लेकिन बात फिर वहीं से शुरु होती है- जो मैं कहता हूं, अगर आप उसको सुन कर भी रुक जाते हैं, तो मैं मानूंगा आपने सुना ही नहीं, क्योंकि सुन कर जो चलता नहीं है, मैं नहीं मान सकता कि उसने सुना है। यदि आप सोचते हैं कि सुन कर आपकी समझ में आ गया, तो इतनी जल्दी मत करना। यदि सुन कर समझ में आता होता तो हम कभी के समझ गए होते। सुन कर ही समझ में आता होता तो इस दुनिया में समझदारों की कमी न होती, नासमझ खोजना मुश्किल हो जाता।
सुन कर कुछ भी समझ में नहीं आता। सुन कर सिर्फ शब्दों पर मुठ्ठियां बंध जाती हैं। सुन कर नहीं, करके ही समझ में आता है। इसलिए सुनना करने के लिए- समझने के लिए नहीं। सुनना करने के लिए, करना समझने के लिए। सुन कर ही सीधा मत सोच लेना कि समझ गए। लेकिन मन कहता है कि समझ गए, अब करने की क्या जरूरत है।
कोई आदमी यहीं सो जाए और सपना देखे कहीं भी पहुंचने का। मन सपना देखने में बड़ा कुशल है और ऐसा मत सोचना कि आप ही केवल ऐसे सपने देखते हैं। जिनको आप बहुत बुद्धिमान समझते हैं, वे भी इसी तरह के सपने देखते रहते हैं। लेकिन कहीं इंच भर नहीं पहुंचते। यात्रा ही नहीं करते। बुद्धि में ही वर्तुल बन जाता है, भंवर बन जाता है। बुद्धि के उसी भंवर में सब घूमते रहते हैं, फिर उस भंवर में सब समा जाता है- वेद समा जाते हैं, उपनिषद समा जाते हैं, लेकिन एक इंच भी गति नहीं होती।
यहां सुन कर कुछ कंठस्थ हो जाए और आप भी बोलने लगें, तो मैंने आपका नुकसान किया। यहां सुन कर आप वह बोलने लग जाएं, तो कोई मूल्य नहीं है। यहां सुन कर आप भी वह बन जाए, आप भी वह देख लें, आपकी आंख भी खुल जाए – तो ही बोलना सार्थक है। एक कवि गीता गाता है किसी फूल के सम्बन्ध में, गीत में बड़ा माधुर्य हो सकता है, छंद हो सकता है, लय हो सकती है, संगीत हो सकता, गीत की अपनी खूबी है। लेकिन गीत कितना ही गाया जाये, कितना ही गुन-गुनायें, फूल की कितनी भी खूबियां बतायें, तो भी गीत-गीत है, फूल नहीं बन सकता है और लाख हो गति और लाख हो छंद, तो भी गीत-गीत है, फूल की सुगंध नहीं आ सकती और आप उसी गीत से तृप्त हो जायें तो आप भटक रहें हैं।
उपनिषद गीत है किसी फूल का, जिसे आपने देखा नहीं अभी, गीत गजब का है, गाने वाले ने देखा है। पर गीत से तृप्त मत हो जाना, गीत फूल नहीं है। ऐसा भी हो जाता है कि कभी-कभी आप फूल के पास भी पहुंच जाते हैं, कभी-कभी फूल की एक झलक भी मिल जाती है अचानक से। क्योंकि फूल कोई विजातीय नहीं है, आपका स्वभाव है, आपके बिल्कुल निकट है, किनारे-किनारे है। कभी-कभी फूल एक झलक दे जाता है। किसी क्षण में, आकस्मिक रूप से अनुभव में आ जाता है। फिर एहसास होता है कुछ और भी है इस जगत में, यही जगत सब कुछ नहीं है। इस पथरीले जगत के बीच कुछ और भी है, जो पत्थर नहीं फूल है – जीवंत है, खिला हुआ है। जैसे किसी स्वप्न में दिखा हो या अंधेरी रात में एकदम से चमक पड़ी हो लेकिन फिर खो गया हो। ऐसा कभी-कभी आपके जीवन में भी हो जाता है। कवियों के जीवन में अक्सर होता रहता है। चित्रकारों के जीवन में भी अक्सर हो जाता है। फूल की झलक बिलकुल पास आ जाती है।
