शिष्य चाहे गुरू आश्रम में रहे अथवा अपने स्थान पर, उसकी यह इच्छा रहती है कि उसे अपने जीवन में सब कुछ जल्दी जल्दी मिल जायें और वह सांसारिक जीवन में पूर्ण समर्थ हो जाय, लेकिन गुरू का चिंतन कुछ अलग ही होता है, वे शिष्य के धौर्य और उसकी साधना के प्रति रूचि का बार-बार विवेचन करते ही रहते है, और समय आने पर उसे वह दिव्यभाव वह शक्ति प्रदान कर देते हैं, जिसका वह आकांक्षी होता है। गुरू के दरबार से कोई भी खाली हाथ नही लौटता। गुरू शिष्य का शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य दोनो ही प्रबल कर उसे सजा सम्भाल कर श्रेष्ठ बना ही देते हैं चाहें उसमें कितना ही समय लगें, आवश्यकता हैं शिष्य के धैर्य की, भक्ति की, साधना की और गुरू आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करने की-
मैनें यह अनुभव किया है कि गुरू आश्रम में शिविर के माध्यम से, मिलने के माध्यम से अथवा सेवा के माध्यम से जो भी साधक आते हैं उनके मन में किसी कोने में यह भाव अवश्य छुपा रहता हैं कि मुझे गुरु सानिध्य में जल्दी से जल्दी सिद्धियां प्राप्त हो जाय और मैं संसार के सारे भौतिक सुख प्राप्त कर सकूं। उसके मन में आत्मिक सुख और स्वयं का सुख प्राप्त करने की बजाय, यह भावना विशेष रूप से रहती है कि मैं यह संसार को बता सकूं कि मैंने गुरू से दीक्षा प्राप्त कर, साधना प्राप्त कर यह विशेष स्थिति प्राप्त कर ली है। जीवन के सारे भौतिक सुख प्राप्त कर लिये है, ऐसे शिष्य यह भूल जाते हैं कि गुरू और शिष्य का संबंध केवल भौतिक सुख सुविधायों का आदान-प्रदान ही नहीं होता है। अपितु गुरू शिष्य को पूर्ण रूप से बार-बार परीक्षा ले कर उसे पूर्णरूप से सबल बना देते हैं।
जिस दिन शिष्य गुरू को एक व्यक्ति के रूप में देखना शुरू कर देता है, अपनी बुद्धि के अनुसार उनके गुणों अवगुणों का अवलोकन प्रारंभ कर देता है, तो वह शिष्य चाहे गुरू आश्रम में रहे अथवा कहीं और वह श्रेष्ठ, शिष्य, साधक बन ही नहीं सकता है। क्योंकि उसकी धारणा अलग प्रकार की बन जाती है, वह अपने भीतर अज्ञान की परतें और बढ़ाता रहता है।
साधक की मर्यादा क्या है? साधक का साधना के प्रति दृष्टिकोण कैसा होना चाहिये? साधना का अर्थ क्या है? साधना सम्पन्न करने में किन नियमों का पालन किया जाता है? यह मैंने तब जाना जब मैं कुछ समय के लिये अपने गुरुदेव के सान्निध्य में रहा।
गुरुदेव के पास मैं यह प्रार्थना लेकर उपस्थित हुआ, कि कुछ समय के लिये ही सही, आप मुझे अपने सान्निध्य में रख लीजिये। उसी क्षण गुरुदेव मुस्कुरा कर बोले-‘मेरे साथ रहना अत्यन्त कठिन है, तुम्हारे जैसा गृहस्थ में रहने वाला व्यक्ति जिसे भौतिक सुख-सुविधाओं की आदत है, मेरे साथ निभाना कठिन होगा, क्योंकि जब मैं शिष्य बनाता हूं, तो फिर शिष्यत्व का अर्थ तो कांटो के मार्ग पर चलने जितना कष्टप्रद होता है, जिसमें कहीं आलोचना हैं, तो कहीं अहं की टूटन है, स्थान-स्थान पर अवरोध है, और इन सबके साथ ही आवश्यक है, कि शिष्य में संयम, धैर्य, साहस व अखण्ड विश्वास हो।’
