सभी शिष्यों के लिये एक संजीवनी है, एक प्राणश्चेतना है, एक रास्ता है, जिससे यह स्पष्ट हो सकता है कि गुरु गति जीवन का किस प्रकार से ध्येय बन सकता है। गुरु शब्द अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिये है कि जीवन का मकसद केवल जिन्दा रहना नहीं है, सांस लेना नहीं है, जीवन का मकसद केवल भोजन करना और शरीर को बड़ा करना नहीं है। जीवन का मकसद विवाह करना और संतान पैदा करना भी नहीं है। जीवन का एक लक्ष्य होता है, जीवन का एक उद्देश्य होता है, जीवन की एक चेतना होती है, जीवन एक प्राण होता है, जीवन की यह एक क्रिया है और यह क्रिया संसार के सभी प्राणियों की सर्वश्रेष्ठ क्रिया है। क्योंकि इस क्रिया का ज्ञान, मेरा जन्म क्यों हुआ? यह चिन्तन और किसी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि में नहीं होता और जन्म लेने की क्रिया देवताओं में भी नहीं है, जन्म लेने की क्रिया राक्षसों में भी नहीं है, जन्म लेने की सुन्दरतम् अभिव्यक्ति और मां के पेट में नौ महीने रह कर के एक उच्चतम भाव भूमि को स्पष्ट करने की क्रिया यह केवल मनुष्य के लिये ही है और इसीलिये मनुष्य जीवन को जीवन की सर्वश्रेष्ठ क्रिया कहा गया है। परन्तु यह बात भी निश्चित है कि तुम्हारा जन्म हुआ मगर तुम्हारा जन्म होना अपने आप में कोई अनहोनी घटना नहीं है। तुम्हारा जन्म होना जीवन का कोई विशेष उद्देश्य नहीं है। तुम्हारे जीवन से समाज में कोई विशिष्ट परिवर्तन नहीं आया है। तुम्हारे जीवन से समाज में कोई व्यक्ति सुन्दर नहीं बना है। तुम्हारा जीवन हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग नहीं है। क्योंकि यह जीवन तो एक सामान्य परिपाटी है। जहां पर भी एक स्त्री और पुरूष का मिलन होगा, वहां जन्म होगा। वह जन्म पशु-पक्षियों का भी हो सकता है। उसी प्रकार से कीट-पंतगें और छोटे जीव-जन्तुओं का भी होता है। उनके जीवन से और उनके जीवन में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आता। तो तुम्हारे जीवन में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आया। यह तो तुम्हारे माता-पिता का एक संयोग है, एक चांस है, एक क्रिया है और उस रसायनिक क्रिया का प्रतिफल तुम हो। इसीलिये तुम अपने जीवन पर जब गतिशील हो, जब तुम अपने जन्म से लेकर आगे की ओर बढ़ते हो, तो जन्म के पहले क्षण से तुम्हारी क्रिया श्मशान की ओर जाने की क्रिया बनती है। क्योंकि अगर तुम्हारी जिन्दगी के चौसठ साल, पांच महीने, 23 दिन, 18 घंटे जीवन है तो तुम एक घंटे के बाद तुम उस पूरी उम्र का एक घंटा पार करोगे और तुम उस एक घंटे में सिर्फ मृत्यु की ओर आगे बढे़। एक साल के बाद तुम्हारी जिन्दगी सिर्फ 63 साल की ही रही और एक साल बाद 62 साल रह गई, दो साल बाद 60 साल रह गई।
तुम्हारी क्रिया केवल जन्म से मृत्यु के रास्ते पर जाने की क्रिया है। इसलिये यह क्रिया पशुओं में भी है, पक्षियों में भी है। मगर तुम में और पशु-पक्षियों में अन्तर है। अन्तर यह है कि तुम एक चेतना को ज्ञात कर सकते हो, क्यों प्रभु ने तुम्हें जीवन दिया? जीवन का उद्देश्य क्या है? जीवन का लक्ष्य क्या है और इस जीवन का लक्ष्य उस सूक्ष्मता से पूर्णता की ओर अग्रसर होना है। यह लक्ष्य आदि से अंत होने की क्रिया है। यह जीवन का लक्ष्य प्रारम्भ से अंतिम बिन्दु तक पहुंचने की क्रिया है। इसीलिये ईशावास्योपनिषद् में ऋषियों ने लिखा है।
ब्रह्म पारमपूर्ण सर्वे पूर्णम।
जो अपने जीवन में पूर्णता की ओर अग्रसर होने की क्रिया करता है, सोचता है, चिंतन करता है वह मनुष्य है। वही शिष्य, वही साधक हैं। यदि जिसके जीवन में चिंतन ही नहीं है कि प्रभु ने उसको जन्म क्यों दिया, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है, मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है, मेरे जीवन की गति क्या है। यदि यह चिन्तन नहीं करता, यदि यह विचार नहीं करता, यदि यह धारणा नहीं है, यदि उसके मन में यह एक बिन्दु स्पष्ट होता ही नहीं है तो उसमें और पशु में कोई अन्तर नहीं है। क्योंकि पशु ऐसा चिन्तन नहीं कर सकता। पशु इस प्रकार का विचार नहीं कर सकता। पशु के जीवन में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। पशु के जीवन में इस बात का भी स्थान नहीं है कि हमारे जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य क्या है और जिसको जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य ही ज्ञात नहीं वह जीवन की पूर्णता तक पहुंच नहीं सकता। इसलिये मनुष्य जीवन को केवल एक पशु जीवन कहा जाता है और तुम सब का जीवन एक पशु जीवन है और जिस रास्ते पर, जिस पगडंडी पर तुम चल रहे हो यह जीवन की पगडंडी है और जीवन की पगडंडी के बारे में तैत्तरीय उपनिषद् में बहुत स्पष्ट रूप से श्रेष्ठतम बात कही गई है और उस बात में यह कहा गया है कि जीवन का मूल उद्देश्य, मूल लक्ष्य, मूल चिन्तन इस बात में है कि वह निरन्तर गतिशील होता रहे और मनुष्य गतिशील होता ही है। फिर इस तैत्तरीय उपनिषद् में विशेष क्या है। उसमें सूत्र हैं और उस सूत्र का भाव यह है
संपूर्णवे परिकाम, परिवे मरिदम, सर्वे सताम कुरुतम, र्दिग्म युद्धम मदाम्, परे