फिर भी, फूल कितने पास हो और कितनी ही झलक मिल गई हो, पास होना भी दूर होना ही है और कितने ही पास आ जाए फूल तो भी फासला तो बना ही रहता है और मैं बिलकुल हाथ से भी छू लूं फूल को, तो भी पक्का नहीं है कि जो अनुभव मुझे होता है, वह फूल का है, क्योंकि हाथ खबर लाने वाला है और हाथ अगर बीच में गलत खबर दे दे, तो कुछ भरोसा नहीं और हाथ सही ही खबर देगा इसको मानने का कोई कारण नहीं। फिर हाथ जो खबर देगा, वह पफ़ूल के सम्बन्ध में कम और हाथ के सम्बन्ध में ज्यादा होगी। फूल ठंडा मालूम पड़ता है। खबर हाथ के सम्बन्ध में है, क्योंकि खबर जब भी किसी माध्यम से आती है तो सापेक्ष होती है। पक्का नहीं हुआ जा सकता। एक साधक था, बड़ी अच्छी रूचि थी उसकी साधनाओं में, साधनाओं में बैठने का अच्छा अभ्यास था उसको, एक दिन उसी के एक मित्र ने पूछा ईश्वर है या नहीं? तो उसने कहा नहीं!
फिर थोड़ी देर रूक कर कहता है लेकिन मैं गारंटी भी नहीं ले सकता, क्योंकि जो भी मैं जानता हूं वह सब माध्यम से जाना है। कभी आंखों से देखा है, लेकिन आंख का भरोसा क्या। कभी कान से सुना है, लेकिन कान गलत भी सुन सकते हैं। कभी हाथ से छुआ है, लेकिन हाथ का क्या कहना। अभी तक सीधा सम्पर्क ना हुआ है। अभी तक वह आमने-सामने नहीं हुआ है।
इसलिए कोई गारण्टी नहीं है, अभी तक जो जाना है, उसमें ईश्वर का कोई अनुभव नहीं हुआ। लेकिन यह जरूरी नहीं कि ईश्वर न हो। इससे सिर्फ मेरी खबर मिलती है कि मेरे अनुभव क्या हैं। इसलिए मुझ पर भरोसा करके मत रूक जाना, तुम खोजना।
ऐसा ही जब भी माध्यम से कुछ घटता है, तो भरोसे का नहीं है, अगर फूल के बिलकुल पास भी पहुंच जाएं, तो भी आंख देखती है, हाथ छूते हैं, सुगंध नाक में आती है, यह भी दूरी का अनुभव है। तो कभी-कभी कोई कवि उस परम फूल के इतने पास पहुंच जाता है कि उसके गीत में उतर आती है उसकी गूंज। लेकिन फिर भी वह बुद्ध नहीं है, वह महावीर नहीं है।
बुद्ध स्वयं में वह चैतन्य हैं, जो फूल ही हो गये, इतनी भी दूरी न रही कि फूल को देखा हो, फूल ही हो गए। इसलिए फूल होकर ही पूरी तरह से उसे जाना जा सकता है। उपनिषद प्रारम्भ होता है प्रार्थना से, प्रार्थना है समस्त जगत से। सूर्य कल्याणकारी हों, वरुण, अर्यमा, इन्द्र और बृहस्पति, विष्णु कल्याणकारी हों। उस ब्रह्म को नमस्कार हो। हे वायु! तुम्हारे लिए नमस्कार, क्योंकि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। मैं तुम्हें ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा। सत्य और ऋत, वे सब मेरी रक्षा करें। इस प्रार्थना से शुरु होता है।
