पूर्वक निश्चय। जो अनुभव हुआ उससे यह सिद्ध हो गया कि नामरूपात्मक जगत् झूठा हैं लेकिन तब भी इन्द्रियां तो उसे सत्य-सा ही ग्रहण करती हैं। इन्द्रियों द्वारा सत्यरूप में गृहीत जगत् को मैं विचार से देखते समय असत्-सा पाता हूं। अनुभव के बाद भी विचार का महत्व समाप्त नहीं होता। बल्कि विचार ही ज्ञानी को ज्ञान से जोड़े रखता है। पिछले सूत्र में संसार रूपी जिस रोग की चर्चा की गयी थी उस रोग की एकमात्र औषधि अद्वैतवेदांत के प्रमुख आचार्य आद्यशंकराचार्य ने विचार को ही बताया है। को दीर्घ रोग भव एव साधो! अर्थात् ऐसा रोग कौन सा है जिसके आदि का ही पता नहीं है। एक्यूट है वो। जब-जब उसकी औषधि की गयी वह कम नहीं हुआ बल्कि बढ़ा ही, तरह-तरह के नामरूपों में परिवर्तित होता गया वह। जवाब है ‘भव’-यह अस्तित्व, सत्ता जो तुम्हें दिखाई दे रही है। ‘एव’ शब्द का प्रयोग कर आचार्य ने कोई दूसरा विकल्प नहीं छोड़ा। एकमात्र यही वह रोग है जो तरह-तरह के नाम-रूपों के रूप में दिखाई दे रहा है- जो नहीं है, उसे है ऐसा मानना। और उसकी औषधि भी एक ही है। उसका भी कोई विकल्प नहीं है। अगर रोगमुक्त होना चाहते हो, तो उसे लेने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है। क्या नाम है उस औषधि का। किमौषधं तस्य उसकी औषधि क्या है?
विचार एव-केवल मात्र विचार ही। आचार्य के अनुसार, विचार के अलावा यदि कोई संसार रूपी रोग से मुक्त होना चाहता है, तो वह सिर्फ आत्मप्रवंचना कर रहा है। बहला रहा है लोगों को, अपने को भी। विचार साधक के लिये भी हैं, और आत्मानुभवी के लिये भी। पहले के विचार सापेक्षिक विकल्प लिये होते हैं जब कि दूसरा निश्चयात्मक विचारों वाला होता है। दूसरा डोलता नहीं। इसीलिये उसे निर्विकल्प से स्थिति प्राप्त होती है।
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