यह ब्रह्मपुराण का महत्वपूर्ण श्लोक है और इसी श्लोक को शंकराचार्य ने भी अपनी शंकर भाष्य में उतारा है। यह श्लोक ऐसा है कि शंकराचार्य ने स्वयं कहा है कि यह श्लोक केवल सुनने के लिए नहीं है, यह पढ़ने के लिए भी नहीं है, यह श्लोक तो जीवन में उतारने के लिए है।
इस श्लोक का भाव और तात्पर्य यह है कि मनुष्य को पैदा होना पड़ता है। इसलिए पैदा होना पड़ता है कि यह उसकी इच्छा है या नहीं, यह उसके मां बाप के संयोग की एक परिणीति है और उसकी मजबूरी है, उसकी इच्छा इस गर्भ में जन्म लेने की नहीं थी, उसमें उसे जन्म लेना पड़ा वह उसके हाथ में नहीं था। यह एक मजबूरी थी, एक आत्मा विचरण कर रही थी, एक संयोग बना आप लोगों ने जन्म ले लिया। देवता लोग भी जीवन का आनन्द लेने के लिए मनुष्य रूप में ही जन्म लेते हैं। जीवन का आनन्द देवता रूप में नहीं मिल सकता तथा जीवन का आनन्द राक्षस रूप में भी नहीं मिल सकता। इन दोनों के बीच में एक और तथ्य है जिसको मनुष्य कहा गया है। यह मनुष्य जब गर्भ में होता है तो सातवें महीने तक उस बालक को पूरा भान रहता है कि मैं क्या हूं और कौन सी आत्मा हूं और पिछले कितने जन्मों से मैं कहां-कहां विचरण करता रहा हूं। यह सब कुछ उसको भान रहता है।
सातवें महीने तक तो वह बड़े आनन्द में उस गर्भ में रहता है और सातवें महीने से लगाकर जन्म लेने तक वह बहुत दुखी और व्यथित होता रहता है, इस चिन्ता में कि मुझे वापिस जन्म लेना पड़ेगा। मगर उस समय उसको अपने खुद के बारे में, अपनी आत्मा के बारे में, अपने चिंतन और अपने पूर्व जीवन के जितने भी जीवन हुए, उन सब के बारे में भली भांति स्मरण रहता है। शिव पुराण में भी इसी प्रकार का वर्णन है। वह जन्म लेते ही एक बन्धन से लिपटा हुआ, एक नाड़ी से, मां की नाड़ी से लिपटा हुआ, जैसे एक कैदी बन्धन में बंधा हुआ फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार वह गर्भ से बाहर आता है। बाहर आते ही वह पिछली सारी स्मृतियां भूल जाता है और नये सम्बन्धों से जुड़ जाता है। उसी क्षण से कोई उसकी मां बन जाती है, कोई उसका बाप बन जाता है, कोई उसका भाई बन जाता है, कोई उसका चाचा बन जाता है, अनेक उसके सम्बन्धी बन जाते हैं और इस प्रकार से नये परिवेश में जब आता है तो वह बह्म स्वरूप भूल जाता है। यह स्मृति विस्मृति की क्रिया है या ब्रह्म और माया की क्रिया है। जब तक गर्भ में रहता है तब तक ब्रह्म स्वरूप है इसलिए गर्भ को ब्रह्म कहा गया है। जन्म लेते ही माया के आवरण में लिपटा हुआ बाहर आता है और बाकी लोग भी जो उसके परिवेश में होते है, अगर राक्षस वृत्ति के होते हैं तो वह भी उसी वृत्ति में लिपट जाता है, देवत्व वृत्ति के होते हैं, अच्छे मां-बाप होते हैं, अच्छे भाई होते हैं, अच्छे सम्बन्धी होते हैं, जिनके घर में स्तुति होती है, अच्छे कार्य होते हैं तो वह भी उसी रास्ते पर चल पड़ता है और घर में अगर शराब पी जाती है, सिगरेट पी जाती है, गालियां दी जाती है तो वह उसी वातावरण में ढल जाता है, उसके हाथ में कहीं किसी प्रकार की स्थिति नहीं रहती।
श्लोक में बताया गया है कि यह जन्म लेना हमारी मजबूरी हुई। साथ ही साथ उसने कहा देवता भी मनुष्य रूप में जन्म लेने के लिए तरसते रहते हैं और वे कई-कई रूपों में जन्म लेते रहते हैं- कभी राम के रूप में जन्म लेते हैं, कभी कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं कभी बुद्ध के रूप में जन्म लेते हैं, कभी महावीर के रूप में जन्म लेते हैं, कभी ईसा मसीह के रूप में जन्म लेते हैं कभी सुकरात के रूप में जन्म लेते हैं और वे अपने-अपने रूपों में जन्म लेते रहते हैं। जन्म तो दोनों को लेना पड़ता है परन्तु बाहर आने पर भी देवता को भान रहता है कि मैं क्या हूं और क्या था। वह अपने आप में अवतारी व्यक्तित्व है और जिसको भान नहीं रहता वह मनुष्य रूप में होता है। उसको यह ध्यान रहता है कि मैंने जन्म क्यों लिया है और जब वह जन्म लेता है, क्योंकि जन्म लेने की क्रिया एक ही तरीके की है, उस जन्म लेने की क्रिया को अवतार कहा जाता है। उसके जन्म होने पर मां को किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं होती, कोई वेदना नहीं होती, मां को कोई दर्द नहीं होता, नौ महिने तक कोई भार स्वरूप एहसास नहीं होता। प्रफुल्लता रहती है, चेहरे पर एक ओज होता है, चित्त में प्रसन्नता होती है, तब समझना चाहिए कि कोई अवतारी व्यक्तित्व मेरे गर्भ से जन्म ले रहा है और यदि पेट में दर्द होता है, पीड़ा होती रहती है, चिन्ता होती है, तनाव होता है, तकलीफ होती है, मां कष्ट भोगती रहती है तब समझना चाहिए कि एक साधारण मनुष्य मेरे गर्भ से जन्म ले रहा है।
मगर यदि माँ अच्छे संस्कार में पली हुई होती है तो उसको ज्ञान हो जाता है और इस श्लोक में बताया गया है कि उस अवतारी पुरूष के साथ में जितने लोग जुड़ते हैं, वे छोटे-मोटे देवता स्वरूप होते हैं। तैतीस करोड़ देवता हैं और सभी देवता किसी न किसी गर्भ में जन्म लेने को आतुर रहते हैं। जब कृष्ण ने जन्म लिया तो और भी कई देवताओं ने जन्म लिया जो गोप ग्वाले कहलाये, गोपियां कहलायी, जो अप्सराएं थीं, जो देवता थे उन्होंने गोपियों के रूप में उसी स्थान के आस-पास जन्म लिया, मथुरा के पास गोकुल में, वृन्दावन में देवताओं ने जन्म लिया, क्योंकि उसके बिना वे रह नहीं पाते, उस विष्णु के साथ में जो भी देवता जुड़े होते हैं—- जैसा हम पढ़ते हैं, क्षीर सागर में भगवान नारायण सोये हुए हैं, लक्ष्मी पांव दबा रही हैं, देवता सामने खड़े हैं। भगवान शिव कैलाश पर बैठें हैं और बाकी सब देवता लोग हाथ बांध कर खड़े हैं। वे भी अपने आप इतने जुड़ जाते हैं कि वे उनके बिना नहीं रह पाते एक क्षण भी, तो उनके साथ-साथ वे भी अलग-अलग स्थानों पर जन्म लेते रहते हैं मगर जन्म लेने के बाद एक साथ आ जाते हैं, जुड़ जाते हैं। उनके आस-पास घूमते रहते हैं। उस अवतारी व्यक्तित्व के पास में।