धर्म की यात्रा प्रार्थना से शुरु होगी ही। प्रार्थना का अर्थ है- आस्था, आशा। प्रार्थना का अर्थ है- इस सारे जगत के साथ हमारे जुड़े हुए होने का भाव। प्रार्थना का अर्थ है- मुझ अकेले से क्या होगा। मुझ अकेले से होता तो हो गया होता। मुझ अकेले से तो क्षुद्र भी नहीं सध पाया। चाहा था धन मिल जायें, वह भी पूरी न हुई। मुझ अकेले से तो संसार भी न सधा, तो सत्य की यह महायात्रा मुझ अकेले से ना हो सकेगी? अकेले-अकेले तो मैं भी हार गया हूं।
संसार में अधिकतर लोग हारे हुए हैं भीतर से, बाहर से केवल लगता है जीते हैं, लेकिन बस वे दूसरों को जीते हुए दिखाई पड़ते है, खुद में तो बिलकुल हारे हुए हैं। आप भी अपने को हारे हुए दिखाई पड़ते होंगे, औरों को तो आप भी जीते हुए दिखाई पड़ते हैं। आपसे भी पीछे लोग हैं, जो आपको समझते हैं पा लिया आपने, जीत गए संसार में। लेकिन भीतर से अगर हम आदमी को देखें तो एक-एक आदमी हारा हुआ दिखता है। संसार में पराजय की लम्बी कतार है। इसलिए प्रार्थना का अर्थ है, संसार में पराजित हुए व्यक्ति का यह अनुभव कि जन्मों-जन्मों तक चेष्टा करके मैं हार गया क्षुद्र में, तो विराट में मेरी सामर्थ्य ही क्या?
इसलिए सारे जगत को पुकारा है ऋषि ने कि मेरा साथ देना। सूर्य को पुकारा है, वरूण को पुकारा है। ये सब नाम है, प्रतीक है जीवन की समस्त शक्तियों के। सूर्य को पहले पुकारा है, क्योंकि सूर्य हमारा जीवन है, उसके बिना हम नहीं होंगे। हमारे भीतर सूर्य ही जीता है, जलता है। उधर सूर्य बुझा कि हम भी बुझे। सूर्य ही हमारा प्राण है, इसलिए पुकारा।
कहा वायु को नमस्कार है। इस प्रार्थना में ऋषि ने विशेष रूप से वायु को नमस्कार कहा है। और कहा- वायु! तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। यहां बाते बड़ी अजीब सी लगती हैं। वायु है बिलकुल अप्रत्यक्ष और सब सभी चीजें प्रत्यक्ष हैं। यदि सूर्य को कहता है प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, जीते-जागते, जलते, प्रखर तो समझ में आता। ऋषि ने सूर्य को नहीं कहा प्रत्यक्ष ब्रह्म। उसने वायु को कहा जो बिलकुल दिखाई पड़ती नहीं। बिलकुल अप्रत्यक्ष है।
और सत्य है वायु कहां प्रत्यक्ष है? सिर्फ अनुमान है कि वायु होता है, हवा लगती है, भासता सा मालूम पड़ता है, दिखाई तो पड़ती नहीं। आंख के सामने कहां वायु आती है, प्रत्यक्ष का मतलब है, आंख के सामने हो। पत्थर, पहाड़, सब आंख के सामने है लेकिन वायु नहीं है। लेकिन वह ऋषि कहता- हे वायु! नमस्कार तुम्हे, क्योंकि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो।
इसलिए यह समझें जिस तरह वायु दिखाई नहीं पड़ती लेकिन है। आंख को दिखाई नहीं पड़ती फिर भी प्रतिपल आंख को छू रही है। ऐसा ही वह परम सत्य ईश्वर है, दिखाई नहीं पड़ता लेकिन प्रतिपल छू रहा है, उसका आभास बना है।
