शिष्य का और गुरु का सम्बन्ध जीवन में सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इन संबंधों को संसार के किसी भी तराजू में तोला नहीं जा सकता। एक श्रेष्ठ शिष्य में निम्न गुण अवश्य ही होने चाहिए। इन गुणों से ही विश्वास, निज्ठा बड़ती है:-
गुरु का पद अत्यन्त गूढ़ है, दुर्लभ एवं देवताओं के लिए अप्राप्य है तथा गुरुत्व तो गन्धर्वों, किन्नरों, शिव के गणों द्वारा भी पूजित होता है। देवता भी गुरूत्व के प्रभाव के कारण ही विभिन्न लोकों में जाकर पुण्यों का उपभोग करते हैं। वह गुरूत्व शाश्वत और जन्मादि क्रियाओं से परे है। इसलिए शिष्य को सदैव गुरू चरणों में तन-मन-धन तीनों प्रकार से समर्पित बने रहना चाहिए।
यह शरीर मल-मूत्र, दुर्गन्ध, लार, थूक, मांस-मज्जा, हड्डी के अलावा कुछ नहीं है, इसलिए इस शरीर पर गर्व न करते हुए या शरीर से उपार्जित यश ख्याति पर गर्व न करते हुए श्री गुरुचरणों में उपस्थित होना ही शिष्य की सार्थकता है। तभी वह गुरुत्व के रहस्य से परिचित हो सकता है।
सदगुरु का विग्रह या चित्र शिव के विग्रह के समान है, गुरु का चिन्तन शिव चिन्तन है, गुरु की आरती जगदीश्वर की आरती है, गुरु पूजन ही इष्ट पूजन है और गुरु में ही सभी देवी-देवताओं का वास है, ऐसा चिन्तन धारण करने में ही शिष्य का कल्याण है।
सदगुरु के चरण कमल का एक रज कण भी संसार सागर से पार उतार सकने में पूर्ण सक्षम है, गुरु चरणों की धूलि ही सर्वस्व प्रदान करने में समर्थ है, शिष्य को मन में इसी प्रकार का भाव रखना चाहिए। शिष्य जब भी गुरु के निकट जाए तो हर क्षण सतर्क रहे, सजग रहे, क्योंकि गुरु के शरीर से निःसृत होने वाली रश्मियां भी शिष्य के ताप-त्रय का हरण करने में पूर्ण समर्थ होती हैं। उनके दर्शन करते समय जितना ही शिष्य प्रबुद्ध और सजग रहेगा, उतना ही कृतार्थ होता चला जाएगा।
ब्रह्मरंध अर्थात सहस्रार के मध्य में स्थित चन्द्र मण्डल में श्वेत कमल पर विराजमान सदगुरुदेव के दोनों चरण कमलों का शिष्य को ध्यान करना चाहिए। इससे उसके ताप-संताप समाप्त होते हैं और कुण्डलिनी जाग्रत होती है।
गुरु मंत्र और गुरु साधना का अनुज्ठान करने से हृदय शनैः शनैः पावन हो जाता है, मृत्यु भय एवं अन्य सांसारिक भय समाप्त हो जाते हैं, प्रत्येक शिष्य को गुरु मंत्र का अनुज्ठान एवं गुरु साधना अपने जीवन में करनी ही चाहिए।
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