घर का परिवेश, घर का वातावरण अच्छा, बुरा, दुष्ट स्वभाव, मांस मदिरा, झूठ, छल कपट की वजह से व्यक्ति के अंदर भी वे वृत्तियां आ जाती हैं, इसको माया कहा जाता है। मगर माया और ब्रह्म का मिलन नहीं हो सकता, क्योंकि मैंने बताया कि दूध को रेत में नहीं मिलाया जा सकता। तो वे देवता जन्म लेते हैं, अलग-अलग स्थानों, अलग-अलग गर्भ से। वे भी उस अवतारी व्यक्तित्व के साथ रहते हैं। इसलिए उसके पास आने कि लिए छटपटाते रहते हैं और दूर-दूर से कोई न कोई बहाने से, कोई न कोई क्रिया से उसके साथ जुड़ जाते हैं। चाहे शिष्य के रूप में जुड़ते हैं, चाहे गोप-ग्वाले के रूप में जुड़ते हैं मगर आकर जुड़ जाते हैं और अपने-अपने कार्य में तल्लीन रहते हैं।
मगर शंकराचार्य कहते हैं कि इतने समय तक वह दूर रहा है तो उसके अन्दर काम, क्रोध, लोभ-मोह विकार तो आया ही है क्योंकि वे उनके मां-बाप की देन थी, मां-बाप ने और कुछ दिया नहीं, मां-बाप के अन्दर जो कुछ गुण थे या अवगुण थे, जो सत्य था या असत्य, वह बालक को संस्कार रूप में प्राप्त हुआ और जब तक वे विकार क्योंकि देवताओं में विकार होता नहीं, उस मनुष्य में भी विकार नहीं था जब जन्म लिया। उसके बाद जिस मां-बाप के संयोग से जन्म लिया उनमें जो विकार थे वह उस बालक में आये और वह बालक जब तक उस ब्रह्म से जुड़ता नहीं, उस देवता, उस अवतार से जुड़ता नहीं तब तक जितना भी विकार उसके अंदर संचित हो जाता है, वह उसके अन्दर संचित रहता है और उसको माया कहा जाता है। उसको धोने के लिए और कोई तरीका है नहीं, काम-क्रोध को निकालने के लिए कोई तरीका नहीं है। उसको धोने के लिए केवल एक ही तरीका होता है, उसको आंसू कहते हैं, अश्रु कहते हैं, जो कि नेत्रें के माध्यम से अपने आप स्वाभाविक रूप से निकल जाते हैं, जब उनको नहीं देखते हैं तो आंखें छलछला उठती हैं, उनको बहाने की जरूरत नहीं होती।
राक्षसों के आंखों से आंसू नहीं आ सकते। जो बिल्कुल इस प्रवृत्ति के हैं, उनकी आंखों से आंसू छलछलाते नहीं है। इसलिए प्रत्येक गोप जब भी कृष्ण के यमुना किनारे पंहुचने में थोड़ा सा विलम्ब होता तो बिलख उठते, गोपियां तरसती रहतीं, बैचेन होती रहती और जब मिलते है, तो उनके हृदय में हर्ष का, आनन्द का उल्लास होता। उन दोनों के उनके काम, उनके क्रोध को गलने की क्रिया, समाप्त करने की क्रिया केवल एक ही वस्तु थी और वह वस्तु थी अश्रु और वे अश्रु स्वाभाविक रूप से निकलते रहते हैं।
संसार में तो सैंकड़ो लोग हैं फिर उसी से क्यों जुड़ा जाता है। वह बहुत दूर लखनऊ से आ करके फिर जोधपुर में आकर क्यों जुड़ता है, एक व्यक्ति दक्षिण में रहता हुआ जोधपुर में आ करके या दिल्ली मे आकर या कहीं मथुरा में आ कर क्यों जुड़ता है? क्योंकि उसने देवता के रूप में जन्म लिया उसको यह भान है, मगर वह वहां इतने बीच में जो अन्तराल रहा, जो गन्दगी, जो मैल उसके शरीर में व्याप्त हो गया, उससे वह छटपटता रहता है और जब तक वह धुलता नहीं है तब तक एकाकार नहीं हो सकता। ऐसा संभव ही नहीं है कि पानी में से मछली को निकाल दिया जाए और वह मछली सांस ले सके और जिन्दा रह सके, ऐसा तो संभव है ही नहीं। मछली तो एक क्षण में समाप्त हो जाएगी पानी के बिना वह जिन्दा नही रह सकती। गुरू भी पानी की तरह होता है और शिष्य मछली की तरह होता है, वह गुरु में पूर्ण रूप से एकाकार हो जाता है, और उस शिष्य को थोड़ा सा भी गुरुरूपी पानी से अलग करते हैं तो बिलख उठता है, रोने लग जाता है और अपने आप में समाप्त होने की क्रिया होने लग जाती है।
शंकराचार्य ने तीसरी लाइन में कहा कि हमारे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है उस ब्रह्म को, उस गुरू को, उस आत्म स्वरूप को, उस ईश्वर को, उस परमात्मा को। क्योंकि हमारी एक गन्दी देह है जो विकारों से भरी हुई है, उस देह के अन्दर देखें तो हड्डि़यां हैं, मांस है, उसमें मज्जा है, थूक है, लार है, विष्ठा है, मूत्र है। ये सब चीजें तो इतनी गंदी है कि उनको चरणों में हम चढ़ा भी नहीं सकते। और हमारे पास ऐसा पदार्थ भी नहीं है जो कि उनको चरणों में चढ़ाया जा सके। क्योंकि यह भौतिक पदार्थ तो अपने आप में नाशवान है। उनको मिठाई चढ़ाने से या पेड़ा चढ़ाने से तो कुछ लाभ नहीं। आज कपड़ा है कल फट जायेगा। आज मिठाई है, कल खराब हो जाएगी, गन्दी हो जाएगी, बदबूदार हो जाएगी, केवल चढ़ाने के लिए हमारे पास अश्रु अर्घ्य है, वे निर्मल होते हैं, स्वच्छ होते हैं वे पवित्र होते हैं। उन आंसुओं में किसी प्रकार का मैल नहीं होता क्योंकि आंसू तो हृदय से निकली हुई क्रिया है और उन आंसुओं में स्वयं का चित्त बिल्कुल धुल जाता है। हम उनके चरणों में अश्रु प्रवाहित करते हैं और चरणों को उन आंसुओं से धोते हैं तब उनके चरणों में अपने आप में बहती हुई गंगा, बहती हुई यमुना या बहती हुई सरस्वती या देवता या विष्णु या रूद्र या ब्रह्म या मंदिर या मस्जिद दिखाई देने लग जाते हैं।
