धारणायोग के पारगामी योगियों ने अठारह प्रकार की सिद्धियां बतायी हैं। लेकिन, उनमें आठ प्रमुख सिद्धियां हैं जो प्रधान रूप से भगवान श्रीकृष्ण में रहती हैं और उन्हीं की कृपा से सिद्धियां साधक को प्राप्त होती हैं। अणिमा, लघिमा, महिमा,प्राप्ति,प्राकाम्य, ईशिता, वशिता और कामावसायिता- ये आठ प्रकार की सिद्धियां मानी गयी हैं। अणिमा, महिमा और लघिमा- ये तीनों शरीर की सिद्धियां हैं। प्राप्ति इंद्रियों की सिद्धि है। प्राकाम्य लौकिक और पारलौकिक पदार्थों का इच्छानुसार अनुभव कराने वाली सिद्धि है। माया और उसके कार्यों को इच्छानुसार संचालित ईशिता नामक सिद्धि करती है। विषयों में रह कर भी उनमें आसक्त न होना वशिता है तथा मनचाहे सुख पा लेना कामावसायिता नामक आठवीं सिद्धि है।
किस धारणा से कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है, इस बारे में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘अणिमा’ नामक सिद्धि के प्राप्त होते ही साधक को चट्टान में प्रवेश करने की शक्ति मिल जाती है। यह सिद्धि श्रीकृष्ण जी के निरन्तर स्मरण से प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण ने उद्धवजी से स्पष्ट कहा है कि जो साधक मेरे तन्मात्रात्मक शरीर के अतिरिक्त किसी और वस्तु का चिंतन नहीं करता उसे अणिमा नाम की सिद्धि मिल जाती है। ऐसा प्रतिपादन भगवतपुराण में मिलता है-
महत्व के रूप में भी श्रीकृष्ण ही प्रकाशित हो रहे हैं और वे उसी रूप में समस्त व्यावहारिक ज्ञानों का केन्द्र है। जो भी साधक उनके इस रूप का चिंतन करता है उसे ‘महिमा’ नामक सिद्धि प्राप्त होती है। इस सिद्धि में आकाशादि पंचमहाभूतों की महत्ता साधक को प्राप्त हो जाती है-
परमाणुरूप सूक्ष्म वस्तु बनने की सामर्थ्य प्राप्त हो जाना ‘लघिमा’ नामक सिद्धि है। जो साधक भगवतपुराण में अपनी पूर्ण श्रद्धा एवं निष्ठा रखते हैं वे वस्तुत: श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं निष्ठा के भावों से सराबोर होते हैं। भगवतपुराण का कथन है कि जो योगी वायु आदि चार भूतों के परमाणुओं को श्रीकृष्ण का ही रूप समझ कर अपने चित्त को तदाकार कर लेते हैं उन्हें लघिमा नामक सिद्धि प्राप्त होती है-
कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात्।।
सम्पूर्ण इन्द्रियों पर अधिकार हो जाना ‘प्राप्ति’ नामक सिद्धि है। जो योगी सात्विक अहंकार को श्रीकृष्ण का स्वरूप समझ कर उनके उसी रूप में अपने चित्त की धारणा करता है वह समस्त इन्द्रियों का अधिष्ठाता हो जाता है। श्रीकृष्ण का चिंतन करने वाला भक्त सहज ही प्राप्ति नामक दुर्लभ सिद्धि प्राप्त कर लेता है-
साधक के इच्छानुसार सभी भोगों का प्राप्त हो जाना ‘प्राकाम्य’ नामक सिद्धि कही गयी है। जो पुरूष महतत्वाभिमानी सूत्रात्मा श्रीकृष्ण में अपना चित्त स्थिर करता है उसे प्राकाम्य नामक सिद्धि प्राप्त होती है-
शरीरों और जीवों को अपने इच्छानुसार प्रेरित करने की सामर्थ्य ‘ईशिता’ नामक सिद्धि है। भागवतपुराण में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा कि जो त्रिगुणमयी माया के स्वामी मेरे काल स्वरूप विश्वरूप की धारणा करता है वह ईशित्व नामक सिद्धि प्राप्त कर लेता है-
सब को अपने वश में कर लेने की शक्ति का नाम है- ‘वशिता’। जो योगी श्रीकृष्ण के नारायण स्वरूप में, जिसे भगवान भी कहते हैं, मन लगा देता है उसमें श्रीकृष्ण के स्वाभाविक गुण प्रकट होने लगते हैं और उसे वशिता नामक सिद्धि प्राप्त हो जाती है-
‘कामावसायिता’ नामक सिद्धि प्राप्त होने पर साधक की सारी कामनाये पूर्ण हो जाती हैं। मन की कोई कामना शेष रह जाती। जो साधक अपना निर्मल मन निर्गुण ब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण में स्थित कर लेता है उसे परमानंद स्वरूपिणी कामावसायिता नामक सिद्धि प्राप्त होती है-
इन आठ सिद्धियों को सारी सिद्धियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। साधारण शब्दों में हम इन सिद्धियों को इस तरह समझ सकते हैं कि ‘अणिमा’ नामक सिद्धि प्राप्त होने पर साधक किसी को दिखायी नहीं पड़ता और कठिन-से-कठिन पदार्थ में प्रवेश कर जाता है। ‘महिमा’ नामक सिद्धि प्राप्त होने पर योगी अपने आपको विशाल बना सकता है। ‘लघिमा’ नामक सिद्धि साधक को मन के अनुसार हल्का बना देती है। इच्छित पदार्थों की प्राप्ति हो जाना ‘प्राप्ति’ नामक सिद्धि है। ‘प्राकाम्य’ नामक सिद्धि प्राप्त होने पर साधक पृथ्वी में समा सकता है और आकाश में भी उड़ सकता है। सब पर शासन की सामर्थ्य ‘ईशिता’ नामक सिद्धि में है तथा दूसरों को वश में करने की सामर्थ्य ‘वशिता‘ नामक सिद्धि में। सारी कामनाओं को पूरा करने की सामर्थ्य ‘कामावसायिता’ नामक सिद्धि में है।
इन प्रमुख आठ सिद्धियों के अलावा दूरश्रवण, दूरदर्शन, मनोजव आदि सिद्धियां भी श्रीकृष्ण के निरन्तर स्मरण एवं ध्यान से प्राप्त होती है। जो विचारशील पुरूष श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं और योगधारणा के द्वारा उनका चिंतन करते है, उन्हें सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं-
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं उद्धवजी से कहा है कि हे उद्धव! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूप को धारण कर रहा है उसके लिये कोई भी सिद्धि दुर्लभ नहीं है-
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