मैं सोचता हूं कि इस श्लोक में पूरे उपनिषद् का सार है, जीवन के लक्ष्य का पाठ यह है, हमारे जीवन की उलझी राहों का स्पष्ट संकेत है। उसमें बताया गया है कि हम मनुष्य के रूप में जन्म लेकर के गतिशील होते हैं। परन्तु यह हमारी गति काल की गति है। यह हमारी गति मृत्यु की ओर बढ़ने की गति है। यह हमारी गति जीवन को समाप्त करने की गति है। यदि जीवन में ऐसा कोई क्षण आये, यदि जीवन के पुण्यों का उदय हो, यदि जीवन में कोई श्रेष्ठतम स्थिति बनती है तो उस पगंडडी पर जहां कहीं बीच में गुरु मिल जाये और यदि हम उसको पहिचान लें, क्योंकि उसमें भी कर्मों का चिंतन है और ऐसा भी हो सकता है कि आप गुरु के पास में से निकल जाये। गुरु शब्द इसलिये बना कि तुम्हारे मनुष्य जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य अगर है तो क्या है इसको सामान्य मनुष्य नहीं समझा सकता। इसको देवता भी नहीं समझा सकतें। क्योंकि देवताओं ने जन्म लिया ही नहीं वह समझें नहीं। इसलिये उनकी ज्ञान चेतना हो ही नहीं सकती कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य क्या है। इसको राक्षस, गन्धर्व, किन्नर, प्रेत, यक्ष ये भी नहीं समझा सकतें क्योंकि जिन्होंने जन्म लिया ही नहीं वे समझा नहीं सकतें। पर गुरु ने जन्म लिया है और जन्म लेकर के पूर्णता तक पहुंचा है। गुरु का जन्म लेना एक निमित्त मात्र है, शिष्य को प्रमाणित करने के लिए।
पूर्णमदः, पूर्णमिदं पूर्णतः पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाय शिष्यते।।
बड़ी सुन्दर व्याख्या है उसने कहा है कि जीवन का उद्देश्य मार्ग में रूकना नहीं है। जीवन का उद्देश्य मार्ग में विश्राम करना भी नहीं है। जीवन का उद्देश्य जिस रास्ते पर गतिशील है उस रास्ते पर से ही सही रास्ता पकड़ने की क्रिया है, सही जगह पहुंचने की क्रिया है, सही स्थिति में पहुंचने की क्रिया है और क्रिया वहां पर जहां मनुष्य गतिशील होता है ,वहां पर कई रास्ते हैं। एक रास्ता संतान पैदा करने का है जहां पर हम दो-तीन चार बच्चों को पैदा कर देते हैं और जिस प्रकार से हम मृत्यु की ओर गतिशील हैं, उसी प्रकार उन पुत्रों को भी मृत्यु की ओर गतिशील कर देते हैं। जिस प्रकार हम झूठ, छल, कपट में डूबे हुए हैं ठीक उसी प्रकार उनको भी उसी क्रिया में ढकेल देते हैं। क्योंकि जब हमें खुद को ही ज्ञान नहीं है तो हम अपने संतान को भी ज्ञान नहीं दे सकते और यह जन्म और मरण के बीच में झूलने की क्रिया है। जन्म से मृत्यु की ओर समाप्त होने की क्रिया है। जन्म और मृत्यु के बीच में निरन्तर भटकने की क्रिया है। पर इस बीच में यदि गुरु मिलते हैं और यदि हमारे जीवन के पुण्य उदय होते हैं, जीवन में चेतना प्राप्त होती है, यदि हमारे जीवन का लक्ष्य स्पष्ट है तो जहां भी गुरु मिल जाये, वहां कस कर पकड़ लेना चाहिए। उनके चरणों को स्पर्श कर लेना चाहिये। उनको अपने आप में आत्मसात् कर लेने की क्रिया कर लेनी चाहिये। क्योंकि तुमको यदि गुरु नहीं मिले तो तुम्हारे जीवन का रास्ता मरघट की ओर, तुम्हारा रास्ता मृत्यु की ओर है और वेदों में शास्त्रों में उपनिषदों में एक ही बात कही है।
त्वम् ब्रह्म, त्वम् ब्रह्मासि।
तुम ब्रह्म हो तुम्हें ब्रह्म में लीन होने की क्रिया करनी है, क्योंकि चौरासी लाख योनियों का अर्थ है इस जीवन के जन्म से लगाकर के मृत्यु तक तुम विभिन्न योनियों में भटकते हो। कहीं तुम पिता बनते हो, कहीं तुम बेटे बनते हो, कहीं तुम मां बनते हो, कहीं तुम बहन बनते, किसी के तुम भाई बनते हो, कभी किसी के तुम सम्बन्धी बनते हो, यह सब योनियां हैं। अलग-अलग योनियां है। अलग-अलग योनियों में भटकते-भटकते मृत्यु की ओर अग्रसर होते हो मगर वो कह रहा है।
त्वम् पूर्णम देहि
तुम पूर्ण हो सकते हो, मगर
पूर्ण तुम कैसे हो सकते हो।
तुम्हें पूर्णता का ज्ञान है ही नहीं पूर्ण क्या है? पूर्णता का अर्थ क्या है? पूर्णता का चिन्तन क्या है और यह पूर्णता का चिन्तन जो कराता है उसको गुरु कहते हैं और यह गुरु किसी घर में नहीं मिल सकता, यह गुरु किसी आश्रम में नहीं मिल सकता, यह गुरु किसी नदी किनारे नहीं मिल सकता, यह लम्बी जटा बढ़ाने वाले गुरु नहीं बन सकते। लम्बी जटा और भगवे कपड़े पहनने वाले भी गुरु नहीं बन सकतें। गुरु बन सकते हैं जिसमें ज्ञान और चेतना है, जिसमें जाग्रत चेतना है, जो इस ब्रह्म से साक्षात्कार कर चुका है। जिसको यह ज्ञात है कि जीवन की पूर्णता क्या है। जीवन का ध्येय क्या है, जीवन का लक्ष्य क्या है, हमें जीवन में कहा पहुंचना है, कैसे पहुंचना है? और उन सारे जटिल प्रश्नों के उत्तर केवल गुरु दे सकता है। क्योंकि गुरु स्वयं
गुरु र्ब्रह्मा, गुरु र्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
मैं गुरु को इसलिये प्रणाम् नहीं करता हूं कि वह शरीरधारी है, इसलिये भी नहीं कि वह मुझे रास्ता बताता है। गुरु मुझे नवीन प्रकार से पैदा करेगा, नवीन प्रकार की क्रिया करेगा, मैंने जो जन्म लिया है वह तो एक सहज स्वभाविक क्रिया है। उसमें कोई बहुत बड़ा विस्फोट नहीं हुआ। उसमें कोई बहुत बड़ी चेतना नहीं हुई। मेरे मां-बाप ने मुझे जन्म दिया तो कोई अनन्य घटना नहीं घटी। मुझे वापिस नये शरीर से ब्रह्म स्वरूप बना कर जन्म दें। ब्रह्मा का तात्पर्य यह है कि वह एक नवीन जन्म दे और गुरु ब्रह्मा हैं, मुझे नवीन प्रकार से जन्म दें क्योंकि मैंने जो कुछ जन्म लिया है, वह मेरे वश में नहीं है। उसका मेरा कोई लक्ष्य नहीं था। उसके पीछे मेरा कोई हाथ नहीं था। मैं चाहते हुए भी उस गर्भ को धारण कर सकता या नहीं कर सकता। यह मेरे हाथ में नहीं था। इसलिये वह ब्रह्मा स्वरूप बन करके मुझे वापिस नया जन्म दें।