आंसुओं की झिलमिलाहट में, उनके चरणों में! फिर उनको मंदिर में जाने की आवश्यकता नहीं होती, फिर उनको मस्जिद जाने की जरूरत नहीं होती, फिर चर्च में जाने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उन आंसुओं के प्रतिबिम्ब में उन सबको देख चुका होता है या देख चुकी होती है। हमारे पाप कर्म होते हैं तो फिर हम बिछुड़ते हैं मगर एक क्षण ऐसा आता है तो जुड़ जाते हैं तो पूरी तरह से जुड़ जाते हैं। चाहे कहीं भी रहें उनके बिना ऐसा लगता है कि जैसे दिन काट रहे हैं, अपने आप में कटते रहते हैं, अपने आप में टूटते रहते हैं, अपने आप में बिखरतें रहते हैं। इच्छा होती है कि हम जुड़े, उनके साथ बैठें, इसमें किसी प्रकार लेन-देन नहीं है, व्यापार नहीं है, विनियम नहीं है, गोपियों और कृष्ण के बीच में कोई व्यापारिक विनियम नहीं था। वह तो एक देवता और अवतार के मिलने की क्रिया थी जो उसके पति थे, जो आस-पास के लोग थे वे उसे अच्छा नहीं समझते थे, उचित नहीं समझते थे क्योंकि उनकी राक्षस प्रवृत्ति थी। क्योंकि यहां राक्षस भी जन्म लेते हैं, यहां देवता भी जन्म लेते हैं।
दोनों की देह तो मनुष्य रूप में है, एक ही गर्भ से जन्म लेते हैं, प्रवृत्तियां अलग-अलग होती हैं, उन प्रवृत्तियों से हम पहचान लेते हैं कि यह राक्षस है या देवता है और कभी-कभी दुर्भाग्य वश एक राक्षस से एक देवी की शादी हो जाती है तो गृहस्थ जीवन अपने आप में नारकीय बन जाता है। मगर इसके लिए भी यदि दोनों के मन में एक भाव पैदा हो और वह गुरू चरणों में अपने आप को समर्पित कर दें और समर्पण हो जाये तो ही परिर्वतन हो सकता है। तन से और मन से समर्पण होता है तो अश्रु ही के माध्यम से होता है। शिष्य और गुरू के बीच में वही कड़ी जोड़ता है। जहां भी आपने क्रोध को या काम को निकाला वो स्थान पवित्र हुआ क्योंकि आंसू बाहर आये और आंसुओं से धुल करके ज्यों ही जगह निकली वहीं पर गुरू को स्थापन कर दिया, उस देवता को स्थापन कर दिया, जो कि आपका इष्ट है। वो फिर हृदय से निकलता नहीं। आप सोयेंगे तब भी वही आपकी आंखों में प्रतिबिम्ब रहेगा, आप जागेंगे तब भी ऐसा लगेगा जैसे कोई बैठा है, आप काम करेंगे तो लगेगा जैसे वही काम कर रहे हैं।
आप जो कुछ क्रिया करेंगे तो ऐसा ही लगेगा कि वे ही कर रहे हैं मैं एक निमित्त मात्र हूं, चल रहा हूं, एक मशीन हूं, काम तो वही सब कर रहे हैं और ऐसी स्थिति में वह स्वयं अपने आप दुगुने, चौगुने, दस गुना उत्साह के साथ काम करता रहता है या करती रहती है और प्रेम सम्बंध में बिल्कुल जुड़ जाती है। घटिया लोग उसको वासना कहने लग जाते हैं, उच्चकोटि के लोग अपने आप में प्रसन्न होते हैं कि एक जुड़ने की क्रिया बनी। इसलिए शंकराचार्य ने कहा है कि ऐसी ही स्थिति गुरू और शिष्य, देवता और भक्त और भगवान के बीच में होती है और उसमें पूरा संसार, उसका पूरा परिवार बाधक बनता ही है, प्रशंसा नहीं करता क्योंकि उनकी मनोवृत्ति राक्षस की होती है। वह उसको उत्साहित नहीं करती, प्रेरित नहीं करती, उसको वह वापिस अपने राक्षसों के बीच में खींचने की कोशिश करती है और अपने आप में संघर्षशील मानस में मंथन बना रहता है, कि क्या करूं, क्या नहीं करूं।
मगर जब जुड़ जाता है तो फिर दूसरा कोई भाव रहता ही नहीं। उस समुद्र के पानी में हम अगर एक लोटा भर पानी मिला दें तो वह जो जल मिला दिया है उसको फिर वापिस अलग नहीं कर सकते और फिर भी वह अलग रह जाए तो गुरू से जुड़ा ही नहीं, अलग होने का भाव ही नहीं होता, क्योंकि अपने आप में जुड़ने की क्रिया होती है। इसीलिए शंकराचार्य ने ब्रह्म पुराण में चौथी लाइन में कहा है कि बहुत उच्च कोटि के सौभाग्यशाली व्यक्तित्व होते हैं जो जीवित जागृत गुरू के चरणों में होते हैं, अन्यथा गुरू तो एकदम से शरीर छोड़ देता है उनके जिन्दा रहने के लिए मजबूरी रहती है। जो जीवित गुरू के पास जो आनन्द के क्षण होते हैं वह उस मूर्ति से नहीं आ सकते, चित्र से नहीं आ सकते, तस्वीर से नहीं आ सकते। जो गोपियों ने कृष्ण के साथ यमुना नदी के किनारे आनन्द लिया कृष्ण के जाने बाद वो आनन्द प्राप्त नहीं कर पायीं। आंसू तो प्रवाहित करती रहीं, आंसूओं के प्रतिबिम्ब में कृष्ण को देखती रहीं, मगर वह आनन्द की अतिरेकता समाप्त हो गई। इसलिए जब उच्चकोटि का सौभाग्य जुड़ता है तब गुरू और जीवित गुरू के साथ व्यक्ति जुड़ता है। मृत गुरू के साथ तो कई जुड़ते हैं कि हमारे रविदास जी गुरू हैं, आप के गुरू कौन हैं कि कबीरदास जी हमारे गुरू हैं, कि हमारे वह गुरू हैं। इनसे भी ज्यादा तो वह है जो आपके साथ है, आपके साथ मुस्कुराता है, रोता है, उदास होता है, चिन्तित होता है, विचलित होता है। आपके साथ एकाकार होने की क्रिया इसलिए करता है कि आपको खींचकर के अपने साथ मिला ले और धीरे-धीरे आंसुओं से अपने मन को उसमें स्थापित करता हुआ और जब स्थापित हो जाता है तो फिर वह चित्र, वह बिम्ब बाहर निकलता ही नहीं है जब तक की उस पर कोई राक्षस हावी न हो जाए।
जब पूर्ण रूप से स्थापित हो जाता है वह बिम्ब, वह दृश्य, वह अवतार तो जीव अपने आपमें सौभाग्यशाली बन जाता है, वह एक खुमारी में बना रहता है और वह खुमारी अपने आप में एक मस्ती का आलम होती है। एक चैतन्यता होती है ऐसा लगता है कि जैसे जीवन का अब आनन्द आया। यह जीवन की स्थिति गुरू और शिष्य के बीच में या भक्त और भगवान के बीच में बनी रह सके, इसका जब चिन्तन आदमी करता है तो समझना चाहिए कि उसने उस डगर पर पहला पांव रखा, दूसरा कदम रखा, तीसरा कदम रखा, फिर पांच कदम रखेंगे तो कोई न कोई बाधा, विघ्न तो आयेगी ही आएगी। आपके मन के संस्कार आपको विचलित करेंगे, आपकी बुद्धि आपको भ्रमित करने की कोशिश करेगी। हर बार विरोध ही आपके बीच में आयेगा। आपको संचारी भाव आयेंगे, क्योंकि विकार आपके शरीर में है जब तक वह निकलेंगे नहीं तब तक वो आपके बीच में, उस अवतारी पुरूष के बीच में, आपके बीच में, भगवान के बीच में बाधा बनी ही रहेगी।
