मकर संक्रान्ति का जो पर्व है, वह संक्रान्ति अन्य सभी संक्रान्तियों से अलग है क्योंकि यही है वह दिवस, जिस दिन भगवान सूर्य की प्रखरतादायक रश्मियों में विश्वकर्मा द्वारा सन्तुलन स्थापित किया गया और इसी कारणवश इस दिवस पर ‘सूर्य’ एक ऐसे विशेष कोण पर स्थित होता है, जहां से उसकी सम्पूर्ण प्रखरता पृथ्वी को प्राप्त हो जाती है।
सूर्य ही आधार है किसी भी संरक्षण का और इसी कारणवश इस दिवस को की गई प्रत्येक साधना फलप्रद होती ही है। पौराणिक परम्परा से इस दिवस पर पुण्य प्रदायक नदियों में स्नान करने की प्राचीन परम्परा रही है और उसके पीछे भी यही रहस्य छुपा है। साधक इसी अवसर का उपयोग करता है, अपने मन में पूरे वर्ष भर से संजो कर रखी हुई किसी एक विशेष साधना को सम्पन्न करने में, क्योंकि साधक के उत्सवमय होने का ढंग ही निराला होता है। वह आम व्यक्तियों की तरह खाने-पीने और शोरगुल मचाने को ही उत्सव नहीं मानता, वरन् अपने जीवन में साधना की उस चैतन्यता को स्थान देता है जो उसका पूरा-पूरा वर्ष और सम्पूर्ण जीवन संवार दे।
नवग्रहों में सूर्य ही प्रधान ग्रह देवता है, सूर्य के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है, सूर्य ही जीवन तत्व को अग्रसर करने वाला, उसे चैतन्य बनाने वाला, प्रकाश देने वाला, मूल तत्व है।
भारतीय शास्त्रों में इस पर्व का विशेष महत्व है क्योंकि इस दिन से ही सूर्य उत्तर दिशा की ओर यात्रा प्रारम्भ करता है। सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। इस कारण इसे मकर संक्रान्ति कहा गया है। दूसरे शब्दों में सूर्य छः महीने के लिए दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर प्रवेश करता है। मकर संक्रान्ति महापर्व इसलिये है, क्योंकि इस दिन सूर्य सिद्धान्त के अनुसार दिवस और रात्रि बराबर होते हैं। पृथ्वी के उत्तरी हिस्से में रहने वाले व्यक्तियों के लिये इस दिवस से सूर्य उनकी ओर आता है जिससे दिन बड़े होने लगते हैं तथा वातावरण में ऊष्णता बढ़ती है जो कि स्वास्थ्य के लिये श्रेष्ठ है।
महाभारत के अनुसार जब भीष्म पितामह अर्जुन के बाणों से घायल होकर युद्ध भूमि में गिर पड़े और उनका जीवन बचना कठिन था लेकिन उन्हें इच्छा-मृत्यु का वरदान था। अतः उन्होंने घायल अवस्था में सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण में आने की प्रतिक्षा की और मकर संक्रान्ति के दिन जब सूर्य उत्तरायण में आया तो उन्होंने अपने प्राणों को त्यागा। इस कारण इसे मोक्ष-दिवस, मुक्ति-दिवस भी कहा जाता है। पूरे भारतवर्ष में मकर संक्रान्ति के दिन पवित्र नदियों में स्नान करना, पुण्यदायक माना जाता है और यह भी माना जाता है कि इस दिन हरिद्वार और प्रयागराज संगम में स्नान करने से पाप-नष्ट हो जाते हैं।
पंजाब में मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या को अग्नि जलाकर उसके चारों ओर नृत्य उत्सव कर ‘लोहड़ी’ के रूप में मनाया जाता है तथा मकर संक्रान्ति के दिवस को ‘मागी’ त्यौहार के रूप में सम्पन्न किया जाता है। गुजरात में यह दिवस अपने रिश्तेदारों, मित्रों को उपहार-दिवस के रूप में सम्पन्न किया जाता है। प्राचीन काल में मकर संक्रान्ति के दिन ही गुजरात में गुरु अपने शिष्यों को विद्या उपाधि प्रदान करते थे।
