जीवन में व्यवहृत होने के एक शब्द जो केवल शब्द ही नहीं रह जाता वरन जीवन की एक अत्यावश्यक स्थिति बन जाता है, वह होता है- ‘सहजता’। प्रत्येक व्यक्ति वास्तव में अपने जीवन में एक सहजता की स्थिति को ही खोज रहा होता है। यह हो सकता है, कि भिन्न-भिन्न सामाजिक स्थितियों या मानसिक स्तर के साथ-साथ सहजता की स्थितियों को परिभाषित करने में भेद हो, किन्तु मूल स्थिति तो सहजता को प्राप्त करने की ही होती है। यहां तक कि मनुष्य प्रायः जो अपराध कर बैठता है, उसके मूल में जाकर यदि सूक्ष्मता से विवेचन किया जाए, तो वहां भी प्रायः किसी सहजता को प्राप्त करने की ही चेष्टा होती है। जीवन में सहजता को प्राप्त करना मनुष्य का मूल स्वभाव है, क्योंकि सहजता के माध्यम से ही सरसता की स्थिति उत्पन्न होती है।
सम्मान, सुरक्षा, निश्चिंतता, किसी आशंका से सर्वथा मुक्त होना जैसी कुछ स्थितियां वास्तव में सहजता की स्थिति के ही कुछ उपभेद हैं। व्यक्ति जो परिश्रम करके धनोपार्जन करता है, उसके मूल में केवल भरण-पोषण करना ही नहीं होता है, वरन् व्यक्ति अपने भावी जीवन को सुरक्षित करने का भी तो प्रयास कर रहा होता है। इसके लिए जो कुछ उसको प्रारब्ध-वश मिला होता है, प्रयासरत रहना तो सूचक होता है, कि जीव सही अर्थो में मनुष्य का है। स्वप्न देखना इस बात का प्रमाण होता है कि वह हताश के उस गर्त में नहीं गिरा है, जिसमें गिरने के बाद सभी सम्भावनाएं समाप्त होती हैं—
किन्तु व्यक्ति के अधिकांश स्वप्न उसके लिए दिवास्वप्न बनकर ही रह जाते हैं और वह आशा-निराशा के एक विचित्र से जाल में उलझता-सुलझता, हर्ष और विषाद में डूबता-उतरता अपनी गति पर ही कुठाराघात कर लेता है। जीवन में मनोवांछित रूप में परिवर्तन हो और निश्चित रूप से ही, इस धारणा को लेकर जब भी साधनात्मक बल का आश्रय लेने की बात सामने आती है, तो साबर साधनाओं का महत्व निर्विवाद रूप से सर्वोपरि हो जाता है, क्योंकि साबर साधनाएं बिना किसी लाग लपेट के जीवन के छोटे-छोटे पक्षों को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ती हैं। जिस प्रकार साबर मंत्रों की रचना में कोई आडम्बर नहीं होता, उसी प्रकार उनकी विषय वस्तु में भी कोई आडम्बर नहीं होता है। यदि पौरूष प्राप्ति की साधना है, तो पौरूष प्राप्ति की ही साधना है, यदि लक्ष्मी को खींच कर लाने की साधना है, तो वहां लक्ष्मी को खींच लेने की ही साधना है। फिर वहां किसी भक्ति या किसी आध्यात्मिकता का कोई मुलमा नहीं है, गिड़गिड़ाने या हाथ जोड़ने की कोई बाध्यता नहीं है।
साबर साधनाएं मूल रूप से गृहस्थों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर रची गई साधनाएं है। इसी कारणवश किसी जटिलता या कर्मकांड से सर्वथा मुक्त होती हुई किसी भी साधक के लिए सहज ग्राह्य है। आगे की पंक्तियों में जीवन की सहजता को ध्यान में रखते हुए ऐसी साधनाएं प्रस्तुत की जा रही हैं, जो सीधे उन पक्षों को स्पर्श करती हैं, जिन पक्षों में कोई अभाव या न्यूनता रह जाने पर जीवन शुष्क और नीरस होने लग जाता है। यद्यपि इस बात की कोई सीमा रेखा नहीं बांधी जा सकती, कि किसी का जीवन किस प्रकार से सहज होगा।