मीरा और कृष्ण के बीच में, भोज और सांगा और बाकी सैनिक और लोग बाधक बने ही रहे। इतनी दुखी हो गई कि उसको राजमहल से नीचे उतरना ही पड़ा। सड़कों पर आना पड़ा क्योंकि वे सब विकार थे, सब राक्षस प्रवृत्ति के थे और उसके बीच में खड़े रहे। मगर उसको अपना लक्ष्य मालूम था, उसको अपनी आंखो में साफ प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा था कि मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई, उसका तो एक भाव, एक चिन्तन, एक विचार और जब ऐसा विचार आता है तो फिर कोई रंज नहीं रहता, फिर कोई छल भी नहीं रहता, फिर कोई झूठ भी नहीं रहता, फिर कोई कपट भी नहीं रहता फिर कोई असत्य भी नहीं रहता क्योंकि वह खुमारी की अवस्था में आ जाता है, उसको फिर ऐसा लगता है कि मैं जो कुछ भी कर रही हूं वह ही कर रहा है, खाना भी वह खिला रहा है, खाना भी वह बना रहा है। हर क्षण ऐसा लगता है जैसे मेरे पास में बैठें हैं, अभी बात कर रहे हैं, सोये हुये हैं। मैं उठ रही हूं, मेरे साथ उठ रहे हैं, हर दम उसी भावना में रहते हैं।
इसलिए श्लोक का अपने आप में जीवन में एक महत्व है, जीवन में एक चिन्तन है। आदमी अपने गृहस्थ के कार्य में लगा रहता है, मजबूरी है लगा भी रहना चाहिए, वे गोपियों, ग्वाले, वे उधव, वे अंकूर भी अपने कार्यों में लगे ही रहते थे। मगर वो कार्य कभी न करें जो हमें वापिस असत्य के पथ की ओर अग्रसर करें, वो कार्य करें जो हमें उस व्यक्तित्व से जोड़े रखे। एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध। एक घड़ी जुड़े आधी घड़ी जुड़े, उसमें भी आधी घड़ी जुड़े पांच मिनट जुड़े जितने भी जुड़े, जितने क्षण उनके साथ व्यतीत हों, उनको देखें और तृप्ति महसूस हो, उनके कार्यों में हाथ बटायें, क्योंकि उसने अगर जन्म लिया तो कोई न कोई निमित्त से जन्म लिया होगा, अकारण जन्म नहीं लिया होगा कृष्ण ने जन्म लिया था तो कोई न कोई निमित्त था उनका कंसरूपी समाज इतना दुष्ट हो गया था कि उसको समाप्त करना उनके लिए मजबूरी हो गई थी। राम ने जन्म लिया था तो जरूरी हो गया था कि रावण जैसे बहुत विध्वंसकारी पैदा हो गये थे। तो उनको समाप्त करना उसके लिए जरूरी हो गया था। शंकराचार्य ने जब जन्म लिया था तो जरूरी हो गया था कि सारा भारत वर्ष ‘बुद्धं शरण्ं गच्छामि’ और ‘संघम शरणं गच्छामि’ से आक्रांत हो गया था और उन्होंने अपने कार्य को समाप्त करके पृथ्वी लोक से प्रस्थान किया।
ऐसे व्यक्ति की मृत्यु नहीं होती। एक लोक से दूसरे लोक में चले जाते हैं जिसको आप मृत्यु कहते हैं। जो अभी पृथ्वी लोक में है, पृथ्वी लोक से शिव लोक में चले गये। वह अपने आप विचरण करता है और साथ ही देवता भी धीरे-धीरे वापिस उसके साथ जुड़ जाते हैं। कई हजार वर्ष बाद इस प्रकार के किसी व्यक्तित्व का जन्म होता है। राम के ठीक ढाई हजार वर्ष बाद कृष्ण का जन्म हुआ। और कृष्ण के ठीक ढाई हजार वर्ष बाद बुद्ध का जन्म हुआ। और बुद्ध के ठीक ढाई हजार वर्ष बाद शंकराचार्य जी का जन्म हुआ। पूरे ढाई हजार वर्ष और ढाई हजार वर्ष का मतलब है कम से कम चालीस जन्म, पचास जन्म बीच में या तो उसके साथ जुड़ते चले जाते हैं, जहां भी जाते हैं शरीर के साथ चले जाते हैं। दो दिन आगे या दो दिन पीछे। मगर जब तक हैं तब तक अगर नहीं जुड़ते हैं, उस समय वह नहीं मिलता तो सारा जीवन दुःखी व्याकुल, परेशान, तनाव में बीतता है। आप देखेंगे कि अधिकांश व्यक्ति परेशान घूमते रहते हैं क्योंकि वहां कोई जुड़ने की क्रिया नहीं है। वो ढाई हजार वर्ष बाद कोई मिलेगा तो तब जुड़ पायेगा फिर जुड़ने की क्रिया बनेगी मगर इसी जीवन में शुद्ध चित्त बन जाता है तो पूर्ण रूप से जुड़ जाता है मछली और समुद्र की तरह।
तो फिर अगर वह शिव लोक में भी अवतरित हो जाता है सब शिव लोक पहुंच जाते हैं। जहां भी वह जाता है वे देवता वहां पहुंचते ही हैं। क्योंकि उनका साथ छूट नहीं सकता, टूट नहीं सकता, बिखर नहीं सकता, अलग नहीं हो सकता। आप का जन्म भी किसी न किसी उद्देश्य के लिए ही हुआ है। बुद्धि हमारे बीच में है तो शायद हम उसको नहीं समझ पायें और वह बुद्धि समझने की क्रिया करेगी तो वेश्या कभी पतिव्रता बन नहीं सकती वह समझ नहीं सकती। बुद्धि भी वेश्या है, उस व्यक्ति को उसके साथ जोड़ने की क्रिया नहीं करती और बार-बार उस मन को अटैक करती है। विवेक आपको बार-बार चेतना देता है, ज्ञान आपको समझाता है कि आपके जीवन का हेतु, लक्ष्य, उद्देश्य क्या है। पैदा होना और मर जाना लक्ष्य नहीं है और धन संचय करके रखना भी नहीं है। यह तो जीवन की क्रिया है जो करनी पड़ती है। करनी चाहिए भी मगर वह सार तत्व है नहीं, मैंने आज तक यह सुना ही नहीं कि किसी के मिटने के साथ उसका मकान चला गया या नोट की गठरी थी वह चली गई। ऐसा तो मैंने अभी तक किसी को देखा नहीं। कपड़े भी साथ गये नहीं, कफन भी नहीं गया, कफन भी डोंग ने उतार कर ले लिया। उसने तो करोड़ों रूपये कमाकर बेटे को दिये थे, लाखों रूपये दिए और उन्होंने जो कफन ओढ़ाया था वह कफन भी डोंग ने ले लिया। आपके साथ तो केवल आप गए और आपका पुण्य गया, संस्कार गया, आपका जीवन चिन्तन गया। इसलिए आपके जीवन का प्रत्येक क्षण उसकी सेवा में व्यतीत हो जो भी आपके दृष्टा हैं, जो भी आपका लक्ष्य है, जो भी आपका चिन्तन है किसी का लक्ष्य शादी होता है, किसी का लक्ष्य वेश्या होती है किसी का लक्ष्य पर स्त्री गमन होता है, किसी का लक्ष्य पैसा कमाना होता है, किसी का लक्ष्य गालियां देना होता है।
