इसी के साथ-साथप्राणी मात्र में चेतना-बुद्धि रखते हुये सबकी सेवा की जाय, तो वह प्रभु की सेवा ही होती है। मनुष्य के पास विद्या-बुद्धि, धन-दौलत, मकान-जमीन, बल-आयु आदि जो कुछ भी है, वह सब भगवान की वस्तु है और भगवान की सेवा के लिये ही प्राप्त है। जो मनुष्य निष्काम भाव से केवल भगवत्प्रीत्यर्थ भगवान की वस्तुओं को भगवान के आज्ञानुसार भगवान की सेवा में लगाता रहता है, वह निरन्तर भगवान की पूजा ही करता रहता है, पर ऐसा न करके जो लोग उन वस्तुओं में अपना ममत्व मानकर उनके द्वारा इस नश्वर शरीर को सुख पहुँचाना चाहते हैं और भोग-वासना की पूर्ति के लिये मोहवश झूठ-कपट, दम्भ-छल, चोरी-बेईमानी आदि करते हैं, वे तो मानव जीवन का सर्वथा दुरूपयोग करते हैं और उन्हें इसका बहुत ही बुरा फल भोगने को बाध्य होना होगा। पाप-कर्म करने वालों की अपेक्षा तो सकाम भाव से भगवान का भजन करने वाले और देवाराधना करने वाले भी श्रेष्ठ हैं, परन्तु उससे आत्मकल्याण नहीं होता, अतएव साधक को निष्काम भाव से ही भगवान के शरणापर्न्न होना चाहिये। समस्त दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुराचारों का त्याग करके, इन्द्रिय और मन का संयम करते हुये तथा प्रेम पूर्वक भगवान का ध्यान करते हुये भगवान की सेवा के भाव से ही समस्त कार्य करने चाहिये। सेवा को परम सौभाग्य मानना चाहिये। मनुष्य का शरीर भोगों की प्राप्ति के लिये नहीं, भगवान की सेवा के लिये ही मिला है।
प्रातः काल और सायं काल नियमित रूप से जो लोग साधन करते हैं- नित्यकर्म, पूजा-पाठ, सन्ध्या वन्दन, जप, ध्यान आदि करते हैं, सो बहुत ही उत्तम है, परन्तु उसमें भी सुधार की बड़ी आवश्यकता है। अश्रद्धापूर्वक केवल बला टालने के लिये ही या लोगों को दिखाने के लिये जो लोगों द्वारा साधन या आराधना आदि किया जाता है, वह उत्तम फल देने वाला नहीं होता है। श्रद्धा, विश्वास, धैर्य और आदि बुद्धि से जो साधन होता है, वही उत्तम फलदायक हुआ करता है। उसमें निष्काम भाव हो, विषयों के प्रति वैराग्य और भगवान में अनन्य अनुराग हो तब तो वह परमात्मा को प्राप्त करने का प्रत्यक्ष साधन बन जाता है। अतएव प्रातः काल और सन्ध्या के समय जो साधन होता है, उसमें उपर्युक्त प्रकार से सुधार के साथ-साथ प्रयत्न ऐसा होना चाहिये कि दिनभर के सारे काम प्रेम सहित निष्काम भाव से भगवत् पूजा के ही रूप में हो।
रात्रि के समय शयन काल में सब तरफ से वृत्तियों को हठाकर भगवान के नाम का जप और उनके गुण, प्रभाव, तत्त्व का स्मरण करते हुये शयन करना चाहिये। इस प्रकार से जो शयन किया जाता है, वह सोने का समय भी साधन काल के समान ही बीतता है, क्योंकि उसमें शयन और जागरण दोनों भगवान की स्मृति में ही होते हैं।
मनुष्य की बुद्धिमानी इसी में है कि वह अपने जीवन का एक-एक क्षण आत्मा के कल्याण के लिये ही लगाये। यह काम उसे स्वयं ही करना है और जब तक जीवन है तभी तक इसे किया जा सकता है। मरने के बाद दूसरा कोई इस काम को कर देगा, यह सर्वथा असम्भव है। संसार के काम तो मनुष्य के मरने के बाद भी दूसरों के द्वारा सिद्ध हो सकते है। जैसे धन, मकान, जमीन, गहने, कपड़े और रूपये आदि तमाम चीजें उत्तराधिकारी अपने आप संभाल लेते हैं, चिन्ता तो करनी है अपने आत्मकल्याण के लिये, जिसका मरने के बाद उत्तराधिकारी के द्वारा सिद्ध होना सम्भव नहीं है। इस काम को तो जीते-जी ही कर लेना चाहिये। यही मानव-जीवन का सर्वोत्तम कार्य है। मनुष्य को यह ख्याल करना चाहिये कि मैं कौन हूँ? किस लिये आया हूँ? और मेरा क्या कर्तव्य है? उसे यह समझना चाहिये कि मैं ईश्वर का अंश हूँ और यह संसार प्रकृति का कार्य है। मेरा यहां आना ईश्वर को प्राप्त करने के लिये है, न कि संसार के भोग भोगने के लये। जो मनुष्य दुर्लभ मानव-देह पाकर संसार के भोगों में ही अपने जीवन को बिता देता है, वह मूर्ख अमृत त्यागकर विष पान करता है।
सस्नेह आपकी मां
शोभा श्रीमाली
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