वायु इसलिए नहीं दिखाई पड़ती क्योंकि हमारे पास देखने वाली आंख नही है। वायु तो शत-प्रतिशत है, उसके बिना तो हम हो ही नहीं सकते हैं। उसी ने तो हमारे श्वास सम्भाले है। उसका आवागमन तो हमारा सारा जीवन है, जो इतनी निकट है, श्वास है जो हमारी, वह भी दिखाई नहीं पड़ती। क्योंकि हमारी आंखें बड़ी स्थूल है। तो हम जो बहुत मोटा-मोटा है, स्थूल-स्थूल है, वह देख लेते हैं, लेकिन जो सूक्ष्म है वह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
और ऐसे ही वायु सूक्ष्मतम है, हमारे सामने मौजूद है, भीतर मौजूद है, बाहर मौजूद है, रोम-रोम में मौजूद है और दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए कहा कि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, तुम ठीक ब्रह्म जैसी हो वायु! वह भी नहीं दिखाई पड़ता और तुम भी नहीं दिखाई पड़ते और रोम-रोम में वह ही समाया है, रोम-रोम केवल और केवल वही है और उसका हमें कोई पता नहीं चलता, इसलिए वायु को नमस्कार किया है ऋषि ने, वायु को तो हम जानते हैं, ब्रह्म को नहीं जानते, वायु से एक धागा जोड़ा है कि ब्रह्म भी ठीक वायु जैसा होगा।
इसलिए ऋषि कहता है वायु को – मैं तुम्हें प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा, सत्य और ऋत के नाम से भी कहूंगा। क्योंकि तुम ठीक उस जैसी हो- जो है और जिसका हमें पता भी नहीं है, जो हम स्वयं हैं लेकिन इसका हमें पता नहीं है। जो सभी में सदा से मौजूद है और उसका पता नही है और साथ में यह भी कहता है कि सभी देवता रक्षा करें, तो यह संभव है कि पता चल जाये।
देवता से अर्थ है, सदा से जीवन की अनंत-अनंत शक्तियां और जीवन है एक विराट जाल अनंत शक्तियों का। आप में भी एक विराट जाल है अनंत शक्तियों का। मिलता है आप में सूर्य, वरूण भी आप में है, इन्द्र-वायु- अग्नि-पृथ्वी सभी मिले हुए हैं आप में, आकाश भी आप में मिला हुआ, सब आकर आप में मिलते हैं। यदि एक व्यक्ति को हम अच्छे से जान लें तो बीज रूप में समस्त अस्तित्व को जान सकते हैं। सब कुछ उसी में है, सब मिलकर ही उसका असितत्व है। इसलिए इन सभी से सहायता की प्रार्थना की जाती है।
लेकिन प्रश्न बड़ा है- कि क्या सूर्य सहायता करेगा? प्रार्थना तो कर ली लेकिन क्या वायु सहायता करेगा? पृथ्वी की सहायता, सूर्य की सहायता का सवाल नहीं है, आपने प्रार्थना की, यही अपने आप में बड़ी सहायता है। कोई भी आकर आपकी सहायता नहीं करेगा। लेकिन आपने प्रार्थना की, इसका जो परिणाम है वह सूर्य पर नहीं होगा, आप पर होगा। क्योंकि प्रार्थना करने वाला चित्त विनम्र हो जाता है। प्रार्थना करने वाला चित्त स्वीकार कर लेता है, इस बात को कि मुझ अकेले से कुछ नहीं होगा। प्रार्थना करने वाला चित्त मिटने को तैयार हो जाता है। प्रार्थना करने वाला चित्त अपने अहंकार भाव को कि मैं कर सकता हूं, छोड़ देता है।