अपने-अपने लक्ष्य हैं, आप न किसी की पत्नी हैं, न किसी का कोई पति है, आप जब जाते हैं तो केवल आप अकेले ही जाते हैं, क्योंकि अकेले ही पैदा हुए हैं। पत्नी आपके साथ पैदा हुई नहीं, बेटा आपके साथ पैदा हुआ नहीं। आप जाएंगे तो वे आपके साथ जा नहीं सकते, आप अकेले ही जाएंगे, ये बीच में ही सारा खेल है। जन्म मृत्यु के बीच में, जिसे हम कभी बेटा कहते हैं, किसी को पति कहते हैं, किसी को पत्नी कहते हैं वे आपको या तो राक्षसमय प्रवृत्ति देंगे या देवत्वमय प्रवृत्ति देंगे। या तो आपको देवता पुरूष बना देंगे, नहीं तो बार-बार आपको कहेंगे घर के बाहर नहीं जाना है वहां मिलना नहीं है, गुरू जी के पास नहीं जाना, वहां जाने से क्या फायदा होगा अरे वो तो साला बदमाश है। गालियां आप चांद को भी दे सकते हैं। सूर्य को भी दे सकते हैं, गालियां देने के लिए पढ़ने की जरूरत है नहीं, कॉलेज में शिक्षा लेने की जरूरत नहीं है, तो समझ लेना चाहिए कि किसी राक्षस से मेरी शादी हुई है या कोई राक्षस ही मेरा पिता है या मां है, वह तो समझने का भाव है। मगर व्यक्ति को अपने खुद के लिए ही आगे बढ़ना पड़ेगा। ‘अप्प दीपो भव’’ आप अपने खुद का दीया जला कर आगे बढ़ोगे तब काम होगा, दूसरों के प्रकाश से आप नहीं पहुंच सकते, जहां आपको पहुंचना होता है।
इसलिए यह जीवन अपने आप में आंसुओ के माध्यम से धुलेगा, स्पष्ट होगा। अन्दर तो भाव साफ निर्मल तब ही बन पाएंगे और वह शरीर आप उनको भेंट नहीं कर सकते क्योंकि शरीर तो अपने आप में इतना मलिन है कि आप दो दिन स्नान नहीं करो तो शरीर से बदबू आने लग जाएगी, इस शरीर का तो बेकार घमण्ड करना। आप पांच दिन स्नान मत करिये, देखिए कि आपके पास में खड़ा हुआ व्यक्ति कहेगा कि स्नान नहीं किया, बदबू आ रही है, क्या बात है? शरीर तो है नहीं, उनके चरणों में चढ़ाने के लिए, भौतिक पदार्थ कुछ है नहीं। यह तो नाशवान है केवल एक चीज है जो उसके पास है, निर्मल है, अश्रु हैं और वह अश्रु ठीक वैसे ही हैं, जैसे समुद्र का पानी हो, वही तत्व हैं, क्यों समुद्र को देवता कहा गया है, वही आपके अन्दर में गन्दगी को धोता है और उसके माध्यम से चरणों में चढ़ा करके अपने आपको समर्पित करने की क्रिया करते हैं कि मेरा काम, मेरा क्रोध, मेरा लोभ, मैं आपके चरणों में चढ़ा देता हूं, आप मुझे निर्मल बना दीजिए, तब वह ज्ञान देता है जिससे ज्ञान दृष्टि जाग्रत होती है और ज्ञान दृष्टि के आगे अपने आप आत्म दृष्टि जागृत होती है। क्या मैं इनके बिना जीवित रह सकता हूं?
उसके बिना सांस लिया भी तो सांस नहीं लेने के बराबर हुआ। अगर मेरे मन में गुरू का एक क्षण भी चिन्तन नहीं आता तो मेरा जीवन ही व्यर्थ है, ऐसा जीवन तो समाप्त हो जाना चाहिए, मन में तो बिल्कुल एक लौ, एक लगन लगी ही रहनी चाहिए। बाहरी क्रिया कलाप तो हाथ पांव मारेंगे ही और जैसी वृत्ति होगी उन व्यक्तियों के सामने वैसा मुझे खड़ा होना ही पड़ेगा। राक्षसों के बीच में राक्षस के रूप में खड़ा होना पड़ेगा, देवताओं के बीच में देवता के रूप में। दुर्योधन के साथ श्रीकृष्ण शत्रु के रूप में खड़े हुए, भीष्म के साथ देवता रूप में खड़े हुए, अर्जुन के साथ मित्र रूप में खड़े हुए, गोपियों के साथ प्रेमी रूप में खड़े हुए। गुरु को तो आप जिस रूप में देखेंगे आपको उसी रूप में दिखाई देगा। कोई भाव हो, कोई रूप हो, सभी रूपों में मिलने की क्रिया होनी चाहिये कोई जरूरी नहीं है कि आप आरती उतारें।
इसलिए कृष्ण ने गीता में कहा है कि अर्जुन तू समझता नहीं है कि मैं तेरे साथ में हूं और जीवित व्यक्तित्व हूं और ये तुम्हारे लिए बहुत बड़ी सौभाग्य की बात है। आने वाला समय तो मेरा मन्दिर बना देगा। आने वाला समय तो घंटे घडि़याल बजायेगा और वह आंखे भी भिगोयेगा, मगर आज जो मैं साक्षात् दिखाई दे रहा हूं वह दिखाई नहीं देगा, वह आनन्द नहीं मिल पायेगा। वह जो एक क्षण का सुख है हमें प्राप्त नहीं हो पायेगा। इसलिए तू उस बात को समझ, इसलिए कृष्ण को कहा – ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरू’ अर्जुन ने कहा, वह गुरू ही नहीं जगद्गुरू हैं। इसलिए अर्जुन को उसने समझाया कि तू जो समझ रहा है उसके आगे भी समझ, तब तेरा अंहकार गलेगा कि तू बहुत वीर योद्धा है। तू तो कुछ है ही नहीं, करने वाला तो मैं हूं। तू तो एक निमित्त मात्र है।
अठाहरवें अध्याय में अर्जुन ने कहा कि मैं पहली बार समझा कि आप एक पूर्ण रूप है। मैं अभी तक आपको मानव समझ रहा था, मनुष्य समझ रहा था क्योंकि मेरी बुद्धि मुझे भ्रमित करती जा रही थी, बार-बार बुद्धि भ्रमित करती रही। आपने मुझे ज्ञान दिया और अब आत्म चक्षु मेरे जाग्रत हुए, अब मैं आपको नहीं छोड़ सकता। ज्यों ही कृष्ण ने सांस खत्म की, शायद उसी समय उसी मोमेंट में अर्जुन ने भी अपनी सांस खत्म कर दी। जबकि बीच में ढाई हजार मील का डिफ्रेंस था, वह हिमालय की ओर बढ़ रहे थे और वे गुजरात में थे श्रीकृष्ण। वह दूरी फिर कुछ रहती नहीं, चाहे 200 मील दूर हो, 500 मील दूर हो मजबूरी में। परन्तु आपके और उसके बीच में एक और पुल बना हुआ है, उसको आंसुओं का पुल कहा गया है। उस पुल के माध्यम से आप हर क्षण उसके पास रहते हैं क्योंकि उस बिम्ब में वह साफ-साफ दिखाई देता है। ऐसा ही आपका भाव बने।
शंकराचार्य कह रहे हैं कि व्यक्ति गुरु के साथ रहे और उससे उच्च कोटि का ज्ञान प्राप्त करे। वह कृष्ण सांदीपन के आश्रम में क्यों गया, मथुरा में गुरु थे नहीं क्या? वृन्दावन में गुरु नहीं थे? वृन्दावन में हरिनाथ गुरु थे उस समय। वह अपने आप में अद्वितीय थे। विट्ठल सम्प्रदाय चल रहा था जो उत्तम कोटि के गुरु थे, रामानन्द सम्प्रदाय चल रहा था। कोई गुरु की कमी नहीं थी, उत्तम कोटि के गुरु थे फिर सांदीपन के आश्रम में क्यों गये? उज्जैन क्यों गये कृष्ण? क्यों लकडि़यां ढ़ोयी, क्यों जंगल में लकडि़यां काट कर लायें? एक राजा का बेटा जंगल में जाकर लकडि़यां काट कर लाता है, गुरु यह देखना चाहता है कि यह शिष्य है या फोलोवर है, या केवल भीड़ में चलने वाला व्यक्तित्व है।
