जब अर्जुन युद्ध-भूमि में मोहग्रस्त हो जाता है, और कहता है – ‘ये मेरे पिता हैं, ये मेरे दादा हैं, ये मेरे चाचा हैं, मैं इनके सामने गाण्डीव धनुष नहीं उठा सकता, मैं इन्हें तीर नहीं मार सकता।’ तब कृष्ण कहते हैं- ‘तुम और ये सभी देह तत्व में है, और जब तक देह तत्व में है, तब तक ये तुम्हारे संबंधी हैं। हे अर्जुन! तू देह तत्व से ऊपर उठ और जब तू ऊपर उठेगा, तब तुझे लगेगा कि ये सब मरे हुये हैं, क्योंकि तब तू प्राण तत्व में खड़ा हो जायेगा और ये सब देह तत्व में खड़े हो जायेंगे।’ फिर भी अर्जुन उस व्यामोह से दूर नहीं हो पाते, तो भगवान श्रीकृष्ण उसके आज्ञा चक्र को पूर्णरूप से जाग्रत कर अन्दर स्थित ब्रह्माण्ड को पूर्णरूप से स्पष्ट करके दिखा देते हैं और यह बता देते है कि तू जहाँ खड़ा है, जहाँ मैं खड़ा हूँ – इस विश्व को हम अपनी आँखों से अपने अन्दर समेट कर देख सकते हैं, और अन्दर समेट कर जो देखने की क्रिया है, वह केवल आज्ञा चक्र को जाग्रत करने से ही संभव है।
आज्ञा चक्र के जाग्रत होने पर साधक एक ही स्थान पर बैठा हुआ सृष्टि के समस्त क्रियाकलापों की स्थिति का अवलोकन करने में सक्षम हो जाता है, किसी व्यक्ति के रोग को दूर किया जा सकता है, दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदला जा सकता है। इसीलिये सभी चक्रों में आज्ञा चक्र को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है।
आज्ञा चक्र को ‘थर्ड आई’ और ‘तृतीय नेत्र’ की संज्ञा भी दी गई है। यह चक्र सफेद रंग के दो दलों वाले कमल के समान होता है। उसे समस्त सिद्धियों में पूर्णता प्राप्त होती है। इस चक्र का मूलबीज मंत्र ‘नं’ है, तथा दोनों दलों का बीज मंत्र क्रमशः ‘हं’ तथा ‘क्षं’ हैं। ये दोनों दल ‘सूर्य’ तथा ‘चन्द्र’ के गुणों से युक्त होते हैं। इनके जाग्रत होने पर व्यक्ति की आँखों में अत्यधिक तेजस्विता आ जाती है। साथ ही व्यक्ति को अत्यधिक करूणा, प्रेम और ममत्व की प्राप्ति होती है। इस चक्र की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि व्यक्ति में गुरूत्व की गरिमा आ जाती है, वह स्वयं तो पूर्ण बनता ही है, दूसरों को भी पूर्ण बना सकता है और सिद्धाश्रम में प्रवेश प्राप्त करने के योग्य बन जाता है। आज्ञा चक्र मनुष्य को परोपकारी बनाता है व उसमें प्रेम, दृढ इच्छा शक्ति, बुद्धिमता व प्रशासनिक क्षमता विकसित होती है।
आज्ञा चक्र मन और बुद्धि के मिलन का स्थान है। सुषुम्ना मार्ग से आती हुई कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव योगी को यही आज्ञा चक्र में होता है। योगाभ्यास व गुरु की सहायता से साधक कुण्डलिनी शक्ति के आज्ञा चक्र में प्रवेश करता है और फिर वह कुण्डलिनी शक्ति को सहस्त्रार चक्र में विलीन कराकर दिव्य ज्ञान के अमृत व परामात्मा तत्व को प्राप्त कर परमानंद को प्राप्त करता है। आज्ञा या अज्न चक्र के गुण है – एकता, शून्य, सत, चित्त और आनंद। आज्ञा चक्र के आराध्य देव शिव और शक्ति का संयुक्त रूप हैं। इसका अर्थ है कि आज्ञा चक्र में चेतना और प्रकृति दोनों का समावेश है। आज्ञा चक्र को ‘गुरु चक्र’ भी कहते हैं, गुरु तत्व हमारी चेतना विकास का एक दिव्य सिद्धांत है, यही कारण है कि गुरु सदा लौकिक व दिव्य सिद्धांत जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्युत्व से अमरत्व की ओर ले जाने वाले मार्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं।
हर युग में ‘गुरु’ एक पवित्र अवतार के रूप में अपने साधकों के समक्ष उपस्थित रहते हैं। श्री कृष्ण अर्जुन के स्वामी थे, यही नहीं स्वयं श्री कृष्ण के गुरु थे गुरु सांदीपन। जब शिष्य को गुरु का साथ मिल जाता है तब शिष्य की चेतना जाग्रत हो जाती है, और तब उसे सही-गलत, सत्य-असत्य का अंतर समझ आ जाता है, उसे ज्ञान व विवेक की प्राप्ति हो जाती है।
