सातवीं बार रूचि प्रजापति की आकूति नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओं के साथ स्वायम्भुव मन्वन्तर की रक्षा की। यज्ञ या यज्ञेश्वर भगवान नारायण के अवतार है। स्वयंभुव मन्वन्तर के समय में कोई योग्य इन्द्र नहीं था इसलिये भगवान नारायण यज्ञ के रूप में अवतरित होकर स्वर्ग के राजा बने। नारायण साक्षात यज्ञ ही हैं, श्रीविष्णु सहस्त्रनाम मे भगवान के हजार नामों में एक यज्ञ भी है। यज्ञ अवतार का परम उद्देश्य ब्रह्माण्डीय संतुलन की रक्षा करना है।
एक समय आया जब स्वायम्भुव मनु को धीरे-धीरे समस्त सांसारिक विषय-भोगों से सर्वथा अरूचि होने लगी और विरक्ति के भाव उत्पन्न होने लगे। उन्होंने पृथ्वी का राज्य त्याग दिया और अपनी पत्नी माँ शतरूपा के साथ तप करने वन की ओर प्रस्थान कर गये। उन्होंने घोर तपस्या की। वे पवित्र नदी सुनन्दा के तट पर एक पैर पर खड़े होकर तपस्या एवं मंत्र जप किया करते। उन्हें व शतरूपा जी को तप करते सौ वर्ष बीत गये। एक बार तपस्वी मनु व माँ शतरूपा घोर तपस्या में ध्यानमग्न थे उसी समय भूख से पीड़ित राक्षसों का दल वहां एकत्रित हो गया और उन दोनों का भक्षण करने के लिये दौड़ा। ठीक उसी समय मनु एवं शतरूपा के पौत्र आकूतिनन्दन यज्ञ ने अपनी शक्तियों से दोनों को रक्षा घेरे में ले लिया। उनका राक्षसों से भयानक संग्राम हुआ, समस्त राक्षस अपने प्राण बचाने भाग निकले। भगवान यज्ञ को देखकर सभी देवता प्रसन्न हुये, उन्होंने उनसे देवेन्द्र पद स्वीकार करने की प्रार्थना की। भगवान यज्ञ उनकी प्रार्थना स्वीकार कर इन्द्रासन पर विराजित हुये।
एक बार देवताओं को भगवान के यज्ञ का फल मिलना रूक गया। अपनी इस समस्या के निवारण हेतु सभी देवता भगवान ब्रह्मा के समक्ष गये। तब ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु का ध्यान किया। विष्णु जी ने सभी देवताओं की बात मानकर इसका एक हल निकाला। उन्होंने अपनी प्रिय महालक्ष्मी के अंश से एक मर्त्यलक्ष्मी को बनाया जिसे नाम दिया दक्षिणा और इसे ब्रह्माजी को सौंप दिया। भगवान ब्रह्मा ने दक्षिणा का विवाह भगवान यज्ञ के साथ कर दिया। इनके अत्यन्त तेजस्वी बारह पुत्र हुये जो याम नामक बारह देवता कहलाते हैं। इन्हीं का एक और पुत्र हुआ, जिसका नाम फल दिया गया। इस प्रकार भगवान यज्ञ अपनी पत्नी दक्षिणा और पुत्र फल से सम्पन्न होने पर सभी कर्मों का फल देने लगे। इससे देवताओं को भी यज्ञ का फल मिलने लगा। इसी कारण शास्त्रों में दक्षिणा के बिना यज्ञ पूरा नहीं होता और कोई फल नहीं मिलता। इसीलिये यज्ञ करने वाले को तभी फल मिलेगा जब वो दक्षिणा देगा।
भारतीय सभ्यता में सृष्टि को चार युगों में बांटा गया है सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलि युग जिन्हें सम्मिलित रूप में ‘महायुग’ कहते हैं। 71 महायुग मिलकर एक ‘मन्वन्तर’ बनाता है। महायुग की अवधि 43 लाख 20 हजार वर्ष है। प्रत्येक मन्वन्तर में सृष्टि का एक मनु होता है और उसी के नाम पर मन्वन्तर का नाम पड़ता है।
पुराणों में चौदह मन्वन्तर हैं, जिनके नाम हैं-
इनमें से चाक्षुष तक के मन्वन्तर बीत चुके हैं। वैवस्वत वर्तमान में चल रहा है, इसीलिये संकल्प आदि में भी इसी का नामोच्चार होता है।
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