यूं तो कोई भी साधक या साधिका किसी भी साबर साधना को पूरे वर्ष भर में कभी भी, किसी भी शुक्रवार की रात्रि में, बिना किसी मुहूर्त या तिथि का विचार किए सम्पन्न कर सकता है, किन्तु शिवरात्रि से लेकर चैत्र नवरात्रि के मध्य का काल इन साधनाओं को सम्पन्न करने का विशिष्ट अवसर होता है, क्योंकि यह ‘तंत्र माह’ होता है, जो एक छोर पर भगवान शिव से तथा दूसरे छोर पर शक्ति से सम्पर्कित होने के कारण अद्भुत रूप से चैतन्य हो जाता है। भगवान शिव व आद्या शक्ति मां जगदम्बा के ही सम्मिलित रूप गुरुदेव से प्राप्त कुछ विशिष्ट साधनाएं इस प्रकार से हैं।
जीवन में सभी सुख उपलब्ध हों, किन्तु प्राण शक्ति ही निर्बल हो अथवा शरीर दुर्बल हो तो किसी भी सुख का उपभोग नहीं किया जा सकता। अतः जीवन में धन सम्पत्ति से भी प्रथम जो आवश्यकता होती है, वह यही होती है कि यदि पुरूष है, तो वह पौरूष से भरा हो और स्त्री है, तो स्त्रीतव की आभा से परिपूर्ण हो। साबर साधनाओं के क्षेत्र में इससे सम्बन्धित एक लघु प्रयोग है, जिसे साधक उपरोक्त वर्णित तंत्र माह के किसी भी दिवस पर अथवा किसी भी शुक्रवार की रात्रि में दस बजे के पश्चात् सम्पन्न कर सकता है।
साधक पीले रंग की धोती पहन, पीले ही रंग के आसन पर, दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके बैठें। गुरु पीताम्बर ओढ़े ले तथा तेल का एक बड़ा दीपक जला ले। अपने सामने किसी पात्र में एक ‘तांत्रोक्त नारियल’ स्थापित कर उस पर सिन्दूर से टीका लगाए व कुछ अक्षत छिड़कर आधे घंटे तक निम्न मंत्र का जप करें।
जीवन में धन-निःसंदेह एक अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, किन्तु धन के साथ सहजता व सरसता की स्थिति तभी निर्मित होती है, जब एक ओर जहां खुले हाथों से व्यय करने की स्थिति हो, वहीं निरन्तर किसी न किसी स्त्रोत से जितना खर्च किया है उसका दुगना धनागम भी होता रहे।
साबर साधनाओं में वर्णित एक साधना ऐसी ही स्थिति को सुनिश्चित करने को कहता है, जिसे साधक तंत्र माह के किसी भी दिवस की अथवा किसी भी शुक्रवार की रात्रि में सम्पन्न कर सकते हैं। पीले रंग के वस्त्र पहन कर, पीले आसन पर बैठ कर किए जाने वाले इस प्रयोग के लिए साधक के पास ‘आठ गोमती चक्र’ आवश्यक सामग्री के रूप में होने चाहिए। साधक उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठे तथा किसी ताम्र पात्र में कुंकुंम व तीली की सहायता से निम्न अंकन को अंकित कर सभी गोमती चक्र उस आकृति के मध्य में रख दें। सभी गोमती चक्रों का पूजन कुंकुंम व अक्षत से कर, शुद्ध घी का एक बड़ा सा दीपक जलाकर आधे घंटे तक निम्न मंत्र का जप करें।
यह एक दिवसीय साधना है, जो स्वयं दारिद्रता नाशक प्रयोग भी है। प्रयोग के अगले दिन सभी गोमती चक्र को किसी नदी, सरोवर या कुंए में विसर्जित कर दें।
किसी भी व्यक्ति के जीवन में शत्रु की उपस्थिति एक ऐसा अभिशाप होती है, जिसके कारण जीवन की सभी सहजताएं अपना अर्थ खो देती हैं। इस युग की प्रवृत्तियां इस प्रकार से दूषित हो चली हैं, कि भले ही व्यक्ति अपने आप में शांत हो, सौम्य हो किन्तु उससे अनायास बैर ठानने वालों की कोई कमी नहीं होती।
जीवन में शत्रु की उपस्थिति न रहे चाहे वह शारीरिक हो या अशारीरिक अर्थात् यदि कोई भी अनायास पीड़ा या क्लेश देता है, तो वह अपने स्थान पर शांतचित हो जाए। इसके लिए साबर मंत्रों के क्षेत्र में एक विलक्षण साधना प्राप्त हुई है जिसको सम्पन्न करते-करते ही शत्रु अपनी शत्रुता को भूल स्वयं ही क्षमायाचना के भाव से सम्मुख उपस्थित होता ही है।