मैं तो अपनी धुन में था, इन सरल से प्रतीत होने वाले शब्दों का अर्थ मैं समझ ही नहीं सका। मेरी व्यग्रता और आतुरता को भांप कर, कुछ समय के लिये गुरूदेव ने मुझे अपने पास रहने की आज्ञा प्रदान कर दी। मैं अत्यन्त आह्लादित हो गया, कि अब तो नित्य प्रति गुरूदेव का सान्निध्य प्राप्त होगा, और मैं उनसे पूछकर साधनायें करूंगा। तथा शेष समय उनकी सेवा कार्य में व्यतीत करूंगा। दो-तीन दिन तक, तो उत्साही व्यक्ति की भांति साधना करता रहा और शेष समय में आश्रम के अन्य कार्य करता था। तीसरे दिन गुरूदेव ने मुझे बुलाया और आज्ञा दी कि आज से तुम यहां रहने वाले सभी शिष्यों के लिये भोजन की व्यवस्था करोगे।
गुरूदेव की आज्ञा एवं मुझमें सेवा करने का जुनून— मैं उसी क्षण से रसोई में हाथ बंटाने लगा। कुछ समय बाद मैं अकेले ही रसोई संभालने लगा। उसके बाद तो जैसे मेरी परीक्षा आरम्भ हो गई। रोज कोई न कोई मेरे भोजन में नुक्स निकालने लगा। मेरे द्वारा भोजन पर हास्य करने लगते या कभी कोई आकर मुझसे शिकायत करता था कि तुमने मेरे लिये भोजन क्यों नहीं रखा, तो कभी कोई इस बात पर आपत्ति करता कि तुम जान बूझकर अन्य लोगो की पसन्द की सामग्री बनाते हो। कई बार मुझे मेरे कार्य में तनिक सी ढील होने पर लताड़ा जाता, जबकि उन कार्यों में मेरी कोई गलती नहीं होती। इन दिनों में गुरूदेव से भी मिलना सम्भव नहीं हो पाता था।
कई बार मैंने प्रयत्न भी किया, तो गुरूदेव ने मिलने से मना कर दिया। रसोई में कार्य करने के कारण मेरी स्वयं की साधना बिल्कुल समाप्त ही हो गई। प्रातः चार बजे से उठकर रात्रि ग्यारह बजे तक अथक परिश्रम के बाद ही अवकाश मिल पाता, जिसमें मैं अपने स्वयं के कपडे धोता और अपनी अन्य आवश्यकताओं को पूरा कर पाता।
कुछ समय पश्चात् मुझे अपने कार्य के प्रति झुंझलाहट उत्पन्न हो गई, बात-बात में मुझे क्रोध आने लगा, गुरूदेव के प्रति भी मेरे मन में कभी-कभी आक्रोश आ जाता। एक दिन मैं अपना कार्य समाप्त कर अकेले बैठा विचार करने लगा, गुरूदेव के पास रह कर उनकी सेवा करने की इच्छा करना- क्या मेरा गलत निर्णय था, फिर गुरूदेव के प्रति मन में आक्रोश आने पर वेदना भी हुई। सारी रात्रि आंखो में ही व्यतीत हो गई। ब्रह्म मुहूर्त होने को आया, तो मुझे उनका वह वाक्य स्मृत हो आया, जो उन्होंने मेरी इच्छा को सुनकर कहा था, शिष्यत्व तो कांटो पर चलने का मार्ग है फूलों को नहीं। इस पथ पर अग्रसर होने के लिये संयम, धैर्य साहस और अखण्ड विश्वास की अत्यन्त आवश्यकता है। यह वाक्य स्मरण होते ही मैं कुछ संकल्प लेकर पुनः अपने कार्य में लग गया। उसी दिन मैं क्रोध छोड़कर विनम्र बनकर कार्य करने लगा।
उस कार्य को भी मैंने सफ़लतापूर्वक सम्पन्न कर लिया। उसके बाद गुरूदेव ने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ कहा- तुमने इतने दिनों तक जिस निष्ठा, धैर्य, संयम से यहां कार्य किया है, यह तुम्हारे जीवन का सौभाग्य ही है। जब शिष्य नमन भाव से गुरू सेवा करता है, तो उसके पुण्यों का फ़ल उसे अवश्य प्राप्त होता है। उसका यह पुण्य उसे करोड़ो वर्ष की तपस्या के फ़लस्वरूप भी नहीं मिल सकता। अब मेरी आज्ञा है कि तुम गृहस्थ धर्म का पालन करो।
थोड़ी देर मौन रहने के उपरान्त गुरूदेव अपनी चिर परिचित मुस्कराहट के साथ बोले- जाओ, स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण कर मेरे पास आओ, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है। स्नान करने के बाद जब मैं पुनः गुरूदेव के पास पहुंचा, तो गुरूदेव ने मेरे आते ही मुझे अपने साथ चलने को कहा। मैं गुरूदेव के साथ उनके साधना कक्ष में पहुंचा, वहां पर पहले से ही पूजन की तैयारी हो चुकी थी। एक आसन पर गुरूदेव बैठ गये और मुझे एक और बैठने को कहा। फिर गुरूदेव ने कुछ मंत्रोच्चारण किये और उसके पश्चात् वहां पर स्थापित एक विशेष तरह के यंत्र का मुझसे पूजन कराया और फिर मुझे एक विशिष्ट मंत्र प्रदान किया तथा उसका जप करने को कहा। मंत्र जप के पश्चात् मैं वहीं, कुछ समय के लिये ध्यानस्थ हो गया। ध्यान जब समाप्त हुआ, तो मैं एक नई उर्जा के साथ मन्थर गति से साधना कक्ष से बाहर निकला।