गुरु र्विष्णु और जन्म ही नहीं दे मुझे पुष्ट करें तालिम दें, ज्ञान चेतना दें, प्राणश्चेतना दें, मुझे आगे बढ़ने की क्रिया दें मुझे समझाये मेरे जीवन का उद्देश्य, मेरे जीवन का लक्ष्य, मेरे जीवन के प्राण, मेरे जीवन की गति क्या है? मैं किस पगडंडी पर गतिशील होऊं और गुरुर्देवो महेश्वरः वह साक्षात शिव स्वरूप है क्योंकि शिव कल्याणमय है और मैं जो कुछ कर रहा हूं, छल में कर रहा हूं, मैं झूठ कर रहा हूं, पाप कर रहा हूं, झूठ बोल रहा हूं, कपट कर रहा हूं, असत्य कर रहा हूं, संतान पैदा कर रहा हूं और मर रहा हूं। मेरे जीवन में कोई चेतना नहीं है, मेरे जीवन में कोई ज्ञान नहीं है क्योंकि मुझे यह ज्ञात ही नहीं है कि मैं शिवमय कैसे बन सकूंगा, कल्याणमय कैसे बन सकूंगा। इसलिये गुरु जहां ब्रह्मा हैं, जहां गुरु विष्णु हैं, वह गुरु शिवमय भी हैं और मैं शिवमय बनकर के किस प्रकार से अपने जीवन को पूर्णता की ओर अग्रसर करता हूं और अग्रसर कर सकूंगा इसका चिन्तन, इसका ज्ञान केवल गुरु ही दे सकते हैं। इसीलिये गुरु को केवल विष्णु ही नहीं कहा गया और गुरु को केवल शिव ही नहीं कहा गया, गुरु साक्षात् परब्रहम् हैं। इन तीनों से ऊपर जो ब्रह्म की स्थिति है, जहां पर जीवन की पूर्णता प्राप्त होती है। जहां ईशवास्योपनिषद् में कहा गया है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं
जहां प्रारम्भ मेरा एक सामान्य घटना बनकर रह गया। वहां मेरे जीवन का लक्ष्य ब्रह्ममय बन करके पूरे ब्रह्माण्ड में फैल जाने की क्रिया है और यह पूरे जीवन में फैल जाने की क्रिया बहुत विरले लोगों को प्राप्त होती है, बहुत उच्च कोटि का जिनका चिन्तन जिनका विचार होता है, उनको प्राप्त होती है। जब तुम पगडंडी पर गतिशील होते हो, पांच साल बाद-बीस साल बाद कहीं पर भी तुम्हें गुरु मिल सकता है और जहां तुम्हें गुरु मिले वह जीवन का एक विशिष्ट, स्वर्णिम क्षण है। जीवन का एक श्रेष्ठतम क्षण है। जीवन का यह सौभाग्य दायक क्षण है। क्योंकि उसी क्षण तुम पैदा होते हो। उस क्षण तुम एहसास करते हो, कि मेरे जीवन को कोई गति देने वाला है। मेरे जीवन को कोई चेतना देने वाला है। उन क्षणों में गुरु तुम्हें दीक्षा देता है, तुम्हें अपना लेता है, गुरु तुम्हें अपने मुंह से शिष्य कहता है। ठीक वही क्षण तुम्हारे जन्म का क्षण होता है। वही क्षण वह ब्रह्म बन करके तुम्हारी उत्पत्ति करता है। वही क्षण तुम्हारे जीवन का स्वर्णिम प्रभात होता है।
क्योंकि तुम्हारा वास्तविक जीवन वहीं से प्रारम्भ होता है। अभी तक जो तुम्हारा जीवन था, हाड़ मांस का बना हुआ सामान्य जीवन था। अभी तक जो तुम्हारा जीवन था मल मूत्र में लिप्त जीवन था, अभी तक तुम्हारे जीवन में वासनाएं थी, स्वार्थ था, लालच था, तुम्हारे जीवन में घृणा थी और तुम्हारे जीवन में ऐसा कुछ नहीं था जिस पर गर्व किया जा सके। क्योंकि तुम्हें कोई रास्ता ज्ञात ही नहीं था। तुम तो केवल अपने जीवन को एक पगडंडी पर चाहते हुए, ना चाहते हुए ढकेले जा रहे थे। परिस्थितियां तुम्हें ढकेल रहीं थी। तुम माया में उलझे हुए थे। तुम धन के पीछे पागल, दीवाने थे, तुम किसी स्त्री के पीछे, विषय-वासना के पीछे लिप्त थे। मैं तुम्हें जन्म दे रहा हूं और वह स्मरण दिला रहा हूं, वह चिंतन दे रहा हूं, विचार दे रहा हूं कि तुम्हारा जन्म एक विशेष गति है, ईश्वर ने तुम्हें एक विशेष उद्देश्य के लिये पैदा किया है। क्योंकि प्रभु की यह विशेष स्थिति है कि वह घास का एक तिनका भी व्यर्थ में पैदा नहीं करता और तुम्हारे जैसे पांच फुट और छः फुट के किसी व्यक्ति को जन्म दिया है प्रभु ने, तो जरूर कोई हेतु है कोई कारण है, कोई चिन्तन है और उस चिन्तन को समझने के लिये, उस चिन्तन को पूर्णता देने के लिए। गुरु तुम्हें रूक करके समझाता है, तुम्हारे जीवन की श्रेष्ठता क्या है? और उस श्रेष्ठता को पूर्णता देने की क्रिया गुरु के माध्यम से पूर्ण हो सकती है।
फिर यह जीवन एक नवीन श्रृंगार से आभूषित होता है। जो तुम्हारा नाम है वह समाप्त कर गुरु तुम्हें एक नया नाम देता है, तुम्हें केवल शिष्यता नहीं देता, गुरु तुम्हें केवल दीक्षा नहीं देता वह तुम्हारे रक्त को शुद्ध करता है। क्योंकि तुम्हारे रक्त में छल है, झूठ है, तुम्हारे रक्त में तुम्हारे पिता का दिया हुआ वह सब कुछ है जिस छल-झूठ-कपट-असत्य- व्यभिचार से तुम्हारे पिता ने जीवन को पार किया और हो सकता है कि तुम्हारे पिता को कोई गुरु नहीं मिला हो। ऐसा हो सकता है कि तुम्हारे पिता के जीवन का भाग्योदय नहीं हुआ हो। ऐसा हो सकता है कि उन्होंने जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा की हो और जीवन में उन्हें कुछ भी नहीं मिला हो इसलिये तुम्हारे पिता के साथ हुई, यह स्थिति तुम्हारे दादा के साथ हुई, यह स्थिति तुम्हारे पूर्वजों के साथ हुई। इसलिये हुई कि उन्होंने क्षण मात्र भी रूक कर सोचा नहीं कि मेरे जीवन का उद्देश्य और लक्ष्य क्या है? और यदि सोचा भी तो उनको गति और लक्ष्य का रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं मिला। इसलिये मैंने तुम्हें कहा कि जब कभी तुम्हारे जीवन में सौभाग्य उदय हो, जब कभी गुरु आकर के खड़े हो जायें इस पगडंडी पर कहीं मिल जाये। जीवन के किसी भी भाग में मिल जाये उस समय एक विस्फोट सा होगा, जब तुम उनके चरणों को पकड़ सको, वह एक क्रांतिकारी कदम होगा। जब तुम उनसे मिल सकोगे। वह जीवन की एक चिंगारी होगी। जब उनकी भावनाओं से तुम्हारे हृदय में एक रोशनी पैदा हो सकेगी और जब ऐसा हो सकेगा तो जीवन का एक अर्थ बनेगा, जीवन का एक चिंतन बनेगा। जीवन की एक विचारधारा बनेगी और इसीलिये उस दिन से तुम्हारा एक नया रास्ता बनेगा। उस दिन से तुम्हारा जीवन एक नई दिशा की ओर बढे़गा। उसी दिन से तुम्हारे जीवन का एक नवीन स्वर्णिम अध्याय शुरु होता है, प्रारम्भ होता है और वह जीवन मृत्यु की ओर नहीं जा सकता।
असतो मा सद्गमय् तमसौ मा ज्योर्तिमय मृत्योर्मा अमृतं गमय