इस साधना को सम्पन्न करने के इच्छुक साधक या साधिका को चाहिए कि वह एक ‘सिरकारा’ प्राप्त कर साधना के दिवस में अपने सामने रखे तथा सफेद धोती पहन दक्षिण दिशा की ओर मुखकर तेल का एक बड़ा सा मिट्टी या आटे का दीपक जला कर निम्न मंत्र का एक घंटे तक सतत् जप करे। यह रात्रिकालीन एक दिवसीय साधना है तथा इसमें किसी अन्य विधि-विधान की आवश्यकता नहीं है।
मंत्र जप के पश्चात् तेल के दीपक को फूंक मारकर बुझा दें तथा उसी समय या अगले दिन प्रातः ही सिरकारा को घर से दूर दक्षिणा दिशा में फेंक दें तथा हाथ पांव धोकर विश्राम करें। अगले दिन उस बुझे हुए दीपक को कही एकांत में गाड़ दें। इस प्रकार से कितना भी उग्र शत्रु क्यों न हो, वह शनैः शनैः स्वतः ही निस्तेज होता हुआ विनाश को प्राप्त हो जाता है।
प्रेम स्वयं में हृदयपक्ष का एक प्रस्फुटन होता है। जिसने जीवन में कभी प्रेम ही न किया हो, उसका न तो अन्तर्मन खुल सकता है और न उसमें कभी उल्लास व उमंग की ताजी स्वच्छ शीतल वायु का प्रवेश हो सकता है, किन्तु यह स्थिति तब दुखद हो जाती है, जब प्रेमी व प्रेमिका के मध्य किसी कारण से कोई विलगाव की स्थिति आ जाए अथवा संदेह के कारण किसी गलतफहमी का कोई बीज पड़ जाए या किसी अन्य कारण से प्रेम में सफलता न मिल कर सम्बन्ध टूटने की स्थिति आ गई हो।
जीवन में दुर्भाग्यवश ऐसी कोई स्थिति आ जाए, तो उसका समय रहते निराकरण अवश्य ही कर लेना चाहिए, क्योंकि जो प्रेम में हार जाता है वह सारा जीवन हार जाता है। जीवन के इस पक्ष को स्पर्श करता जो साबर प्रयोग प्राप्त होता है उसमें साधक या साधिका के पास एक ‘कलमाद माला’ होनी आवश्यक कही गई है, जिसे गले में डालकर मंत्र जप करने से सफलता की संभावनाएं एकदम से कई गुना बढ़ जाती हैं।
उपरोक्त तंत्र माह के किसी भी दिवस की रात्रि में गुलाबी वस्त्र पहन कर, पीले रंग के आसन पर बैठें और दोनों हथेलियां में कोई भी इत्र (अधिक उचित रहेगा कि हीना का इत्र प्रयोग करें) मलकर उसमें माला को रगड़ें और उसे गले में पहन कर निम्न मंत्र का एक घंटे तक जप करें। अन्य किसी विधान की इस साधना में कोई आवश्यकता नहीं है।
मात्र एक दिवसीय इस अत्यधिक तीव्र साधना के अगले दिन माला को किसी नये हरे रंग के एक रेशमी वस्त्र में लपेट कर कुछ मिठाई व फूल के साथ चुपचाप किसी मजार पर पूरे सम्मान के साथ भेंट चढ़ा दें, तो शीघ्र ही मनोनुकूल स्थितियां निर्मित होने लग जाती हैं।
जीवन में जहां कोई व्यक्ति शत्रु हो वहां यह फिर भी सहज होता है, कि उससे मुक्ति प्राप्त कर ली जाए, किन्तु जहां स्वयं अपने ही परिवार के किसी पूर्वज की दुरात्मा के कारण विविध परिस्थितियां शत्रु बनकर खड़ी हो जाती हों, वहां व्यक्ति को समझ में ही नहीं आता कि उनसे किस प्रकार से छुटकारा पाया जाए? सहयोगियों के मध्य अनायास ही वैरभाव उत्पन्न हो जाना, अकारण ही बार-बार चित्त का विभ्रमित हो जाना, सदैव यह भय लगना कि कोई उसके विरूद्ध षड़यंत्र रच रहा है, घर में कलह की स्थिति बने रहना, जैसी अनेक परिस्थितियां होती हैं जहां व्यक्ति की बुद्धि ही स्तम्भित हो जाती है, कि इन बातों का विरोध करें भी तो कैसे करें?