पहले मैं शिष्य के जीवन को सहज समझता था, पर इतने दिनों में गुरूदेव के सान्निध्य में रहकर मैंने भलीभांति अनुभव कर लिया, कि शिष्य का जीवन जीना कितना कठिन हैं। अनेक प्रकार की बाधायें, समस्यायें उसके समक्ष आ कर खड़ी हो जाती है, पर यदि गुरू कृपा हो तो फिर वह उनसे सहज ही निकल जाता हैं। स्वयं गुरूदेव भी उसे पूर्ण रूप से गढ़ने के लिये अनेक प्रकार से क्रियायें करते हैं, पर यह समझना साधक के लिये अत्यन्त दुष्कर होता हैं।
साधक जीवन की मर्यादा ही है, कि वह अपने गुरू पर पूर्ण विश्वास रखते हुये, उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करे। उसके पश्चात् गुरूदेव ने मुझे घर जाने की आज्ञा प्रदान कर दी और मुझे कहा, कि जो मंत्र दिया है उसका जप नित्य पांच मिनिट तक अवश्य करना है, क्योंकि वह प्रयोग जो तुमने सम्पन्न किया है अद्वितीय प्रयोग है। इस प्रयोग के माध्यम से तुम जिस भी देवता की साधना करोगे, वह तुम्हारे अनुकूल अवश्य बन जायेगा और वह तुम्हारे अनुकूल बनकर रहेगा। घर आने के पश्चात् वे दिन जो मैंने आश्रम में व्यतीत किये थे, मेरे जीवन के स्वर्णिम दिन बनकर रह गये।
सद्गुरूदेव ने मुझे जो साधना सम्पन्न करवाई वह साधना मूलरूप से देव सिद्धि शक्ति साधना थी, जिसके माध्यम से मैं देवताओं का आवाहन कर मानसिक शान्ति एवं अनुकूलता प्राप्त करता हुं। अब मैंने पुनः भौतिक जीवन में प्रवेश कर लिया है। और जीवन में जब भी कोई छोटी मोटी समस्या परेशानी आ जाती है तो मैं यह साधना अवश्य सम्पन्न करता हूं।
इस साधना हेतु देवत्व सिद्धि युक्त महाकाली यंत्र, आठ ब्रह्मयण तथा हकीक माला की आवश्यकता होती है।। यह साधना किसी भी शुक्ल पक्ष के गुरूवार को सम्पन्न कर सकता है। साधक स्नान कर शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण कर स्वच्छ मन एवं श्रद्धा के साथ आसन पर बैठे और अपने सामने लकड़ी के बाजोट पर पीला वस्त्र बिछाकर, उस पर कुंकुम से अष्टदल बनाकर मध्य में देवत्व सिद्धि युक्त महाकाली यंत्र’ को स्थापित कर दे। अष्टदल के प्रत्येक पंखुडी पर एक ब्रह्मयण स्थापित करें। यंत्र का पूजन कुंकुम, अक्षत तथा पुष्प से करें। किसी विशेष देवता को अनुकूल करना है, तो उसका प्रतिबिम्ब मानस में लाकर निम्न ध्यान करें –
नमः श्वात्म रूपं तं सर्वसौभाग्य दायिनं
जन्म मृत्यु जराव्याधिं हारिणे गुरवे नमः।
इसके बाद गुरू पूजन करें तथा एक माला गुरू मंत्र जप के पश्चात् निम्न मंत्र का जप ‘देव सिद्धि शक्ति माला’ से 11 माला करे-
नित्य प्रति अपनी साधना में इस मंत्र की एक माला जप अवश्य करें। प्रारंभिक स्तर पर अपने घर में अपने पूजा स्थान में यह साधना ग्यारह दिन तक करें, उसके पश्चात् ग्यारह हजार गुरू मंत्र जप एवं ग्यारह हजार चेतना मंत्र जप अवश्य करें। उसके पश्चात् सामग्री को किसी पवित्र सरोवर में विसर्जित कर दें।
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