शेर भीड़ में नहीं चल सकता, शेर तो जंगल में अकेला होता है, अकेला ही चलता है। भेड़ों की भीड़ हो सकती है, बगुलों की भीड़ हो सकती है, गीदड़ों और सियारों की भीड़ हो सकती है, सियार जाएंगे तो बीस के झुंड में जायेंगे। शेर बीस के झुंड में नहीं होते, बीस शेर एक साथ नहीं मिल पाएंगे। हंस बीस एक साथ नहीं मिल पाएंगे। शंकराचार्य ने कहा कि व्यक्ति को जीवन जैसा भी प्राप्त हो गया, जन्म हो गया, अब उसको तुम बदल नहीं सकते, अब तो मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे, या फिर इस जीवन में कुछ ऐसा हो जाएगा कि तुम अवतारी व्यक्तित्व बन जाओगे। अवतारी व्यक्तित्व बनना बहुत ज्यादा जरूरी है, क्योंकि जीवन की सार्थकता वही है और फिर प्रश्न उसी श्लोक में करते हैं, उसी पंक्ति में कहते हैं कि एक नर जो मल मूत्र भरी देह से पैदा हुआ, क्या वह उच्चता को प्राप्त कर सकता है? अभी 5 मिनट पहले समझाया कि इस शरीर में मल मूत्र, थूक, विष्ठा, व लार इन पांचों के सिवाय छठी कोई चीज है नहीं। बहुत अच्छी प्रेमिका कहती है कि तुम्हारे बिना जिन्दा रह ही नहीं सकती और ज्योंही उसका एक्सीडेन्ट होता है, उसका चीरफाड़ होता है तो कोई देखना ही पसन्द नहीं करता और एक दम से कहती है कि जला दो। अभी तक तुम कह रही थी कि तुम्हारे बिना जिन्दा नहीं रह सकती, मर जाऊंगी। तुम्हें पांच मिनट नहीं देखती हूं तो ऐसी हो जाती हूं। फिर क्या हो गया उस शरीर में से निकला क्या, मल निकला, मूत्र निकला, विष्ठा निकली, तो हमारे शरीर में यही सब कुछ हैं।
शंकराचार्य कह रहे हैं कि जो जन्म हो गया हो गया। हमारे अंदर देवतत्व है, अगर वह जागृत नहीं है तो नरत्व जागृत है। दोनों चीज अलग हैं। एक आपके शरीर में देवत्व है, एक आपके शरीर में नरत्व है, नरत्व का तुम उपयोग कर रहे हो, उसके लिए यूनिवर्सिटी में कोई एज्युकेशन लेने की जरूरत नहीं है, उसके लिये कोई कोर्स है नहीं, उसके लिए कोई पढ़ाई है नहीं, उसके लिए कोई टाइम भी नहीं है, प्रत्येक जानवर के लिए एक फिक्स टाइम है, जितनी चिडि़यां हैं वह सब कार्तिक महिने में ही गर्भ धारण करती हैं मतलब सन्तान उत्पन्न करती हैं। गाय हैं सभी कार्तिक महिने में अपने बछड़े को जन्म देती हैं। एक उनका टाइम फिक्स है।
आदमी के लिए कोई टाइम फिक्स है नहीं। कभी भी बच्चा पैदा कर लेते हैं, हो जाते हैं। कोई ऋतु का और जीवन का सम्बध नहीं है। गाय का बछड़ा पेदा होता है और पैदा होने के तीन घंटे के बाद पैरों पर खड़ा हो जाता है, दौड़ने लग जाता है केवल तीन घण्टे के बाद और एक नर का बालक पैदा होता है नौ महिने तक तो खड़ा होना बहुत दूर घिसट करके भी नहीं चल पाता। हम कितने कमजोर हैं और हममें देवत्व कहां रह गया। हम पशुओं से भी गये बीते व्यक्तित्व बन गये, क्योंकि तीन घंटे खड़े हो जाने की क्षमता गाय में है, जो भैंस के बच्चे में है हममें नहीं है, कभी हमने सोचा भी नहीं। ऐसा क्यों है? शंकराचार्य उस पंक्ति में कह रहे हैं कि जो जन्म ले लिया वह उन्होंने हमें जन्म दिया। प्लान से दिया, बिना प्लान से दिया। यहां जन्म नहीं लेते तो कहीं और जन्म लेते जहां आत्मा भटक रही होती वहां जन्म लेते। मगर आपके उस जन्म को देवत्व में कैसे परिवर्तित किया जाए? जब तक देवत्व में परिवर्तित नहीं हो जाएगा जीवन तो जीवन नहीं कहलाएगा एक फिर नरत्व कहलाएगा। एक नर है, एक सामान्य मनुष्य है, एक व्यापारी है एक बिजनेसमेन है, एक जज है, एक वकील है, एक नौकरी पेशा आदमी है आप कुछ हैं मगर आप सही अर्थों में देवतत्व नहीं हैं, आपमें देवत्व नहीं है, आप ढोंग कर सकते हैं माला फेरने का। आप एक ढोंग कर सकते हैं शिवजी की पूजा करने का, आप ढोंग कर सकते हैं ईसामसीह का क्रास पहनने का, आप ढोंग कर सकते हैं कुरान के आयते पढ़ने का, ये सब ढोंग हैं।
ढोंग इसलिए है कि इतना करने के बाद भी शिव के दर्शन नहीं कर पाये, आप इतना करने के बाद भी अल्लाह के दर्शन नहीं कर पाये, इतना करने के बाद भी ईसा मसीह आपके सामने प्रकट नहीं हो पाए। कहां कमी थी, क्या गलती थी, तुममें क्या कमी है? तुम केवल एक नर हो, तुम अवतारी पुरूष बन नहीं पाये। ये तुममें कमी हुई। ऐसा कैसे हो सकता है तुम मंत्र पढ़ो और देवता सामने उपस्थित न हों। ऐसा तो हो ही नहीं सकता। ऐसा संभव ही नहीं है। सी-के चतुर्वेदी इधर आना। बस एक सेकेण्ड। अब देखिये मैंने मंत्र पढ़ा सी-के- चतुर्वेदी इधर आओ। देखिए बीच में से वह आया कि नहीं आया। मंत्र में ताकत है कि नहीं है आपके सामने उदाहरण है। तुम कह रहे हो शब्दों में ताकत होती ही नहीं। मैं कह रहा हूं कि केवल वही मंत्र पढ़ा और वही व्यक्ति उठा, दूसरे उठे नहीं। इतने लोग बैठे थे। केवल वही व्यक्ति उठा और मेरे मंत्रों में बिल्कुल क्षमता थी, मेरे शब्दों में क्षमता थीं और शब्द को ही मंत्र कहते हैं और मैंने मंत्र उच्चारण किया। चाहे ह्रीं बोला, चाहे क्लीं बोला, चाहे श्रीं बोला, बोला और चाहे सी-के चतुर्वेदी एक शब्द बोला, बोला और वह व्यक्ति उठ कर मेरे पास आया। फिर मैं शिव की आराधना करता हूं, शिव का मंत्र करता हूं, शिव को बुलाता हूं, शिव क्यों नहीं आते? जब सी-के चतुर्वेदी आ सकता है तो फिर शिव को आना चाहिए। या फिर हममें कोई कमी है।