दक्षिण में तमिलनाडु तथा आंध्रा में इसे पोंगल पर्व के रूप में सम्पन्न किया जाता है और यह वहां का वर्ष भर का सबसे बड़ा त्यौहार है। चार दिन तक उत्सव चलता है।
प्रथम दिवस के त्यौहार का नाम भोगी, द्वितीय दिवस संक्रान्ति, तृतीय दिवस कनुमा तथा चतुर्थ दिवस मुक्कानूमा है। मकर संक्रान्ति के बारे में जितना लिखा जाये, उतना कम है क्योंकि यह तेजस्विता का पर्व है।
मकर संक्रान्ति का महत्व इस कारण सबसे अधिक बढ़ जाता है कि उस समय सूर्य उस कोण पर आ जाता है, जब वह अपनी सम्पूर्ण रश्मियां मानव पर उतारता है इनको ग्रहण किस प्रकार किया जाय, इसके लिए चैतन्य होना आवश्यक है, तभी ये रश्मियां भीतर की रश्मियों के साथ मिल कर शरीर के कण-कण को जाग्रत कर देती हैं। सूर्य तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्तियों का स्वरूप है, इस कारण मकर संक्रान्ति पर तीव्र तांत्रोक्त साधनाएं करने से शीघ्र सफलता प्राप्त होती है।
शरीर और सूर्य
मनुष्य का शरीर अपने आपमें सृष्टि के सारे क्रम को समेटे हुए है और जब यह क्रम बिगढ़ जाता है, तो शरीर में दोष उत्पन्न होते हैं, जिसके कारण व्याधि, पीड़ा, बीमारी का आगमन होता है, इसके अतिरिक्त शरीर की आन्तरिक व्यवस्था के दोष के कारण मन के भीतर दोष उत्पन्न होते हैं, जो कि मानसिक शक्ति, इच्छा को हानि पहुंचाते हैं, व्यक्ति की सोचने-समझने की बुद्धि क्षीण होती है, इन सब दोषों का नाश सूर्य तत्व को जाग्रत कर किया जा सकता है। क्या कारण है कि एक मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंच जाता है और एक व्यक्ति पूरा जीवन सामान्य ही बना रहता है, दोनों में भेद शरीर के भीतर जाग्रत सूर्य तत्व का है। नाभिचक्र, सूर्य चक्र का उद्गम स्थल है और यह अचेतन मन के संस्कार तथा चेतना का प्रधान केन्द्र है, शक्ति का स्त्रोत बिन्दु है, साधारण मनुष्यों में यह तत्व सुप्त होता है, न तो इनकी शक्ति का सामान्य व्यक्ति को ज्ञान होता है और न ही वह इसका लाभ उठा पाता है। इस तत्व को अर्थात् भीतर के मणिपुर सूर्य चक्र को जाग्रत करने के लिए बाहर के सूर्य तत्व की साधना आवश्यक है, बाहर का सूर्य अनन्त शक्ति का स्त्रोत है और इसको जब भीतर के सूर्य चक्र से जोड़ दिया जाता है तो साधारण मनुष्य भी अनन्त मानसिक शक्तियों का अधिकारी बन जाता है और जब यह तत्व जाग्रत हो जाता है, तो बीमारी, पीड़ा बाधाएं उस मनुष्य के पास आ ही नहीं सकती हैं।
हमारे पूर्वज, जो मुख्यतः प्रकृति पूजक ही थे, उनकी गणना सूर्य की गति से होती थी तथा वे अपनी विशिष्ट गणना-पद्धति से यह पूर्वानुमान कर लेते थे कि कब सूर्य का मकर राशि में संक्रमण होगा और वही अवसर उनके लिए नववर्ष का होता था।
किन्तु इन सभी बातों से यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि वे कोई सर्वथा जड़ एवं आसमान के तारों को देखकर निष्कर्ष निकाल लेने वाले कोई अज्ञानी व्यक्तित्व थे, जैसा कि पाश्चात्य ‘विद्वानों’ ने उन्हें चरवाहा एवं वेदों को ‘गड़रियों के गीत’ कह कर निन्दित किया है, और उनकी यही छवि प्रस्तुत की है। यदि वे जड़ व्यक्तित्व होते, तो सूर्य के संक्रमण के आधार पर दिवस न निर्धारित करते वरन् उन्हीं ‘विद्वानों’ की भांति 31 दिसम्बर की रात्रि न्यू ईयर मना लेते, भले ही उस समय प्रचंड शीत पड़ रहीं हो या हिमपात हो रहा हो।