मृत्यु से अमृत्यु की ओर जोने की क्रिया गुरु सिखाता है। मृत्यु का रास्ता तो तुम अपने आप ही सिखे हुए हो। मरघट में सोने की क्रिया तो तुम्हें स्वतः ही ज्ञात है। उस चिता पर कफन ओढ़ कर सोने की क्रिया तुम चाहो, नहीं चाहो लोग तुम्हें सुला ही देंगे। मगर मृत्यु से अमृत्यु की ओर जाने की क्रिया बिरले लोग ही सिखा सकते हैं। ऐसे लोग जो स्वयं ब्रह्म से साक्षात्कार कर चुके हों जो ब्रह्म से हट कर के आगे बढ़ते हुए पूर्ण अमृत्यु की ओर बढ़े हुए होते हैं। मृत्यु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, मृत्यु उनके सामने खड़ी नहीं हो सकती, मृत्यु के पंजे उनके ऊपर झपट्टा नहीं मार सकते, काल उनका अहित नहीं कर सकता। वह जीवन में अजेय बन सकता है। क्योंकि उनको उस तपस्वी के प्राणों से चिन्तन मिलता है। उनका सम्बन्ध उस चेतना से बनता है, उस प्राणश्चेतना से बनता है, उस सूर्य से बनता है जो हजार-हजार गुना प्रकाशवान है। जो केवल मनुष्य नहीं है वह ब्रह्म है, वह विष्णु है, वह साक्षात् शिव है। वह अपने आप में पूर्ण ब्रह्म है और पूर्ण ब्रह्म का अंश बनने की क्रिया जीवन की विशिष्टतम क्रिया है और विशिष्टतम् क्रिया के तुम अंग बन जाते हो और अंग बनना जीवन का एक श्रृंगार है। इसीलिये मैंने कहा कि तुम्हारे जीवन में एक स्टेज, एक स्थिति ऐसी आती है प्रत्येक के जीवन में आती है मगर अधिकतर लोग भूल जाते हैं मुझे यह व्यक्ति मिला, क्या यह गुरु बन सकता है? है कि नहीं? और अधिकतर लोग पाख्ंडियों के चक्कर में पड़ जाते हैं उन भगवे कपड़ों के चक्कर में पड़ जाते हैं। उन लम्बी जटाओं और दाढि़यों के बीच में फंस जाते हैं। वे गुरु नहीं बन सकते हैं वे ढोंगी हैं पाख्ंडी हैं, साधु नहीं हैं, संन्यासी नहीं हैं। उनके पास कुछ देने के लिये है ही नहीं, वे तो खुद भिक्षुक हैं, तुम से मांग रहे हैं। तुम से पैसे मांगेंगे, कपड़ा मांगेंगे, तुम से गुरु दक्षिणा मांगेंगे। ऐसे लोगों के पास कुछ देने के लिये नहीं होता। जिनके पास देने के लिये होता है वह अपने आप में अभीष्ट, अपनी स्थिति में होता है। क्योंकि वह जीवन का पाथेय होता है। हिमालय खुद पहुंच कर के किसी से प्रार्थना नहीं करता, हिमालय अपनी जगह पर अडिग है, हिमालय अपनी ऊंचाई पर अडिग है, अपने जीवन की पूर्णता पर अडिग है। क्योंकि वह जीवन का एक श्रृंगार है, पृथ्वी का एक श्रृंगार है।
पृथ्वी का नहीं देवताओं का श्रृंगार है और देवताओं के श्रृंगार पर पहुंचने से एक अपूर्व और अद्वितीय शांति प्राप्त होती है। एक अहसास होता है कि हम हिमालय के गर्भ में हैं। एक चिन्तन पैदा होता है, मन में पवित्रता का बोध पैदा होता है इसलिये की वो हिमालय हैं और ठीक यह स्थिति मनुष्य की बनती है। जब मनुष्य उस गुरु से मिलता है, उस गुरु से साक्षात्कार करता है। उस गुरु के पास पहुंचता है, उस गुरु के चिन्तन के पास पहुंचने की क्रिया करता है और सबसे बड़ी बात यह होती है कि उस गुरु के चरणों को पकड़ लेता है। जिसको पकड़ने से जीवन में उच्चता का रास्ता मिलता है और जब यह रास्ता मिलता है तब वह एक नवीन पगडंडी पर बढ़ जाता है। उस पगडंडी में जीवन के सारे क्रियाकलाप तो हैं और जीवन का लक्ष्य और चिन्तन भी स्पष्ट है। उनको मालूम हैं कि इस पगडंडी पर चलने से मरघट प्राप्त नहीं होगा। इस पगडंडी पर चलने से श्मशान प्राप्त नहीं होगा। इस पगंडडी पर मृत्यु झपट्टा नहीं मार सकेगी। इस पगंडडी पर काल की काली छाया नहीं पड़ सकेगी। यह पगडंडी उस स्वर्णिम प्रभात की ओर जाती है। जहां ज्ञान का प्रकाश फैलता है, वह पगंडडी वहां जाती है, जहां आत्मा में ब्रह्म चैतन्य पैदा होता है। यह पगडंडी वहां जाती है, जहां जीवन की पूर्णता, जीवन का अभीष्ट, जीवन का लक्ष्य होता है। यह पगडंडी वहां जाती है जहां आत्मा का परमात्मा से सम्बन्ध होता है और यह पगडंडी उस जगह पर जाती है जहां उपनिषद् कारों ने कहा है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं
हम शून्य हैं हमारे जीवन में कोई क्रिया नहीं है, हमारे जीवन में अभीष्ट और कोई लक्ष्य नहीं है। मैं तो एक मिट्टी का लोदा हूं। मुझे यह भी ज्ञात नहीं है कि मेरे जीवन का चिन्तन क्या है? और वह गुरु उस पगडंडी पर गतिशील करके यह समझा देता है कि इस पगडंडी पर तुम्हें गतिशील होना है, इस पगडंडी पर तुम्हें बढ़ना है। मगर ऐसी स्थिति में तुम भूल मत जाना कि तुम उनके पीछे रह जाओ, ऐसा नहीं हो तुम उनके पांवों को छोड़ दो। मौत बार-बार, काल चक्र बार-बार तुम्हारे विचारों को गतिशील करने की कोशिश करेगा। बार-बार समय तुम्हें इस रास्ते से भटकाने की कोशिश करेगा और वे शत्रु जो मृत्यु रूपी शत्रु हैं जो मृत्यु के पथ पर अग्रसर हैं, जो काल के ग्राम में खड़े हुए हैं। वे तुम्हारे मां-बाप के रूप में भी हो सकते हैं। भाई और बहन के रूप में भी हो सकते हैं, सगे और साथी के रूप में भी हो सकते हैं। वो सब बार-बार यही कहेंगे कि कहां जा रहे हो, क्या कर रहे हो? ये कौन सा रास्ता है? तुम्हें कमाना चाहिये, व्यापार करना चाहिये अपने जीवन में लक्ष्य प्राप्त करना चाहिये। चार संतान पैदा करनी चाहिये।
तुम्हारे मरने के बाद तुम्हें पानी कौन देगा और मैं पूछता हूं कि सूरदास को मरने के बाद पानी किसने दिया, कबीर के मरने के बाद पानी किसने दिया? वशिष्ठ के मरने के बाद पानी किसने दिया? विश्वामित्र को मरने के बाद उसको पानी उसके पुत्र ने नहीं दिया उनकी चेतनाओं ने दिया। उनको दिया उनके शिष्यों ने, उनको दिया उनकी जीवन की पूर्णताओं ने और जो पूर्णता प्राप्त कर सकता है और जो जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है वह अपने आप में ही पूर्ण होता है। वह श्राद्ध करने की क्रिया का चिन्तन नहीं करता, वह मृत्यु के स्थिति में नहीं है। उसके जीवन में मृत्यु आ ही नहीं सकती और वह जीवन की पूर्णता है और जहां जीवन की पूर्णता है वह अपने आप में जीवन की उच्चतम स्थिति है।