और ऐसी स्थितियों में बुद्धि, चातुर्य का कोई विशेष प्रयोजन रह भी नहीं जाता है। ऐसी ही स्थितियों में जिस बल का सहारा लेना चाहिए, वह होता है- साधनात्मक बल और साबर साधनाओं के क्षेत्र में इन स्थितियों के सम्बन्ध में भी एक लघु साधना प्राप्त होती है, जो जीवन की अनेक अड़चनों को इस प्रकार से समाप्त कर देती है, मानों उनका कभी अस्तित्व ही न रहा हो।
इस साधना को सम्पन्न करने के इच्छुक साधक को चाहिए कि वह मंगलवार को प्रातः 5-6 बजे के मध्य अपने समक्ष किसी लाल रंग के वस्त्र पर ताम्रपात्र में एक ‘सत् शांति गुटिका’ को तुलसी दल के साथ चावलों की ढेरी पर स्थापित करें तथा स्वयं भी लाल रंग की धोती पहन कर, लाल रंग के आसन पर बैठ, तेल का एक बड़ा सा दीपक जलाकर गुड़ का भोग सत् शांति गुटिका पर अर्पित करें। फिर निम्न मंत्र का एक घंटे तक जप करें।
अगले दिन सत् शांति गुटिका व तुलसी दल को कुछ धन के साथ या तो किसी को भिक्षा में दे दें या कहीं निर्जन स्थान पर रख दें। गुड़ का भोग सभी परिवार के सदस्यों के मध्य बांट दें व स्वयं भी ग्रहण करे तथा चावलों को पक्षियों को चुनने के लिए किसी स्वच्छ स्थान पर बिखेर दें। इस प्रकार से जीवन में सुख, शांति व निर्विघ्नता का एक अध्याय प्रारम्भ होता है।समाज में लोकप्रियता व सम्मान हेतु लोकप्रियता व सम्मान प्राप्ति की स्थिति एक ऐसी दशा होती है, जो न केवल व्यक्ति के स्वाभिमान को संतुष्ट कर उसकी क्रियाशीलता में वृद्धि करती है, वरन् इसी के माध्यम से व्यक्ति व्यर्थ के अनेक द्वंद्वों से मुक्ति प्राप्त कर अपने जीवन को सहज, निष्कंटक और तनाव रहित बनाते हुए अनेक महत्वपूर्ण लक्ष्यों की ओर अग्रसर हो सकता है।
इसके लिए जो आवश्यक होता है वह यही होता है कि व्यक्ति में किसी दैवीय आभा व चेतना का भी समावेश हो और साधनाएं सही अर्थों में दैवीय चेतना का ही रूप होती हैं। साबर साधनाओं के क्षेत्र में एक लघु साधना प्राप्त होती है जो वस्तुतः तेजस्विता की ही साधना है और व्यक्तित्व में तेजस्विता ही उस सम्मोहन का आधार होती है जो सम्मोहन, सम्मान प्रदान करने एवं लोकप्रिय बनाने में सहायक होती है।
इस साधना को भी साधक तंत्र माह के किसी भी दिवस अथवा किसी भी शुक्रवार की रात्रि में सम्पन्न कर सकता है। इसके लिए उसके पास ‘तेज आभी विग्रह’बाहु आवश्यक उपकरण रूप में होनी अनिवार्य होती है। साधक या साधिका पीले वस्त्र पहन कर, उत्तर दिशा की ओर मुंह करके, पीले या सफेद आसन, पर बैठे तथा सामने किसी स्वच्छ पात्र में तेज आभी विग्रह को रख उस पर दृष्टि को केन्द्रित करते हुए आधे घंटे तक निम्न मंत्र का जप करें। इसमें आवश्यक तथ्य यह है कि सम्पूर्ण मंत्र जप के काल में विग्रह पर ध्यान केन्द्रित रहे।
यह भी मात्र एक दिवसीय साधना है। साधना के पश्चात् विग्रह बाहु को काले धागे में डाल कर गले में धारण कर ले। और एक माह पश्चात् उसे किसी शिव मंन्दिर में भेंट चढ़ा दें। अतः चाहें तो आगे भी धारण किए रह सकते हैं। यदि उपरोक्त साधना किसी स्त्री या पुरूष विशेष को अपने अनुकूल बनाने की भावना से कर रहे हों, तो किसी कागज पर काजल से उस स्त्री या पुरूष का नाम लिखकर उसके ऊपर विग्रह बाध कर मंत्र जप सम्पन्न करें।
प्रत्येक व्यक्ति अपने ही ढंग से अपने जीवन को सम्पूर्ण करने की भावना रखता है। यहां मुख्य रूप से उन स्थितियों का वर्णन एवं साधना प्रस्तुत की गयी है, जो किसी के भी जीवन में नितांत अनिवार्य स्थिति होती हैं। होलिका दहन की रात्रि, दीपावली अथवा ग्रहण का अवसर ऐसा सिद्ध मुहूर्त होता है, जब किसी साबर मंत्र को मात्र 1008 उच्चारण कर उस मंत्र में सिद्धि की प्राप्त की जा सकती है।
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