प्रार्थना का सारा परिणाम आप पर होता है। प्रार्थना से सूर्य नहीं बदलता, आप बदलते हैं। प्रार्थना से जगत नहीं बदलता, आप बदलते हैं। लेकिन आपके बदलते ही दूसरे जगत में आपका प्रवेश हो जाता है। यदि आप वैज्ञानिक के सामने कहें कि हे सूर्य, सहायता कर! तो वह कहेगा, मूढ़ता की बात कर रहा है तू। सूर्य क्या तुम्हारी सहायता करेगा? और कब किसकी उसने सहायता की है? इन्द्र, वर्षा करो! तो विज्ञान कहेगा पागल हो गए हो? प्रार्थना से कहीं वर्षाएं होती हैं ? वैज्ञानिक ठीक कहते हैं- न तो सूर्य आपकी सुनेगा, न आकाश आपकी सुनेंगे, न हवा आपकी सुनेगी, कोई आपकी नहीं सुनेगा। लेकिन आपने पुकारा, यह बदलाव ही आपको बदल देगा, आपने कितनी जोर से पुकारा, उतनी गहरी हूक आपके भीतर प्रवेश हो जाएगी, यदि आपके पूरे प्राण पुकार उठे, यदि आपकी आत्मा पुकारने लग जाए तो आप दूसरे ही व्यक्ति हो जाओगे, आप सामान्य ना रहोगे। इसलिए पुकारना पूरे प्राण से, पूरी आत्मा से तो ही प्रार्थना सफल होगी।
उपनिषद कहते हैं- यह जगत मिथ्या है, हम सोचते हैं कि ये लोग कह रहें हैं- जगत झूठ है। वे झूठ नहीं कह रहे, वे यह कह रहे हैं कि जैसे रस्सी में सांप दिख जाता है, यह जगत भी वैसा ही दिखाई पड़ता है और जो दिखाई पड़ रहा है वह यह नही है। यह देखने का भ्रम है, दृष्टि-दोष है। यह वैसा ही है, जैसे आप आंख को दबा कर चांद देखें और आपको दो चांद दिखाई पड़ें। वह दूसरा चांद कहां है? अगर आंख दबाई हालात में आपसे पूछा जाए कि दो में से कौन सा सच है और कौन सा झूठ, तो आप बता न पायेंगे। क्योंकि दोनों सच मालूम पड़ते हैं, हालांकि दोनो सच नहीं हैं। अगर किसी आदमी की आंख परमानेंटली दबा दी जाए, स्थायी रूप से, तो उसको सदा ही दो चांद दिखाई पड़ते रहेंगे।
हमारी जो दृष्टि है, वह मन के अनुभवों, मन के चित्रें, मन के संग्रह से दबी हुई है पूरे समय। तो जो हम देखते हैं वह हमें मन दिखाता है। ऐसा हुआ मेरे साथ, बहुत वर्ष पहले। रात तीन बजे उठ कर एक रास्ते पर घूमता था। सुनसान रात होती थी। रास्ता बांसों के झुरमुट में दबा था। थोड़ा ही रास्ता खुला था, तो एक कोने से मैं दौड़ता हुआ जाता था और दूसरे कोने से उल्टा दौड़ता हुआ आता था। तीन से चार बजे एक घंटे भर मैं वही व्यायाम कर लेता था।
एक दिन बड़ी मुश्किल हो गई! मैं उलटा लौट रहा था, तो जब मैं झुरमुट के नीचे छाया में था, तो कोई सज्जन अपना खाली डब्बा लिए दूध लेने कहीं जा रहे थे, वह दूसरी छोर से आया, फिर अचानक जैसे ही मैं झुरमुट की छाया के बाहर आया, चांदनी रात थी, उस आदमी ने अचानक मुझे देखा और क्षण भर पहले मैं दिखाई नहीं दे रहा था और अचानक उल्टा चलता हुआ, पीठ की तरफ से दिखा, उल्टे तो भूत-प्रेत चलते हैं, उसने देखा डब्बे पटके और भागा! उसके भागने से मुझे लगा कोई भाग रहा है, मैं उसके पीछे भागा, तब तो उसने प्राण छोड़ दिये और बिजली की रफ्तार से भाग गया, मुझे क्या पता मुझसे ही यह भयभीत है, पास की एक होटल का आदमी भी जाग गया इस शोरगुल को सुन कर, तो उससे जाकर मैंने कहा पता नहीं क्या हुआ, वह आदमी भाग रहा था। उसने कहा- पता की पूछ रहें हैं आप, मुझे तो पता है कि आप उल्टे चलते हैं तो मैं डर जाता हूं, तो वह तो अनजान है, डर के भाग गया। मैंने कहा ये डब्बा रख लो, लौट कर आये तो दे देना।