मैं तो आपके सामने प्रत्यक्ष उदाहरण देकर समझा रहा हूं। न आप उठकर आये, न वे उठकर आये। केवल जिसको मैंने याद किया, जिसको बुलाया वही व्यक्ति आया। इसलिए आप नर हैं। शंकराचार्य कह रहे हैं कि यह जीवन व्यर्थ हो जाएगा, आपका एक ढोंग हो जाएगा, एक पाखण्ड हो जायेगा। आप मात्र सांस लेने की क्रिया कर देंगे और सांस भी आपको लेनी आती नहीं। एक छोटे से बालक हो आप देखिये, वह सो रहा है सांस ले रहा है तो उसकी नाभी बिल्कुल फड़फड़ा रही है ज्यों ही सांस ली नाभि स्पन्दन करती है। आप जब सांस लेते है तो नाभि तो बहुत दूर पेट इतना बढ़ा हुआ है कि नाभि वहीं के वहीं पड़ी है। हिल नहीं सकती क्योंकि पेट को इतना भर दिया कि सांस यहां तक आयी और फिर वापिस बाहर आ गयी।
तब प्राणायाम होगा कहां से, कहां से जीवित रहोगे, कहां से तुम योगी बन सकोगें, कहां से मूलाधार जाग्रत होगा, कहां से कुण्डलिनी जाग्रत होगी, सांस लेने की क्रिया ही तुम्हें ज्ञात नहीं है। बालक को ज्ञात है क्योंकि ब्रह्म से निकला हुआ वह आया है और उसने ज्यों ही सांस ली सीधे नाभि स्पंदन हुआ और आप देखेंगे की उसकी नाभि बिल्कुल धड़कती हुई होती है। नाभि अपने आप में धड़कती रहती है।
मगर दो चार साल के बाद में नाभि धड़कना बन्द हो जाती है, आपकी नाभि धड़क नहीं सकती क्योंकि नाभि के ऊपर आपने इतना हलवा लगा दिया है, पूरियां लगा दी हैं कि पेट हिले पॉसिबल ही नहीं है। इसलिए मैं कह रहा हूं कि आपको सांस लेने की क्रिया का भी ज्ञान नहीं है। शंकराचार्य कह रहे हैं कि गुरु का कर्त्तव्य, धर्म यह है कि वह व्यक्ति को यह एहसास करा दें कि तुम नर हो और तुम्हें अवतार प्राप्त करना है, अवतारी पुरूष बनना है, देवतत्व बनना है, देवत्व प्राप्त करना है और जब देवत्व बनेंगे तो देवत्व की मृत्यु नहीं हो सकती, देवता मर नहीं सकता यह संभव नहीं है। नर मर सकता है इसलिए मर सकता है क्योंकि उसने उस जीवन का अर्थ समझा नहीं, कैसे जिन्दा रहा जा सकता है यह ज्ञात नहीं है। अगर मुझे यह ज्ञात नहीं है कि यहां से कनाट प्लेस कैसे जाया जा सकता है, मैं नहीं जा सकता। इसलिए इस श्लोक में बताया गया है कि बहुत छोटा सा जीवन मिलता है। पच्चीस साल तो आपने बिता दिए पढ़ाई करने में फिर पच्चीस साल के बाद हो गई शादी, फिर चालीस साल तक आपने किसी और काम में लगा दिये। फिर पचास साल में आपने व्यापार सेटींग कर लिया। फिर चौंसठ साल में आप मर गये। पचास साल, साठ साल, सत्तर साल के हो गये और पैंसठ साल के बाद आप जिन्दा रहें तो लोग आश्चर्य करते हैं कि यह जिन्दा है, आप पैंसठ साल के हो गये। अभी तक जिन्दा हैं अच्छा चलो, राम जी की मर्जी।
सत्तर साल के हो गये तो लोग घूर-घूर के देखते हैं सत्तर, सत्तर के हो गये क्या, अरे भई नहीं मरे, सत्तर के हो गये और अस्सी साल के हुए तो आपको चिडि़या घर में खड़े कर देते हैं। यह साहब अस्सी साल के व्यक्ति हैं जो अभी मरा नहीं ऐसे पूरे भारत वर्ष में दो चार, दस, पच्चीस, पच्चास मिलेंगे। कितना छोटा सा हमारा जीवन है, जीवन को हम हजार साल का नहीं बना सकतें। बना सकते हैं, उस नर से, देवत्व की ओर जा सकते हैं। आपके पिता नर थे आपकी मां नर थी नारी थी। आपके दादा ऐसे ही थे, आपके परदादा भी ऐसे ही थे। उनके पास भी कोई प्लान नहीं था। आपके पास भी आज तक कोई प्लान नहीं हुआ। मगर वे हमारे कोई काम के हैं नहीं क्योंकि—-‘अप्प दीपो भव’ मैं हूं तो सब हैं, अगर आप नहीं रहेगे तो क्या रहेगा, पत्नी चार छह महीने रोयेगी, साल भर रोयेगी। बाद में फिर हलवा पूरी खा लेगी, किसी शादी में जायेगी तो खा लेगी। फिर बेटे अपने काम में लग जायेंगे। फिर घर में शादियां हो जाएंगी। फिर श्राद्ध आ जाएगा तो आपको याद करेंगे कि मेरे पिता जी बहुत अच्छे थे आज उनकी मृत्यु हो गई थी बस बात खत्म, स्वर्गवासी हो गये थे। आपने किया क्या जिन्दगी में?
शंकराचार्य कह रहे हैं कि व्यक्ति की सबसे बड़ी विशेषता है, देवत्व की ओर अग्रसर होना और अगर समझदार व्यक्ति है—- समझदार व्यक्ति वह जो विवेक से काम लेता है। मूर्ख व्यक्ति विवेक से काम ले ही नहीं सकते क्योंकि उनकी जिन्दगी में क्षण आ ही नहीं सकते। पहले शिष्य गुरु के चरणों में पहुंचता था, हजार मील की पैदल यात्रा करके। उस समय गाड़ी या ट्राम, टेक्सीयां, कारें, बसें थी नहीं। उस वासुदेव के बेटे के पास भी नहीं थी जो राजा का बेटा था। उसको पैदल जाना पड़ा। सांदीपन आश्रम में जा करके उसने किस प्रकार से एक नर से देवत्व बना जाए ये क्रिया सीखी और उस समय त्रेता युग में केवल दो व्यक्तियों को ज्ञान था, अत्रि को और विश्वामित्र को। द्वापर युग में केवल एक व्यक्ति को ज्ञान था वे थे सांदीपन। उज्जैन के पास नदी क्षिप्रा के उस पार आज भी वहां सांदीपन आश्रम है।
छोटी क्रिया नहीं है। एक पूरे शरीर को परिवर्तित करने की क्रिया है। इतना परिवर्तित करने की क्रिया कि एक सामान्य मल मूत्र से भरी हुई देह को अपने आप में अमृतमय बना देने की क्रिया है, आपको तुच्छ व्यक्ति से देवतत्व बना देने की क्रिया है, अपने आप को एक घटिया व्यक्ति से ऊंची छलांग लगाने की क्रिया है, ऐसी क्रिया है। ऐसी क्रिया कि बूंद से पूरे संमुद्र बन जाएं, एक ऐसी क्रिया कि जहां अपने आप में सम्पूर्णता प्राप्त हो जाती है, ‘पूर्ण मद पूर्ण मिदं’ कहा जाये वह बन जाने की क्रिया। अगर ऐसी क्रिया तुम्हारे पास नहीं आ पाई, नहीं बन पाये तो यह जीवन व्यर्थ है, क्षण भंगुर है, समाप्त है और उस जीवन का कोई अर्थ, कोई मकसद है ही नहीं। मगर यह आपका सौभाग्य है कि नदी, समुद्र के पास जाती है, हजारों मील दूर दौड़ती हुई गंगोत्री के पास हिमालय से होती, लहराती हुई, छलांग लगाती हुई, दौड़ती हुई, पेड़ों को तोड़ती हुई, चट्टानों को तोड़ती हुई और यहां तो समुद्र खुद तुम्हारे पास आ करके बैठा हुआ है, तुम्हें पूर्णता देने के लिए। आप पूछेंगे कि क्या ऐसा हो सकता है?