इसी विभेद के कारण, स्वयं को प्रकृतिमय बना देने के कारण ही साधनाओं में सौम्यता होती है और इसी कारणवश यदि हम मकर संक्रान्ति को अपना नववर्ष मानें, तो कोई अनुचित बात भी नहीं। मैं तो यह धारणा भी प्रस्तुत कर दूंगा की यह संभव नहीं कि प्राचीन भारतीय पद्धति के अनुसार मकर संक्रान्ति को मनाए जाने वाले हर्ष एवं उल्लास के वातावरण से अनुप्राणित होकर ही ईस्वी संवत् नहीं रख गया होगा। दस-पन्द्रह दिवस के परिवर्तन से कोई मूलभूत अंतर तो नहीं पड़ जाता। यद्यपि यह बात अवश्य है, कि भारत में ‘हैप्पी न्यू ईयर’ मनाने और बौखलाने की कोई परम्परा पूर्व में नहीं रही। जो देश इस मानव देह को छोड़कर जाने वाले जीव को भी संस्कार पूर्वक विदा देता है, वह उन्माद में विश्वास रख ही नहीं सकता।
गुरुदेव ने हमारे ऋषि-मुनियों के ‘गणना-चिंतन’ के क्रम को मुखरित करते हुए यह स्पष्ट किया था, कि वास्तव में मकर संक्रान्ति का पर्व केवल शरद ऋतु के उपरांत आने वाली सुखद ऊष्मा के स्वागत का ही अवसर नहीं है, वरन् साधना-पर्व भी है, क्योंकि इस दिवस को सूर्य ब्रह्माण्ड में ऐसी स्थिति पर होता है, जिससे साधना के द्वारा उसकी तेजस्विता को अपने प्राणों में पूर्णता से उतारा जा सकता है। सूर्य का भारतीय चिंतन में केवल एक ग्रह के रूप में अथवा ज्योतिषीय ढ़ग से ही महत्व नहीं है वरन् इसे साक्षात् प्राण व आत्मा का ही मूर्तिवत्त स्वरूप माना गया है, जिस प्रकार चन्द्रमा को मन का प्रतीक कहा गया है। वैज्ञानिक जिस सूर्य को अब Solar Energy के अक्षय स्त्रोत के रूप में देख कर कृतज्ञ हो रहे हैं, भारतीय चिंतन उसे युगों पूर्व ऊर्जा के स्त्रोत या बिजली बनाने के कारखाने के रूप में न देखकर साक्षात् जीवनदाता के रूप में वंदित करता आ रहा है।
पौराणिक आख्यान है कि सूर्य जो कि वास्तव में आदि ब्रह्मा के तेज का पिंड है, प्रारम्भ में इतने अधिक तेजस्वी व ज्वलनशील थे कि उनकी रश्मियों से सभी लोक व्याकुल हो गए। जल-सरोवर, नदी, तालाब सूखने लग गए और प्रखर गर्मी से देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, मनुष्य सभी त्राहि-त्राहि कर उठे। उन्होंने आदि ब्रह्मा के पास जाकर समवेत रूप से अपनी रक्षा की प्रार्थना की। आदि ब्रह्मा अपने ही वंशज सूर्य के पास गए, उसे विविध प्रकार से सन्तुष्ट कर उससे मृदु होने को कहा। सूर्य ने उनसे प्रार्थना की कि। आप मेरे पितामह-तुल्य है, अतः आप ही कोई उपाय करें, और तब ब्रह्मा जी ने एक उचित मुहूर्त पर विश्वकर्मा को बुलाकर वज्र की सान पर सूर्य को स्थापित कर उनके तेज को काट-छांट दिया। उस कटे-छटे तेज से ही भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र, अमोघ यमदण्ड, शंकर का त्रिशूल, काल का खड्ग, तथा दुर्गा के शक्तिशाली त्रिशूल का निर्माण हुआ।
सूर्य वास्तव में केवल एक ग्रह का ही नाम नहीं, सूर्य तो आदित्य स्वरूप में सभी देवताओं के आदि कर्ता हैं। स्कन्ध पुराण में वर्णित है कि महर्षि व्यास ने वैशम्पयान ऋषि को स्पष्ट कहा है कि इनमें और ब्रह्म में कोई भेद ही नहीं है, क्योंकि ये दोनों ही धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरूषार्थो को प्रदान करने वाले हैं।
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