इसीलिये तो मैं कहता हूं कि तुम्हारे जीवन में ऐसे क्रांतिकारी क्षण आयेंगे, आते हैं। मगर उस समय तुम्हारे शत्रु भी तुम्हारे सामने खड़े होते हैं। वह शत्रु तुम्हारी पत्नी के रूप में आकर के खड़े होते हैं, वह शत्रु तुम्हारे पति के रूप में भी आकर खड़े हो सकते हैं, वह मां और बाप के रूप में आ सकते हैं। किसी सामाजिक स्वरूप में आ सकते हैं, आपके अभाव के रूप में आ सकते हैं, किसी भी रूप में शत्रु तो आकार खड़े होंगे ही। मनुष्य एक है पांच सौ शत्रु तुम्हारे बीच में खड़े हैं। मगर जो मर्द है, जो हिम्मतवान है, जो क्षमतावान है, जो साहसवान है, जो ताकतवान है वह उस पगडंडी पर मजबूती से पांव बढ़ाता है।
उसके पांव रूकते नहीं हैं। क्योंकि उसके साथ एक चेतना है, एक प्राण है, एक विचारधारा है। अपने आप में एक अडिग क्षण है जिस क्षण की अंगुली पकड़ कर उस मनुष्य की अंगुली पकड़ कर, उस गुरु की अंगुली पकड़ कर एक नई पगडंडी पर चलता है, उस पगडंडी को जीवन को चेतना कहा जाता है और उस पगडंडी पर हम जिसकी अंगुली पकड़ कर आगे चलते हैं, वह एक सामान्य मनुष्य नहीं है। वह जीवन की एक उच्चतम स्थिति, एक क्रिया है। वह जीवन का एक ऐसा रास्ता है, वह जीवन की ऐसी पूर्णता है जिसको शास्त्रों ने ‘पूर्णमदः’ कहा है। जिसे शास्त्रों ने गुरु कहा है, जिसे शास्त्रों ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश और शिवमय कहा है। जो वास्तव में ही समस्त शास्त्रों का सारभूत सत्य है। क्योंकि शास्त्रों ने न ब्रह्म की पूजा की, न विष्णु की, न रूद्र की, न शंकर की, न देवताओं की पूजा की। जहां शास्त्र हैं, जहां उपनिषद् हैं उन्होंने केवल गुरु की ही पूजा की और यदि गुरु की पूजा की तो वे जरूर ज्यादा चिन्तनशील थे। वे ज्यादा ज्ञानवान थे, वे समझ सकते थे इस मनुष्य को पूर्णता की ओर अग्रसर करने में कोई देवता साथ नहीं हो सकता। न वायु, न अग्नि, न देवता, न इन्द्र, न वरूण, न यम, न कुबेर और कुछ नहीं केवल एक मात्र गुरु ही जीवन को पूर्णता दे सकता है और बिना पूर्णता के इस जीवन का कोई अर्थ भी नहीं है, जीवन का कोई लक्ष्य भी नहीं है। इसीलिये में कहता हूं जहां अगर पूर्णता दिखाई दे, जहां तुम्हें गुरु दिखाई दें, जहां तुम उससे भेंट कर सको। तुम्हारा उद्देश्य केवल एक ही हो कि सब कुछ छोड़ कर तुम्हें उनके चरण पकड़ लेना है, उसमें लिपट जाना है। अपने आपको उसमें प्रतिबद्ध करना है। जिस प्रकार से बेल एक पेड़ को लिपट कर के एकाकार हो जाती है, जिस प्रकार सुगन्ध वायु के साथ एकाकार हो जाती है। ठीक उसी प्रकार से उस गुरु के प्राणों के साथ एकाकार होने की क्रिया तुम्हें करनी है और यदि ऐसी क्रिया कर सकोगे तो निश्चय ही जीवन का एक स्वर्णिम प्रभात प्राप्त कर सकोगे। जीवन का एक उद्देश्य प्राप्त कर सकोगे, एक नई पगडंडी पर बढ़ सकोगे पूर्णता की ओर जाती है, वह पगडंडी। वहां पहुंचती है जहां जीवन का अपने आप में अपूर्व अखण्ड आनन्द है।
ब्रह्मानन्दं परम सुखदम् केवलं ज्ञान मूर्तिं
द्वन्द्वानीवं गगन सदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सव्रधी साक्षीभूतं,
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तन्नमामि।।
वह अपने आप में समाधि की क्रिया है, जीवन की पूर्णता की क्रिया है, कल्याणमय क्रिया है। जिसके माध्यम से तुम हजारों हजारों लोगों को रास्ता दिखा सकते हो, हजारों-हजारों लोगों को आगे बढ़ा सकते हो। एक नया चिन्तन दे सकते हो, आगे बढ़ने वाले व्यक्तियों का मार्गदर्शन कर सकते हो। वास्तव में यह जीवन की पूर्णता है। इसीलिये मैं कहता हूं कि यह क्षण और ऐसा क्षण तुम्हारे जीवन में जब भी आये तुम उस क्षण को चूकना मत क्योंकि क्षण को चूकना जीवन को चूकना है। क्षण को चूकना मृत्यु का ग्रास बनना है, क्षण को चूकना काल की छाया में लिप्त हो जाना है और क्षण को चूकना अपने आप को जीवन भर के लिये चूकना है। इसीलिये मैं कह रहा हूं कि वह क्षण तुम्हारे जीवन का स्वर्णिम प्रभात है, वह क्षण जीवन का पाथेय है, वह क्षण तुम्हारे जीवन की श्रेष्ठता है। जिस क्षण को गुरु और शिष्य का पार्श्वमिलन कहा जाता है और यही जीवन की, तुम्हारे जीवन की, और तुम्हारे इस नारकीय जीवन की और तुम्हारे इस देहमय जीवन की एक अद्भुत आर्श्चजनक क्षण की स्थिति है। यह विस्फोट है तुम्हारी जिन्दगी का, तुम्हारे प्राणों का विस्फोट है, तुम्हारी चेतना का विस्फोट है और विस्फोट तुम्हारे जीवन में हो और इसलिये हो कि इस विस्फोट का आनन्द तुम्हारे पिता नहीं ले पाये, तुम्हारे दादा नहीं ले पाये, तुम्हारे परदादा नहीं ले पाये, तुम्हारे पूर्वज इस विस्फोट का आनन्द नहीं ले पाये और बिना विस्फोट के जीवन में पूर्णता नहीं आ सकती। बिना विस्फोट के जीवन में आनन्द और क्षण की स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती। जीवन का आनन्द तो शिष्य बनने में है, जीवन का आनन्द तो गुरु के चरणों को पकड़ने में है, जीवन का आनन्द तो उस छायादार पेड़ की तरह है जहां पेड़ के नीचे बैठकर एक अद्भुत आश्चर्यजनक अद्वितीय शांति मिलती है। उस शांति को, उस आनन्द को बिरले ही प्राप्त कर सकते हैं। इसलिये ‘शिष्य को भी बिरला ही कहा गया है।’ शिष्य को श्रेष्ठतम स्थिति कहा गया है और वह शिष्य तब बन सकता है जब उसमें एक चेतना पैदा हो। यह शिष्य की उस समय की स्थिति बनती है जब उसके सामने गुरु उपस्थित होते हो और वह समझ जाता हो, पहचान लेता हो और तुम्हारे जीवन में ऐसे गुरु प्राप्त होते हैं, ऐसे क्षण आते हैं इसीलिये मैंने कहा कि ‘जीवन को क्षण कहा गया है’ और वह जीवन का क्षण तुम्हारे जिन्दगी में कभी भी आ सकता है। हो सकता है पन्द्रह साल बाद आये या हो सकता है तुम्हारे बाल उम्र में आये। पर जब भी यह क्षण आये वह क्षण तुम्हारा है। वहीं जीवन का प्रारम्भ है। उसी समय से तुम अपने आप में ‘पुनर्जन्म’ लेते हो। इसलिये कहा गया है।
जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्विज उच्यते
जन्म से तो तुम शूद्र हो ही, शास्त्र कह रहे हैं जन्मना जायते शूद्र। जन्म तो शूद्र है ही क्योंकि शूद्र को उच्चता का कोई ज्ञान नहीं होता। मल-मूत्र का कोई ज्ञान नहीं होता, पवित्रता-अपवित्रता का कोई ज्ञान नहीं होता। तुम्हें भी ज्ञान नहीं है। मगर तुम्हें जब संस्कारित किया जाता है, जब तुम्हें दीक्षा दी जाती है, जब तुम गुरु के पास बैठते हो, जब गुरु तुम्हारे सिर पर हाथ रखता है, जब गुरु अहसास करता है कि यह मेरा शिष्य है और जब गुरु इस बात को स्वीकार करता है कि तुम मेरे शिष्य हो। द्विज उच्यते।
तब तुम्हारा दूसरी बार जन्म होता है। द्विज दूसरी बार जन्म होना है। वह जन्म तुम्हारे जीवन की सार्थकता है। पहला जन्म मृत्यु की ओर अग्रसर होता है, दूसरा जन्म अमृत्यु की ओर अग्रसर होता है। पहला जन्म विषय वस्तुओं की ओर अग्रसर होता है, दूसरा जन्म अपने जीवन की पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। पहला जन्म छल, झूठ, असत्य, व्यभिचार को जन्म देता है। दूसरा जन्म जीवन के आनन्द और पूर्णता की ओर, श्रेष्ठता की ओर, अद्वितीयता की ओर और उस स्टेज को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता है जिसको प्राप्त करने के लिये उच्चकोटि के संन्यासी और योगी, उच्चकोटि के साधु और चिन्तक, विचारक उस श्रेष्ठतम उस क्षण का इन्तजार करते रहते हैं। ऐसा जीवन में क्षण हो, ऐसा विस्फोट हो, ऐसे प्राणों में चेतना हो और जीवन में ऐसे प्राणों की चेतना जीवन का आनन्द और जीवन की श्रेष्ठ स्थिति, गुरु और शिष्य के पार्श्व मिलने में है। जब गुरु अपने आप को पूर्ण रूप से शिष्य के जीवन में, प्राणों में उतार देता है और शिष्य के प्राणों को पूर्ण रूप से अपने आप में आत्मसात् कर लेता है और आत्मसात् करने की क्रिया जीवन की श्रेष्ठतम क्रिया है और वह क्रिया तुम्हारे जीवन में बने, वह क्षण तुम्हारे जीवन में आये। उस क्षण को, उस विशिष्ट स्थिति को, उस जीवन के चिन्तन को तुम्हारे सामने साकार रूप से उपस्थित कर सके। ऐसा क्षण जीवन का मधुरतम, आनन्दायक, अद्वितीय, श्रेष्ठतम क्षण होता है और मैं सोचता हूं कि ऐसा क्षण तुम्हारे जीवन में जिस समय भी आयेगा, जिस समय भी तुम अपने मां-बाप, भाई-बहन, अपने पुत्र-पौत्र, बंधु-बांधव के उस चिन्तन को छोड़ करके एक क्षण सोंचोगे कि मुझे किस रास्ते पर बढ़ना है और उस पगडंडी पर वह क्षण जिस समय भी तुम्हें गतिशील कर सकेगा उस समय जीवन की पूर्णता की ओर अग्रसर हो सकोगे और यह जीवन की ओर पूर्णतः अग्रसर होने की क्रिया ठीक वैसी ही है जैसे नदी का अपने आप में समुद्र के अन्दर विलय हो जाने की क्रिया। नदी जब पहाड़ से निकलती है उसमें एक ही विचार एक ही चिन्तन, एक ही धारणा, एक ही ध्यान होता है कि मुझे तीव्रता के साथ उस समुद्र में विसर्जित हो जाना है और विसर्जित हो जाने की क्रिया में पहाड़ों की ओर से निकलती हुई बहुत तेजी से साथ गतिशील होती है और वह अपने आप में जाकर समुद्र में विलीन हो जाती है। अपूर्व अद्वितीय शांति प्राप्त हो जाती है। ऐसी शांति सिर्फ गुरु से ही मिलती है।
अब मैं शरीर के सम्बन्ध में कुछ कहूंगा और शरीर के बारे में जिन लोगों ने और शास्त्रों ने जो कुछ कहा उन शास्त्रकारों के पास उनका खुद का ज्ञान नहीं था। अभी-अभी तुम्हें कहा कि तुम नदी और मैं समुद्र हूं क्योंकि मैं तुम्हारा गुरु हूं, क्योंकि मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैंने तुम्हें शिष्यता दी है क्योंकि मैं इस बात को स्वीकार करता हूं, मैंने तुम्हें दीक्षा दी है। यह भी मैं स्वीकार करता हूं, मैंने तुम्हें जन्म दिया, अपना शिष्य बनाया है, तुम्हारे प्राणों में चेतना दी है, तुम्हें गुरु मंत्र दिया है और अगर जन्म दिया है तो जीवन का एक और उद्देश्य है कि तुम्हारा शरीर पूर्णतः विषैला है, तुम्हारे खून में कोई चेतना नहीं है, तुम्हारे खून में कोई शुद्धता नहीं है, तुम्हारे खून में पवित्रता है नहीं क्योंकि वह खून मेरा खून नहीं है। वह तुम्हारे पिता का खून है। वह तुम्हारे पिता का भी खून नहीं है, वह पिछली पच्चीस पीढ़ीयों का खून है, वह रक्त वैसा है तुम्हारी धमनियों में वैसा खून बह रहा है जिसमें झूठ, छल, कपट और असत्य के अलावा कुछ है ही नहीं और जब तुम, वह खून अपने आप में शुद्ध नहीं हो सकेगा। जब तक उस खून को शुद्ध नहीं कर सकेंगे तो उस जीवन का आनन्द ले नहीं सकोंगे और इसलिये दीक्षाओं के द्वारा तुम्हारे जीवन के उस खून को, उस रक्त को, उस जीवन के अन्दर के मल-मूत्र, छल, झूठ और कपट को दूर करना चाहता हूं और वह दूर हो सकता है ‘केवल गुरु मंत्र द्वारा’। क्योंकि उस गुरु मंत्र को जीवन की श्रेष्ठता कहा गया है। कठोपनिषद् में कहा गया है।
पूर्णत्वां पूर्ण मदेव रूपं गुरु मंत्र रूपं, परमेश्व देवं।