आज्ञा चक्र के संचालित होने की प्रक्रिया में अवरोध आने पर कई तरह के शारीरिक रोग उत्पन्न होने लग जाते हैं, जैसे अनिद्रा, माइग्रेन, रक्तचाप का बढना, साइटिका, रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम होना, दृष्टि कमजोर होना, उदासीनता आदि। वहीं बंद आज्ञा (अज्न) चक्र से ब्रेन ट्यूमर, दिल संबंधी बीमारियाँ, बहरापन, भूलने की बीमारी, रीढ की हड्डी में परेशानी आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
अज्न चक्र के निष्क्रिय होने पर व्यक्ति को मानसिक चिंतायें घेरे रहती हैं, साथ ही व्यक्ति को वहमी बनाता है और यह उनके निर्णय लेने की क्षमता को भी बुरी तरह से प्रभावित करता है, वह अवसादग्रस्त जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हो जाता है। अतिक्रियाशील आज्ञा चक्र की स्थिति में व्यक्ति वास्तविक दुनिया से दूर हो अपनी काल्पनिक दुनिया में ही खोया रहता है, उसकी निर्णय क्षमता समाप्त हो जाती है, असमंजस की स्थिति सदा चलती रहती है तथा व्यक्ति अनर्गल क्रियायें करने लगता है।
अज्न चक्र का संबंध एकाग्रता, अनुभव, सहज-ज्ञान, प्रशासनिक क्षमता, सद्भावना, दयालुता से है। इसीलिये आज्ञा चक्र के संतुलित होने पर इन सभी गुणों का समावेश स्वयं व्यक्ति को एवं उसके प्रियजनों को स्वतः ही महसूस होने लगता है, उसके सामने उसका भविष्य स्पष्टता से दिखाई देने लगता है उसे अपने आसपास होने वाली घटनाओं को पहले से ही आभास हो जाता है।
1- प्रकृति द्वारा चिकित्सा – अज्न चक्र प्रकाश तत्व प्रधान है, इसीलिये खुले आसमान की नीचे कुछ देर सैर, व्यायाम, प्राणायाम कर इस चक्र को सुचारू किया जा सकता है।
2- भोजन द्वारा चिकित्सा- भोजन को सात्विक व संतुलित कर और फल व सूखे मेवे जो हमारे मस्तिष्क को चुस्त रखने में सहायक है बादाम अखरोट, मूँगफली को भोजन में शामिल करना चाहिये व फलों में जामुन व बेर जो शरीर में रक्त शुद्धि व रक्तचाप को सामान्य रखते है, का सेवन लाभकारी है।
3- ध्यान द्वारा – अज्न चक्र का रंग नीला है, इसीलिये शांत चित्त से एकाग्र होकर एक स्थान पर बैठ कर ‘ऊँ’ जो इसका बीज मंत्र है उसका उच्चारण करते हुये दोनों भोहों के मध्य नीले रंग पर ध्यान कर दो दल वाले कमल को महसूस करें। इस क्रिया का अभ्यास नियमित रूप से प्रतिदिन करें।
4- योगाभ्यास द्वारा- त्राटक क्रिया, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम, कपालभाति आदि प्राणायाम के साथ-साथ गरूड़ासन, वीरभद्रासन, मयूरासन, बालासन,श्वासन आदि आसन का नियमित व धीमी गति से अभ्यास करें व अपनी दोनों हथेलियों को घर्षण कर हथेलियों को अपनी दोनों आँखों पर दो मिनट रख हाथों की गर्मी महसूस करें, यह क्रिया, योग अभ्यासों के मध्य तीन बार करें।
5- साधना द्वारा – इस साधना को किसी भी प्रदोष से प्रारम्भ किया जा सकता है। उत्तर दिशा की ओर मुख कर गुरु चित्र एवं शिव चित्र का संक्षिप्त पूजन कर गुरु मंत्र की एक माला जप करें।
अपने सामने एक थाली में कुंकुम से एक बड़ा ‘ऊँ’ बनायें। ‘ऊँ’ के मध्य में ‘सदाशिव यंत्र’ को रखें तथा ‘ऊँ’ के चन्द्र बिन्दु पर गौरीशंकर रूद्राक्ष’ स्थापित करें। रूद्राक्ष का कुंकुम, अक्षत व सिन्दूर से पूजन करें। यंत्र का भी संक्षिप्त पूजन कर धूप, दीप आदि से करें। फिर ‘हरगौरी माला’ से निम्न मंत्र की 11 माला जप 7 दिन तक नित्य करें-
उसके बाद सभी सामग्री को एक सप्ताह तक पूजा स्थान में ही रहने दें, फिर बाद में उसे जल में विसर्जित कर दें।
विनीत श्रीमाली
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