जब भी मैं उस होटल की तरफ से गुजरा पूछा कि वह आदमी आया था, तो पता चला वह आदमी आया ही नहीं, अब कोई उपाय ना था उस आदमी को बताने का कि उसने जो देखा वह झूठ है, लेकिन वह उसके लिए बिलकुल सच था। हम जो देख रहे हैं, वह वही नही है जो है, हम वह देख रहें हमारी आंख जो दिखा रही है। हमारी आंख आरोपण कर रही है प्रतिपल और हम न मालूम क्या-क्या देख रहे हैं, जो जगत में नहीं है। यह पूरा जगत हमारी ही आंखों का फैलाव है। हम जो देखते हैं वह हमारा ही डाला हुआ है। पहले हम डालते हैं, फिर हम देख लेते हैं। पहले रस्सी में सांप डाल देते हैं, फिर देख लेते हैं और फिर भाग भी लेते हैं। यह सारा जगत ऐसा ही है, हम ही सौंदर्य डाल देते हैं किसी में, फिर मोहित हो जाते हैं और पागल होकर घूमने लगते हैं! उपनिषद के ऋषि कहते हैं कि यह सारा जगत, जो आदमी का देखा हुआ है, लगभग झूठा है, लगभग कह कर बड़ी मीठी बात कही है। वह यह कहा है कि बिलकुल झूठा भी नहीं है, नहीं तो इतने लोग कैसे परेशान होते, इसमें कुछ तो सच्चाई है, रस्सी है इतना सच है सांप नहीं है इतना झूठ भी है।
रस्सी सांप से कुछ मेल खाती है सच है, लेकिन फिर भी रस्सी रस्सी ही है और वह सांप नहीं हो सकती यह भी सच है। इन्हीं दोनों बातों के बीच जगत टिका हुआ है, रस्सी में सांप देख लेना मिथ्या है, माया है। जब तक यह मन बिलकुल न हटा दिया जाए और जब तक हम सीधा न देख सकें, तब तक हम जगत के सत्य को न देख पाएंगे। जगत का सत्य देखते ही जगत विलीन हो जाता है और ब्रह्म ही शेष रह जाता है। अभी ब्रह्म बंटा हुआ दिखाई पड़ता है। कहीं ब्रह्म पत्थर है और कहीं ब्रह्म वृक्ष है और कहीं ब्रह्म पुरुष है और कहीं ब्रह्म स्त्री है, अभी ब्रह्म बंटा हुआ दिखाई पड़ता है।
अगर आंख के पीछे से सारा प्रोजेक्शन, वह जो आरोपण की व्यवस्था है, वह खो जाए, तो यह सारा जगत निर्विकार एक ही चेतना हो जाता है, एक सागर हो जाता है, इसके भेद गिर जाते हैं। वह जो भीतर साक्षी है, मन से मुक्त, शून्य हो गया है, वही चिदात्मा है, वहां कोई भेद नहीं है। न वहां कोई देखने वाला है, न कोई दिखाई पड़ने वाली चीज है। वहां सब द्वंद्व खो गया है। वहां सिर्फ एक चेतना का विस्तार है।
कल्याण हो—–!!!
सद्गुरुदेव कैलाश चन्द्र श्रीमाली
It is mandatory to obtain Guru Diksha from Revered Gurudev before performing any Sadhana or taking any other Diksha. Please contact Kailash Siddhashram, Jodhpur through Email , Whatsapp, Phone or Submit Request to obtain consecrated-energized and mantra-sanctified Sadhana material and further guidance,