जीवन के सारे मंत्र-तंत्र-योग सब व्यर्थ हैं। उससे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। अगर कुछ प्राप्त हो सकता है तो जीवन की पवित्रता प्राप्त हो सकती है और वह जीवन की पवित्रता, वह जीवन की दिव्यता, वह जीवन की आत्मा का प्रकाश और आत्मा का विस्फोट ‘केवल गुरु मंत्र के द्वारा ही हो सकता है।’ इसलिये जब तुम्हें गुरु मंत्र दें, जब तुम्हें गुरुमुखी नाम दें। तब तुम्हें सतत् और निरन्तर गुरु मंत्र जाप करना है। गुरु मंत्र जाप करना कोई क्रिया नहीं है, गुरु मंत्र जाप करना तुम्हारे पूर्ण नस-नाडि़यों को संवेदनशील बनाना है, गुरु मंत्र जाप तुम्हारे अन्दर के छल, झूठ, कपट को निकालने की क्रिया है, गुरु मंत्र जाप तुम्हारे रक्त को शुद्धता देनी की क्रिया है और सही अर्थों में कहा जाये तो गुरु मंत्र जाप उस पगडंडी पर गतिशील होने की क्रिया है। जिस पगडंडी पर चल कर के तुम मृत्यु से अमृत्यु की ओर गतिशील हो सकते हो और इसलिये मैंने कहा कि मैं अपनी बाहें फैलाये हुए तुम्हारे पास खड़ा हूं। जिस तरह से समुद्र अपने पूर्ण वक्षस्थल को फैलाये हुए उन नदियों का स्वागत करने के लिये खड़ा है और नदी पहाड़ों से नीचे उतरती है टकराती हुई, ठोकरें खाती हुई, पछाड़ खाती हुई, ऊपर से गिरती हुई, घसटती हुई, गांव को उजाड़ती हुई क्योंकि उसमें एक वेग है, एक चेतना है, एक गतिशीलता है, उसकी एक भावना है, एक चिन्तन है और तेजी के साथ बढ़ती है और वहीं से बढ़ती है जहां से प्रारम्भ हुई है। क्योंकि समुद्र में जब गर्मी पैदा होती है, सूर्य की प्रखर किरणें पड़ती है जब उसमें से भाप बनती है और भाप ऊपर उठती हुई बादल बनते हैं। मगर वह बादल बनने के बावजूद भी, वह बादल जानता है, बादल में वह जो बूंद है उसे यह स्मृति है कि मैं समुद्र की बूंद हूं। मेरा कोई चारा नहीं है, क्योंकि उसको चारों तरफ से हवा घेरे हुए है और वह निरन्तर डावां-डोल सी हवाओं के साथ भटकती रहती है। भटकती हुई, पछाड़ा खाती हुई, चलती हुई, दौड़ती हुई उसका कोई रास्ता नहीं है। उसका कोई लक्ष्य नहीं है, उसको पता ही नहीं है वो कहा है और ठीक बीच में उनको मिल जाते हैं गुरु, एक पहाड़ एक हिमालय और उससे टकराती है टकराती है तो विस्फोट हो जाता है और वह बादल अपने आप में वापिस बूंद के रूप में बदल जाता है। परिवर्तित हो जाती है, वापिस अपने मूल स्वरूप में आ जाती है। जिस मूल स्वरूप से निकली थी और मूल स्वरूप में आती और आने के बावजूद भी वह भूलती नहीं है कि मैं, मेरा जन्म, मेरा अंश, मेरा मूल स्वरूप कहां है। मैं कहां से प्रारम्भ हुई हूं और वह आगे की ओर गतिशील होती है।
मगर उसके बीच में सैकड़ों बाधाऐं, सैकड़ों अड़चनें हैं, सैंकड़ों कठिनाइयां हैं, सैकड़ों बीच में रोड़े हैं, पत्थर हैं, नदियां हैं, नालें हैं, उसके बीच में खड़े हैं, उसके बीच में सैकड़ों रूकावटें हैं, बाधाएं हैं, अड़चने हैं, परेशानियां हैं मगर वो रूक नहीं सकती क्योंकि उसको अपना अभीष्ट लक्ष्य याद है और निरन्तर दौड़ती हुई, बूंद से बूंद मिलती हुई अपने जीवन को चेतना देती हुई बराबर आगे बढ़ती रहती है। उसके बीच में पशु भी आ जाये तो परवाह नहीं है, उसके बीच में मनुष्य आ जाये तो भी परवाह नहीं है, गांव के गांव बहा देती है और बहुत तेजी के साथ बढ़ती हुई, निरन्तर बढ़ती रहती है और जिस क्षण वह समुद्र में मिल जाती है, उसको अपूर्व शांति मिल जाती है। अद्वितीय आनन्द की अनुभूति होने लग जाती है, एहसास होने लग जाता है कि जहां से मैं निकली हूं, वहां वापस आकर मिल गई हूं और जहां मिल गई वहां मैं अपने आप में पूर्ण बन गई।
तुम मेरे शिष्य हो, तुम मेरे प्राणों का अंश हो, तुम मेरे प्राणों की चेतना हो। तुम्हारा जन्म पहली बार नहीं हुआ है इससे पहले भी, पिछले जन्म में भी तुम मेरे शिष्य थे और उसके पहले जन्म में भी तुम मेरे शिष्य ही थे। मैं तुमसे बहुत अच्छी तरह से परिचित हूं, तुम शायद मुझसे परिचित नहीं हो, तुम शायद मुझे नहीं जानते हो, तुम शायद मेरे जीवन को नहीं पहचान सकते हो। मगर मैं तुम्हारे पुराने पच्चीस जन्मों का साक्षी हूं। क्योंकि बुद्ध के बाद में मैं अपने पच्चीसों वर्षों का साक्षीभूत स्वरूप रहा हूं। इन पच्चीसों वर्षों में तुम कम से कम पच्चीस बार मेरे सामने आये हो, पच्चीस बार मैंने तुम्हें पहिचाना है, पच्चीस बार मैंने तुम्हें ललकारा है, आवाज दी है, चेतना दी है। तुम जिस पथ पर गतिशील थे, पगडंडी पर चल रहे थे, मैंने तुम्हें रोका है क्योंकि मेरा उद्देश्य, मेरा लक्ष्य था। तुम भटक रहे हो, उस बादल की तरह, जिसका कोई आधार नहीं है, तुम्हें उस हिमालय से टकराना है। मैं खड़ा हूं हिमालय की तरह, तुम मुझसे टकराओंगे तो एक बूंद बन सकोंगे। मगर बीच में सैकड़ों हवाएं, मां-बाप, भाई-बहन, पत्नी, पुत्रों के रूप में ये हवायें तुम्हें फिर उस हिमालय से टकराने के पहले, दूसरी ओर भटका देती है। एक ऐसी जगह भटका देती है जहां रेगिस्तान हो और जब रेगिस्तान में बूंद गिर जाती है तो उस रेत में वह बूंद गिर कर के अपने आप को समाप्त कर देती है। काल के ग्रास में समा जाती है और तुम्हें मैं यह कह रहा हूं कि यह रास्ता तुम्हारा नहीं है। तुम मेरी तरफ आओ। तुम्हें मेरे से टकराना है। जब तुम मेरे से टकराओंगे, तब मैं तुम्हें बूंद बना सकूंगा।
इसलिये मैंने तुम्हें कहा कि मैं तुम्हारे पिछले पच्चीस जीवन का साक्षी हूं। बुद्ध के बाद पहली बार तुम्हें वापिस नहीं देखा है। बुद्ध के बाद तो पच्चीस जन्म बीत चुके हैं, पच्चीस सौ वर्ष बीत चुके हैं। और पच्चीस सौ वर्ष में तुम्हारा पच्चीस जीवन का इतिहास मेरे सामने साकार खड़ा है और तुमने जिस बार, जितनी बार भी जन्म लिया है। हर बार तुम्हें ललकारा है, हर बार तुम्हें आवाज दी है, हर बार तुम्हें चेतना दी है, हर बार तुम्हें ज्ञान और प्राणश्चेतना दी है, हर बार तुम्हें शिष्य बनाया है, हर बार तुम्हें समझाया है कि तुम्हें उस ओर गतिशील होना है जिस तरफ हिमालय है और तुम रेगिस्तान में जाकर गिर जाते हो। कभी तुम पत्नी के मोह में गिर जाते हो, कभी तुम पुत्र के मोह में गिर जाते हो, कभी तुम जैसलमेर के रेगिस्तान में जाकर गिर जाते हो, कभी तुम अफ्रीका के जंगलों में जाकर गिर जाते हो और वह गिर जाना मृत्यु के ग्रास में जाना है। वह गिर जाना कुछ भी प्राप्त नहीं हो जाना है, वह गिर जाना जीवन की श्रेष्ठता