मैं पूछूंगा कि आपके प्रश्न अनगिनत हैं, करोड़ों हैं। क्या सांस लेने से कुछ होता है, क्या सांस नहीं लेने से कुछ होता है, क्या आपके पास बैठने से कुछ होगा, क्या खाना खाने से कुछ होगा? या नहीं खाने से कुछ होगा, आपकी ‘हरि कथा अनन्ता’ आपके प्रश्न तो अनगिनत हैं ही। मगर इस जीवन में जो जीवन मिला है वह मैंने कहा कि नाशवान है, आप खुद भी समझते हैं कि नाशवान है शरीर समाप्त हो जाएगा। ये आपको मालूम है और मैं आज वह क्रिया समझाना चाहता हूं कि इस नाशवान शरीर को अपने आप में अमर अद्वितीय बना सकते हो, गारंटी के साथ बना सकते हो, ईश्वर के साक्षी के रूप में बना सकते हो और नहीं बनाया तो धिक्कार है। आपको भी और मुझको भी। मैं अपने आप को धिक्कार देता हूं, इसलिए कि मैं आप में वह प्रेरणा पैदा नहीं कर पाया। आप इस चीज को समझते हुए समझ नहीं पाये।
कृष्ण ने भी गीता में शंकराचार्य के इसी श्लोक को लिया। मैंने कहा कि इस गीता से अष्टावक्र गीता बहुत महत्वपूर्ण है, कभी आप उसको पढ़ें और इस गीता के इस तथ्य पर जो मैंने बताया पूरा एक अध्याय लिखा है अष्टावक्र ने।
कपड़ा फट जाता है तो दूसरा कपड़ा पहन लेते हैं, वैसे शरीर नाशवान हो जाएगा तो हम दूसरा चोला धारण कर लेंगे। गीता में श्रीकृष्ण ने इतना भी कहा पर अष्टावक्र ने इस बात को पूरा समझाया, इतनी सी चीज में समझ नहीं आएगी बात। क्योंकि समझ नहीं आयेगी कि कृष्ण को समझा ही नहीं गया और हमारे यहां पर भारत वर्ष में सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जिन्दा गुरु को समझा ही नहीं जा सकता, कोई नहीं समझता। उसे गालियां दी जा सकती हैं, उसको फटकारा जा सकता है। कृष्ण को गालियां दी, फटकारा, इतना उसको प्रताडि़त किया गया कि वहां से मथुरा से भाग कर द्वारिका में जाना पड़ा और रणछोड़ जैसा कलंक लगाया। युद्ध से भागने वाला। राम को इतना प्रताडि़त किया गया कि चौदह साल तक पत्नी से वियोग में जंगल में दर-दर भटकना पड़ा। बुद्ध को इतना प्रताडि़त किया गया कि उसके कानों में कीलें ठोक दी गई। ईसा मसीह को इतना प्रताडि़त किया गया है कि सूली पर टांग दिया गया। सुकरात को इतना प्रताडि़त किया गया कि उसको कांच घोट कर पिला दिया गया।
हम जीवित गुरु को पहचान ही नहीं पाये और मरने के बाद उसकी पूजा करते रहते हैं। चित्र लगाते हैं, अगरबत्ती लगाते हैं, धूप लगाते हैं, कृष्ण जिन्दा होते और धूप, अगरबत्ती लगाते तो ये क्षण आते नहीं। हम मुर्दों की पूजा करने वाले हैं जीवित व्यक्तियों की पूजा करने वाले नहीं हैं। हम बूढ़े बाप को शुद्ध घी नहीं खिलाते। मरने के बाद चिता में पूरा पीपा उड़ेलते हैं, लोग देखें कि कितना सपूत है, पूरे असली घी के पीपे डालो वो बेटा बहुत सपूत है। अरे पहले असली घी खिलाते तो मरता ही क्यों ये। पहले खिलाते नहीं, हम मुर्दा पूजक हैं, जिन्दा पूजक हैं नहीं, क्योंकि वे हर समय आपको टोकता रहेगा, टोकता रहेगा तुम ऐसे मत बनो, तुम गलती कर रहे हो। वह बार-बार आपको टोकेगा, रोकेगा और आपको बराबर चोट पहुंचेगी कि ऐसा गुरु क्या काम का, कोई प्रशंसा नहीं करता, सौ रूपये का नोट चढ़ाने के बाद भी छोड़ा इसको। ये मोटा ताजा गुरु बहुत अच्छा है लाल सुर्ख, बस ये अच्छा है। बस उसकी शरण में चले जाओ।
शंकराचार्य कहते हैं कि जीवित गुरु के पास में रहना बहुत कठिन है, नहीं रह पाता आदमी और जो रहे वह अपने आप में सौभाग्यशाली होता है। क्योंकि गुरु बराबर शिष्य को टोकता रहता है, क्योंकि उसको उस जगह पहुंचाना है, वह गुरु का कर्त्तव्य, धर्म है। जब उस जगह पहुंचेगा तो विराट अपने आप में जागृत हो जायेगा। आपके अन्दर विराटता जागृत हो जायेगी, होगी मंत्रों के माध्यम से। मैनें मंत्रों की अभी परिभाषा दी। साधना या मंत्र का अर्थ है कि हम किसी देवता को आंखों से देख सकेंगे, बात कर सकेंगे। देवता जीवित जागृत हैं, हम भी उन देवताओं में से एक देवता बनें और बनें, पूर्ण ब्रह्म बनें और पूर्णता प्राप्त करें और जो श्लोक यजुर्वेद के अंत में कहा है कि
वह पूर्णता प्राप्त करे और पूर्ण अवतारी बनें। नर रूप में पूर्णता प्राप्त करते हुए देवमय बनें। अमृतमय बनें, हमारे अन्दर अमृत कलश स्थापित हो और हमारे अन्दर ब्रह्माण्ड स्थापित हो जाए जिससे कि हम बिना किसी की सहायता के सिद्धाश्रम में प्रवेश कर सकें और बीच में कोई रोक-टोक हो ही नहीं। आप नर नहीं होंगे उस समय, आप उस समय देवत्व होंगे, देवता होंगे, उस समय आपके अन्दर एक ब्रह्माण्ड जागृत होगा और मंत्रों के माध्यम से आप में वह ज्ञान, वह चेतना आये कि आप एक जीवित जागृत व्यक्तित्व को पहचान सको, उसे अपने अन्दर समाहित कर सको, ऐसे ही आप अपने आप को पहचानें कि आपने क्यों जन्म लिया।
मैं आपको आशीर्वाद देता हूं, आने वाला नूतन वर्ष हर दृष्टि से कल्याणमय हो, आप पूर्णता प्राप्त करें, आप सफल हों, आप सुखी हों। एक बार फिर मैं हृदयभाव से नूतन वर्ष का पूर्ण आशीर्वाद देता हूं।
सद्गुरूदेव परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानन्द जी
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