नहीं है। टकराना और उस हिमालय से टकराना ही जीवन की पूर्णता है इसलिये जब मैं तुम्हें आवाज देता हूं तब मुझे मालूम है तुम्हारे जीवन का लक्ष्य और पगडंडी कौन सी है। उस पगडंडी में तुम्हें गतिशील करता हूं और इसलिये मैं कह रहा हूं कि तुम्हें अपने जीवन मे रूकना नहीं है, तुम्हें अपने जीवन में एक क्षण भी विचार नहीं करना है। क्योंकि जीवन बहुत छोटा-सा बच गया है और पगडंडी बहुत लम्बी है। हिमालय से पूरे समुद्र तक की यात्रा, उस गंगोत्री से समुद्र नहीं मिल सकता क्योंकि तुम अगर धीरे-धीरे चलोगे तो बीच में कही छूट जाओंगे और अगर वह नदी बीच में कही छूट गई तो उस नदी का, उस जीवन का कोई महत्व नहीं है। नदी के जीवन की पूर्णता तो समुद्र में विसर्जित हो जाने की क्रिया है। तभी तो वह पूर्णता प्राप्त कर सकेगी और इसलिये मैं कह रहा हूं कि तुम्हें धीरे-धीरे नहीं चलना है। तुम्हें बहुत तेजी के साथ बढ़ना है और उस तेजी के साथ बीच में जितने भी कंकड़ आयें, पत्थर आयें, धोखें हो, पहाड़ हो, छोटी-छोटी पगडण्डियां हों, झरने हों जो कुछ भी हैं वे बाधाएं आज भी तुम्हारे सामने हैं। उन बाधाओं को पार करते हुए तुम जब गतिशील बनोगे, उन बाधाओं को पार करते हुए नदी जब समुद्र की ओर गतिशील होगी और जब तुम बढ़ोगे और जिस क्षण तुम अपने आप में आत्मसात् कर सकोगे। तब तुम वापिस मेरे अंश से पैदा हो करके, वापिस मेरे अंश में पूर्णता प्राप्त कर सकोगे और यह जीवन का लक्ष्य, जीवन का आनन्द, जीवन की चेतना है।
इसलिये मैं उस प्रकार का गुरु नहीं हूं जो केवल उपदेश देना चाहता है। मैं उस प्रकार का गुरु भी नहीं हूं जो भगवे कपड़े पहिन कर घूमना चाहता है। मैं उस प्रकार का गुरु भी बनना नहीं चाहता कि मेरे पीछे हजारों-हजारों शिष्य भटके। मैं तो खुद भटके हुओं को बिल्कुल सही रास्ता दिखाने के लिये तटस्थ खड़ा हूं। इसीलिये मैं कह रहा हूं कि तुम भटक रहे हो। इसलिये बता रहा हूं कि तुम्हारे मेरे सम्बन्ध प्रेम के सम्बन्ध हैं, आत्मा के सम्बन्ध हैं, प्राणों के सम्बन्ध हैं। क्योंकि तुम मेरे भाई नहीं हो, तुम्हारा मेरा शारीरिक सम्बन्ध तो है ही नहीं। ना तुम मेरे बेटे हो, ना तुम मेरे पिता हो, ना तुम मेरे भाई, ना तुम मेरी बहन हो, मेरा तुम्हारा सम्बन्ध तो है ही नहीं। तुम मेरे प्राणों के एक अंश हो, तुम मेरे प्राणों के अंशीभूत स्वरूप हो और जब तुम प्राणों के अंशीभूत स्वरूप हो और जब तुम्हें मैं भटकते हुए देखता हूं, और जब मैं देखता हूं कि तुम रेगिस्तान की ओर जाती हुई एक बूंद हो तब मुझे तुम्हें आवाज देनी पड़ती है। तब तुम्हें याद और स्मरण कराना पड़ता है और तुम एक क्षण रूक कर के सुनते भी हो, हर बार तुमने सुना है, हर बार तुमने एहसास किया है मगर फिर तुम उस हवा के साथ बहकर के उस रेगिस्तान में जाकर मिल जाते हो और सूख जाते हो, समाप्त हो जाते हो और एक बार फिर मैं सोचने लग जाता हूं कि यह बूंद क्यों नहीं समझ रही है कि हिमालय से टकारने में ही जीवन का आनन्द है। पूर्णता की ओर अग्रसर होने में ही आनन्द है। मगर हर बार यह बूंद रेगिस्तान में गिरी है। हर बार यह बूंद मृत्यु की ग्रास बनी है। इस बार मैं ऐसा नहीं होने दूंगा, इस बार यह क्रिया वापिस नहीं होगी, इस बार तुम मेरी अंगुली नहीं पकड़ रहे हो, मैं तुम्हारा हाथ पकडूंगा। इस बार मैं तुम्हें बता सकूंगा कि तुम्हारे जीवन का रास्ता यह है और इस बीच में जो भी अड़चन, जो भी बाधाएं, जो भी कांटे, जो भी पथरीला रास्ता या जो भी कठिनाइयां आयेंगी, मैं उसका सामना करते हुए, तुम्हें अपने साथ ले जाऊंगा। क्योंकि ये बार-बार का पैदा होना, बार-बार का मरना तुम्हारे जीवन की आनन्द और चेतना नहीं है और अगर ऐसा बार-बार हो रहा है तो मुझे तुम्हें एक बार में ही पूर्णता प्राप्त करने की क्रिया समझानी पडे़गी है और समय कम है।
इसलिये मैं पहली बार तुम्हें एक नवीन चेतना, नवीन ज्ञान और नवीन भावना दे रहा हूं तुम्हें इस बार रूकना नहीं है, इस बार मोह में पड़ना नहीं है, इस बार जीवन में अपने आप को पहिचानना है, इस बार तुम्हें रेगिस्तान की ओर भटकना नहीं है, पहाड़ से नहीं टकराना है हिमालय से टकराना है और इस बार मैं तुम्हें इन रास्तों पर भटकने नहीं दूंगा। क्योंकि इस बार मैं खुद तुम्हारे पूर्ण रक्त को अपने आप में शुद्ध करने की क्रिया करना चाहता हूं और करूंगा और कर रहा हूं। इसलिये की पहली बार मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा है, पहली बार मैंने तुम्हें अपनी ओर खींचा है, पहली बार तुम्हें अपने जीवन की ओर अग्रसर करने की पूर्ण कोशिश की है क्योंकि पच्चीस जीवन तुम्हारे, मेरे सामने बिखरे हुए पड़े हैं। पच्चीस बार मैंने तुम्हें, तुम्हारे ऊपर मृत्यु को झपट्टा मारते हुए देखा है और पच्चीस जन्मों में मैंने तुम्हें पांच सौ बार आवाज दी है और मैं समझ रहा हूं कि तुम बहरे हो, तुम मेरी आवाज सुन नहीं पा रहे हो। तुम सुन कर के अनसुनी कर देते हो। क्योंकि चारों तरफ दूषित हवायें, बाधाएं, अड़चने, कठिनाइयां तुम्हें जीवन में आनन्द प्रदान करने की ओर अग्रसर नहीं कर रही हैं।
इसलिये अब बार बार यह क्रिया नहीं होगी आज मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि गलती सुधारी जा सकती है और उस गलती को सुधारना मेरा कर्त्तव्य है क्योंकि तुम मेरे प्राणों के अंश हो, तुम जैसे भी हो पच्चीस जन्मों से संभाल रहा हूं आगे भी संभालता रहूंगा, मैं तुम सब को पूर्ण आशीर्वाद देता हूं जीवन में पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाली नदी बनो और मुझमें समा जाओ।
सद्गुरुदेव स्वामी निखिलेश्वरानन्द परमहंस।
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,